गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 24 - क्या पूजा पूर्ण फल देती है? #Geetakasaar #jagatkasaar
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 24 - क्या पूजा पूर्ण फल देती है?
सभी रामभक्तो को श्रीराम के प्राकट्योत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।। जय श्री राम ।।
क्या आप जानते हैं कि हम जो यज्ञ करते हैं, पूजा करते हैं या जो भी श्रद्धा से अर्पण करते हैं — उसका सच्चा अधिकारी कौन है? क्या सभी देवी-देवता को चढ़ाई गई भक्ति भगवान तक पहुँचती है? या कहीं हम भक्ति करते हुए भी भ्रम में हैं?
आज के अध्याय 9 के श्लोक 24 में भगवान श्रीकृष्ण इस भ्रम को तोड़ते हैं और एक गहरा सिद्धांत बताते हैं।
🧠 और अंत में हम लेंगे एक वास्तविक जीवन की समस्या — और देखेंगे कि इस श्लोक से कैसे मिल सकता है समाधान। तो चलिए शुरू करते हैं — और वीडियो को अंत तक ज़रूर देखें!"
पिछले श्लोक 9.23 में भगवान ने बताया था कि जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे वास्तव में मेरी ही पूजा करते हैं — लेकिन अज्ञानवश। यानि उनका उद्देश्य सही होते हुए भी उनका तरीका भ्रमित होता है।"
श्लोक: अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥
भावार्थ: "मैं ही समस्त यज्ञों का भोक्ता और प्रभु हूँ, परन्तु वे लोग मुझे तत्त्व से नहीं जानते — इसलिए वे च्युत हो जाते हैं।"
संवाद शैली में – "सोचिए… जब आप कोई पूजा करते हैं, तो आप किसे अर्पित करते हैं? भगवान यही कह रहे हैं कि यज्ञ का सच्चा भोक्ता केवल मैं हूँ। लेकिन अगर कोई भक्त यह बात समझे बिना पूजा करता है, तो वह भटक जाता है। क्या कभी आपके साथ भी ऐसा हुआ है कि आप श्रद्धा से पूजा कर रहे हों, लेकिन शांति ना मिले?"
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवान्को तत्त्वसे न जाननेवालोंका पतन।
(श्लोक-२४)
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥
उच्चारण की विधि - अहम्, हि, सर्वयज्ञानाम्, भोक्ता, च, प्रभुः, एव, च, न, तु, माम्, अभिजानन्ति, तत्त्वेन, अतः, च्यवन्ति, ते ॥ २४ ॥
शब्दार्थ - हि = क्योंकि, सर्वयज्ञानाम् = सम्पूर्ण यज्ञोंका, भोक्ता = भोक्ता, च = और, प्रभुः = स्वामी, च = भी, अहम् = मैं, एव = ही हूँ, तु = परंतु, ते = वे, माम् = मुझ परमेश्वरको, तत्त्वेन = तत्त्वसे, न = नहीं, अभिजानन्ति = जानते, अतः = इसीसे, च्यवन्ति = गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्मको प्राप्त होते हैं।
अर्थ - क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु वे मुझ परमेश्वरको तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्मको प्राप्त होते हैं ॥ २४ ॥"
व्याख्या [दूसरे अध्यायमें भगवान् ने कहा है कि जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, वे 'मेरेको केवल परमात्माकी तरफ ही चलना है' - ऐसा निश्चय नहीं कर सकते (दूसरे अध्यायका चौवालीसवाँ श्लोक)। अतः परमात्माकी तरफ चलनेमें दो बाधाएँ मुख्य हैं- अपनेको भोगोंका भोक्ता मानना और अपनेको संग्रहका मालिक मानना। इन दोनोंसे ही मनुष्यकी बुद्धि उलटी हो जाती है, जिससे वह परमात्मासे सर्वथा विमुख हो जाता है। जैसे, बचपनमें बालक माँके बिना रह नहीं सकता; पर बड़ा होनेपर जब उसका विवाह हो जाता है, तब वह स्त्रीसे 'मेरी स्त्री है' ऐसा सम्बन्ध जोड़कर उसका भोक्ता और मालिक बन जाता है। फिर उसको माँ उतनी अच्छी नहीं लगती, सुहाती नहीं। ऐसे ही जब यह जीव भोग और ऐश्वर्यमें लग जाता है अर्थात् अपनेको भोगोंका भोक्ता और संग्रहका मालिक मानकर उनका दास बन जाता है और भगवान् से सर्वथा विमुख हो जाता है, तो फिर उसको यह बात याद ही नहीं रहती कि सबके भोक्ता और मालिक भगवान् हैं। इसीसे उसका पतन हो जाता है।
"परन्तु जब इस जीवको चेत हो जाता है कि वास्तवमें मात्र भोगोंके भोक्ता और मात्र ऐश्वर्यके मालिक भगवान् ही हैं, तो फिर वह भगवान् में लग जाता है, ठीक रास्तेपर आ जाता है। फिर उसका पतन नहीं होता ।]
अहं हि सर्वयज्ञानां* भोक्ता च प्रभुरेव च'- ' शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार मनुष्य यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने शुभकर्म करते हैं तथा अपने वर्ण-आश्रमकी मर्यादाके अनुसार जितने व्यावहारिक और शारीरिक कर्तव्यकर्म करते हैं, उन सब कर्मोंका भोक्ता अर्थात् फलभागी मैं हूँ।
- यहाँ बहुवचन 'यज्ञानाम्' शब्दके अन्तर्गत सम्पूर्ण कर्तव्यकर्म आ जाते हैं, फिर भी इसके साथ 'सर्व' शब्द लगानेका तात्पर्य है कि शास्त्रीय, शारीरिक, व्यावहारिक आदि कोई भी कर्तव्यकर्म बाकी न रहे।"
कारण कि वेदोंमें, शास्त्रोंमें, पुराणोंमें, स्मृति-ग्रन्थोंमें प्राणियोंके लिये शुभ-कर्मोंका जो विधान किया गया है, वह सब-का-सब मेरा ही बनाया हुआ है और मेरेको देनेके लिये ही बनाया हुआ है, जिससे ये प्राणी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंसे और उनके फलोंसे सर्वथा निर्लिप्त रहें, कभी अपने स्वरूपसे च्युत न हों और अनन्य भावसे केवल मेरेमें ही लगे रहें। अतः उन सम्पूर्ण शुभ-कर्मोंका और व्यावहारिक तथा शारीरिक कर्तव्य-कर्मोंका भोक्ता मैं ही हूँ। जैसे सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता (फलभागी) मैं ही हूँ, ऐसे ही सम्पूर्ण संसारका अर्थात् सम्पूर्ण लोक, पदार्थ, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया और प्राणियोंके शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदिका मालिक भी मैं ही हूँ। कारण कि अपनी प्रसन्नताके लिये ही मैंने अपनेमेंसे इस सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना की है; अतः इन सबकी रचना करनेवाला होनेसे इनका मालिक मैं ही हूँ।
विशेष बात
भगवान् का भोक्ता बनना क्या है ?
भगवान् ने कहा है कि महात्माओंकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव ही है (सातवें अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) और मेरी दृष्टिमें भी सत्-असत् सब कुछ मैं ही हूँ (नवें अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) । जब सब कुछ मैं ही हूँ, तो कोई किसी देवताकी पुष्टिके लिये यज्ञ करता है, उस यज्ञके द्वारा देवतारूपमें मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसीको दान देता है, तो दान लेनेवालेके रूपमें मेरा ही अभाव दूर होता है, उससे मेरी ही सहायता होती है। कोई तप करता है, तो उस तपसे तपस्वीके रूपमें मेरेको ही सुख-शान्ति मिलती है। कोई किसीको भोजन कराता है, तो उस भोजनसे प्राणोंके रूपमें मेरी ही तृप्ति होती है। कोई शौच-स्नान करता है, तो उससे उस मनुष्यके रूपमें मेरेको ही प्रसन्नता होती है। कोई पेड़-पौधोंको खाद देता है, उनको जलसे सींचता है तो वह खाद और जल पेड़-पौधोंके रूपमें मेरेको ही मिलता है और उनसे मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसी दीन-दुःखी, अपाहिजकी तन-मन-धनसे सेवा करता है तो वह मेरी ही सेवा होती है। कोई वैद्य-डॉक्टर किसी रोगीका इलाज करता है, तो वह इलाज मेरा ही होता है। कोई कुत्तोंको रोटी डालता है; कबूतरोंको दाना डालता है; गायोंकी सेवा करता है; भूखोंको अन्न देता है; प्यासोंको जल पिलाता है; तो उन सबके रूपमें मेरी ही सेवा होती है। उन सब वस्तुओंको मैं ही ग्रहण करता हूँ ।
एक कथा सुनी है कि एक बार श्रीनामदेवजी महाराज तीर्थयात्रामें गये। यात्रामें कहींपर एक वृक्षके नीचे उन्होंने रोटियाँ बनायीं और सामानमेंसे घी लेनेके लिये पीछे घूमे तो इतनेमें ही एक कुत्ता आकर मुँहमें रोटी लेकर भागा। नामदेवजी महाराजने घी लेकर देखा कि कुत्ता रोटी लेकर भाग रहा है तो वे भी हाथमें घीका पात्र लिये उसके पीछे भागते हुए कहने लगे - 'हे नाथ! आपको ही तो भोग लगाना है, फिर रूखी रोटी लेकर क्यों भाग रहे हो ? रोटीपर थोड़ा घी तो लगाने दीजिये।' नामदेवजीके ऐसा कहते ही कुत्तेमेंसे भगवान् प्रकट हो गये। कुत्तेमें भगवान् के सिवाय और था ही कौन ? नामदेवजी जान गये तो वे प्रकट हो गये। इस प्रकार प्राणिमात्रमें तत्त्वसे भगवान् ही हैं। इसलिये जिस किसीको जो कुछ दिया जाता है, वह भगवान् को ही मिलता है।
जैसे कोई किसी मनुष्यकी सेवा करे, उसके किसी अंगकी सेवा करे, उसके कुटुम्बकी सेवा करे, तो वह सब सेवा उस मनुष्यकी ही होती है। ऐसे ही मनुष्य जहाँ-कहीं सेवा करे, जिस किसीकी सहायता करे, वह सेवा और सहायता मेरेको ही मिलती है। कारण कि मेरे बिना अन्य कोई है ही नहीं। मैं ही अनेक रूपोंमें प्रकट हुआ हूँ - 'बहु स्यां प्रजायेय' (तैत्तिरीय० २।६) । तात्पर्य यह हुआ कि अनेक रूपोंमें सब कुछ ग्रहण करना ही भगवान् का भोक्ता बनना है।
भगवान् का मालिक बनना क्या है ?
भगवत्तत्त्वको जाननेवाले भक्तोंकी दृष्टिमें अपरा और परा-प्रकृतिरूप मात्र संसारके मालिक भगवान् ही हैं। संसारमात्रपर उनका ही अधिकार है। सृष्टिकी रचना करें या न करें, संसारकी स्थिति रखें या न रखें, प्रलय करें या न करें; प्राणियोंको चाहे जहाँ रखें, उनका चाहे जैसा संचालन करें, चाहे जैसा उपभोग करें, अपनी मरजीके मुताबिक चाहे जैसा परिवर्तन करें, आदि मात्र परिवर्तन-परिवर्द्धन करनेमें भगवान् की बिलकुल स्वतन्त्रता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे भोगी पुरुष भोग और संग्रहका चाहे जैसा उपभोग करनेमें स्वतन्त्र है (जबकि उसकी स्वतन्त्रता मानी हुई है, वास्तवमें नहीं है), ऐसे ही भगवान् मात्र संसारका चाहे जैसा परिवर्तन-परिवर्द्धन करनेमें सर्वथा स्वतन्त्र हैं। भगवान् की वह स्वतन्त्रता वास्तविक है। यही भगवान् का मालिक बनना है।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते'- वास्तवमें सत्-असत्, जड-चेतन आदि सब कुछ मैं ही हूँ। अतः जो भी कर्तव्य-कर्म किये जायें, उन कर्मोंका और उनके फलोंका भोक्ता मैं ही हूँ, तथा सम्पूर्ण सामग्रीका मालिक भी मैं ही हूँ। परन्तु जो मनुष्य इस तत्त्वको नहीं जानते, वे तो यही समझते हैं कि हम जिस किसीको जो कुछ देते हैं, खिलाते हैं, पिलाते हैं, वह सब उन-उन प्राणियोंको ही मिलता है; जैसे- हम यज्ञ करते हैं, तो यज्ञके भोक्ता देवता बनते हैं; दान देते हैं, तो दानका भोक्ता वह लेनेवाला बनता है ? कुत्तेको रोटी और गायको घास देते हैं, तो उस रोटी और घासके भोक्ता कुत्ता और गाय बनते हैं; हम भोजन करते हैं, तो भोजनके भोक्ता हम स्वयं बनते हैं, आदि-आदि। तात्पर्य यह हुआ कि वे सब रूपोंमें मेरेको न मानकर अन्यको ही मानते हैं, इसीसे उनका पतन होता है। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह किसी अन्यको भोक्ता और मालिक न मानकर केवल मेरेको ही भोक्ता और मालिक माने अर्थात् जो कुछ चीज दी जाय, उसको मेरी ही समझकर मेरे अर्पण करे -'
त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।
दूसरा भाव यह है कि मनुष्यके पास जो कुछ भोग और ऐश्वर्य है, वह सब मेरा ही है और मेरे विरारूप संसारकी सेवाके लिये ही है। परन्तु भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त मनुष्य उस तत्त्वको न जाननेके कारण उस भोग और ऐश्वर्यको अपना और अपने लिये मान लेते हैं, जिससे वे यही समझते हैं कि ये सब चीजें हमारे उपभोगमें आनेवाली हैं और हम इनके अधिपति हैं, मालिक हैं। पर वास्तवमें वे उन चीजोंके गुलाम हो जाते हैं। वे जितना ही उन चीजोंको अपनी और अपने लिये मानते हैं, उतने ही उनके पराधीन हो जाते हैं। फिर वे उन चीजोंके बनने-बिगड़नेसे अपना बनना-बिगड़ना मानने लगते हैं। इसलिये उनका पतन हो जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरेको सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और मालिक जाननेसे मुक्ति हो जाती है और न जाननेसे पतन हो जाता है।
'च्यवन्ति' पदका तात्पर्य है कि भगवान् को प्राप्त न होनेसे उनका पतन हो जाता है। वे शुभकर्म करके ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें चले जायँ, तो यह भी उनका पतन है; क्योंकि वहाँसे उनको पीछे लौटकर आना ही पड़ता है (गीता - नवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)। वे आवागमनको प्राप्त होते ही रहते हैं; मुक्त नहीं हो सकते।"
"परिशिष्ट भाव - पाँचवें अध्यायके अन्तमें भी भगवान् ने अपनेको सम्पूर्ण यज्ञों और तपोंका भोक्ता बताया है - ' भोक्तारं यज्ञतपसाम्' (५। २९) । वहाँ तो भगवान् ने अन्वयरीतिसे अपनेको सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता जाननेवालोंको शान्ति प्राप्त होनेकी बात कही है और यहाँ व्यतिरेकरीतिसे वैसा न जाननेवालोंका पतन होनेकी बात कही है। स्वयं भोक्ता बननेसे ही पतन होता है। भगवान् को सम्पूर्ण शुभकर्मोंका भोक्ता माननेसे अपनेमें भोक्तापन या भोगेच्छा नहीं रहती। भोगेच्छा न रहनेसे शान्ति प्राप्त हो जाती है।
वास्तवमें सम्पूर्ण कर्मोंके महाकर्ता और महाभोक्ता भगवान् ही हैं। परन्तु कर्ता-भोक्ता होते हुए भी भगवान् वास्तवमें निर्लिप्त ही हैं अर्थात् उनमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं है- 'तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्' (गीता ४। १३), 'न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा' (गीता ४। १४)।
सम्बन्ध-जो भगवान् को सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और मालिक न मानकर देवता आदिका सकामभावसे पूजन करते हैं, उनकी गतियोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।"
MCQ Question Based on Shlok 24
प्रश्न: श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार समस्त यज्ञों का सच्चा भोक्ता कौन है?
A. ब्रह्मा जी B. इंद्र देव C. श्रीकृष्ण D. सूर्य देव
सही उत्तर: ✅ C. श्रीकृष्ण
🔍 आज की जीवन समस्या और समाधान
समस्या: "मैं रोज़ पूजा करता हूँ, भक्ति करता हूँ लेकिन फिर भी जीवन में स्थिरता और शांति नहीं है। क्यों?"
समाधान (श्लोक आधारित): भगवान कहते हैं कि अगर आप पूजा करते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि असली भोक्ता कौन है — तो आपकी भक्ति अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचती। इसलिए जरूरी है सही ज्ञान और भावना के साथ पूजा करना।
💡 समाधान: अगली बार जब आप पूजा करें — मन ही मन कहें: "हे प्रभु श्रीकृष्ण, मैं आपको ही यह सब अर्पित करता हूँ।" इस भावना से आपकी साधना और फल दोनों सिद्ध होंगे।
"कल के श्लोक में हम जानेंगे — कि आप जिसे पूजते हैं, आप उसी लोक को प्राप्त करते हैं! यानि कि आप जिस देवता को मानते हैं, उसका सीधा संबंध है आपके अगले जीवन से! बहुत रोचक और महत्वपूर्ण श्लोक है — कल ज़रूर आइए।"
🙏 "अगर आज का ज्ञान आपके ह्रदय को छू गया हो, तो कमेंट में ‘हर हर गीता! हर घर गीता!’ लिखकर हमें बताएं। 🔔 चैनल सब्सक्राइब करें, वीडियो को लाइक करें और कम से कम 2 लोगों को भेजें — क्योंकि गीता का ज्ञान बाँटने से ही बढ़ता है।
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🛕 **रोज़ाना दर्शन:**
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