गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 23 - क्या सभी पूजा समान हैं?
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता का सार अध्याय 9 श्लोक 23 - क्या सभी पूजा समान हैं?
"क्या सभी देवताओं की पूजा करने वाले अंततः श्रीकृष्ण तक पहुँचते हैं? क्या अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ एक ही मंज़िल तक ले जाती हैं?
नमस्कार! स्वागत है आपका 'Geeta ka Saar' में, जहाँ हम हर दिन गीता का एक नया श्लोक समझते हैं। आज हम अध्याय 9, श्लोक 23 को जानेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि श्रीकृष्ण इस विषय में क्या कहते हैं।"
"कल के श्लोक में हमने जाना कि जो स्वर्गलोक की अभिलाषा रखते हैं, वे वहाँ तक पहुँच सकते हैं, लेकिन वह स्थिति स्थायी नहीं होती। असली भक्ति वह है जो भगवान के चरणों में सदा के लिए स्थिरता लाती है।"
🔹 आज का श्लोक (Today's Shlok 9.23) & व्याख्या
"जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी मेरी ही पूजा कर रहे होते हैं, लेकिन अविधिपूर्वक।"
👉 श्रीकृष्ण यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि समस्त उपासना का मूल स्रोत वे स्वयं हैं। लेकिन जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे अप्रत्यक्ष रूप से श्रीकृष्ण की ही आराधना कर रहे होते हैं, परंतु विधि से भटक जाते हैं।
🔥 क्या इसका अर्थ यह है कि अन्य देवताओं की पूजा व्यर्थ है? 👉 नहीं, बल्कि यह समझने की बात है कि सभी देवता परमात्मा के ही विभिन्न रूप हैं, लेकिन अंतिम लक्ष्य श्रीकृष्ण तक पहुँचना ही है।
"तो मित्रों, आपका क्या विचार है? क्या आपको लगता है कि सभी उपासनाएँ समान फल देती हैं? अपने विचार नीचे कमेंट में ज़रूर बताएं!"
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"अन्य देवताओंकी उपासनाको भी प्रकारान्तरसे अविधिपूर्वक अपनी उपासना बतलाना ।
(श्लोक-२३)
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥
उच्चारण की विधि - ये, अपि, अन्यदेवताः, भक्ताः, यजन्ते, श्रद्धया, अन्विताः, ते, अपि, माम्, एव, कौन्तेय, यजन्ति, अविधिपूर्वकम् ॥ २३ ॥
शब्दार्थ - कौन्तेय अर्थात् हे अर्जुन !, अपि अर्थात् यद्यपि, श्रद्धया अर्थात् श्रद्धासे, अन्विताः अर्थात् युक्त, ये अर्थात् जो सकाम, भक्ताः अर्थात् भक्त, अन्यदेवताः अर्थात् दूसरे देवताओंको, यजन्ते अर्थात् पूजते हैं, ते अर्थात् वे, अपि अर्थात् भी, माम् अर्थात् मुझको, एव अर्थात् ही, यजन्ति पूजते हैं, (किंतु उनका वह पूजन), अविधिपूर्वकम् अर्थात् अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है।
अर्थ - हे अर्जुन ! यद्यपि श्रद्धासे युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओंको पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं; किन्तु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है॥ २३॥
व्याख्या-'येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः'- देवताओंके जिन भक्तोंको 'सब कुछ मैं ही हूँ' ('सदसच्चाहम्' ९। १९) - यह समझमें नहीं आया है और जिनकी श्रद्धा अन्य देवताओंपर है, वे उन देवताओंका ही श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं। वे देवताओंको मेरेसे अलग और बड़ा मानकर अपनी-अपनी श्रद्धा-भक्तिके अनुसार अपने-अपने इष्ट देवताके नियमोंको धारण करते हैं। इन देवताओंकी कृपासे ही हमें सब कुछ मिल जायगा-ऐसा समझकर नित्य-निरन्तर देवताओंकी ही सेवा-पूजामें लगे रहते हैं।
' तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ' - देवताओंका पूजन करनेवाले भी वास्तवमें मेरा ही पूजन करते हैं; क्योंकि तत्त्वसे मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं। मेरेसे अलग उन देवताओंकी सत्ता ही नहीं है। वे मेरे ही स्वरूप हैं। अतः उनके द्वारा किया गया देवताओंका पूजन भी वास्तवमें मेरा ही पूजन है, पर है अविधिपूर्वक । अविधिपूर्वक कहनेका मतलब यह नहीं है कि पूजनसामग्री कैसी होनी चाहिये ? उनके मन्त्र कैसे होने चाहिये ? उनका पूजन कैसे होना चाहिये ? आदि-आदि विधियोंका उनको ज्ञान नहीं है। इसका मतलब है- मेरेको उन देवताओंसे अलग मानना। जैसे कामनाके कारण ज्ञान हरा जानेसे वे देवताओंके शरण होते हैं (गीता - सातवें अध्यायका बीसवाँ श्लोक), ऐसे ही यहाँ मेरेसे देवताओंकी अलग (स्वतन्त्र) सत्ता मानकर जो देवताओंका पूजन करना है, यही अविधिपूर्वक पूजन करना है।
इस श्लोकका निष्कर्ष यह निकला कि (१) अपनेमें किसी प्रकारकी किंचिन्मात्र भी कामना न हो और उपास्यमें भगवद्बुद्धि हो, तो अपनी-अपनी रुचिके अनुसार किसी भी प्राणीको, मनुष्यको और किसी भी देवताको अपना उपास्य मानकर उसकी पूजा की जाय, तो वह सब भगवान् का ही पूजन हो जायगा और उसका फल भगवान् की ही प्राप्ति होगा; और (२) अपनेमें किंचिन्मात्र भी कामना हो और उपास्यरूपमें साक्षात् भगवान् हों तो वह अर्थार्थी, आर्त आदि भक्तोंकी श्रेणीमें आ जायगा, जिनको भगवान् ने उदार कहा है (सातवें अध्यायका अठारहवाँ श्लोक)।
वास्तवमें सब कुछ भगवान् ही हैं। अतः जिस किसीकी उपासना की जाय, सेवा की जाय, हित किया जाय, वह प्रकारान्तरसे भगवान् की ही उपासना है। जैसे आकाशसे बरसा हुआ पानी नदी, नाला, झरना आदि बनकर अन्तमें समुद्रको ही प्राप्त होता है (क्योंकि वह जल समुद्रका ही है), ऐसे ही मनुष्य जिस किसीका भी पूजन करे, वह तत्त्वसे भगवान् का ही पूजन होता है *।
- आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् । सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति ॥
(लौगाक्षिस्मृति)
परन्तु पूजकको लाभ तो अपनी-अपनी भावनाके अनुसार ही होता है।
परिशिष्ट भाव - 'त्रैविद्या माम्' (९। २०), 'अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्' (९। २२) और 'तेऽपि मामेव' (९। २३) - तीनों जगह भगवान् के लिये 'माम्' शब्द देनेका तात्पर्य है कि सब कुछ भगवान् ही हैं, इसलिये भगवान् सबको अपना ही स्वरूप जानते हैं। अगर मनुष्यमें कामना न हो और सबमें भगवद्बुद्धि हो तो वह किसीकी भी उपासना करे, वह वास्तवमें भगवान् की ही उपासना है। तात्पर्य है कि अगर निष्कामभाव और भगवद्बुद्धि हो जाय तो उसका पूजन अविधिपूर्वक नहीं रहेगा, प्रत्युत वह भगवान् का ही पूजन हो जायगा।
सातवें अध्यायमें 'देवयजः' पद आया था (७। २३), उसीको यहाँ 'यजन्ते' पदसे कहा गया है।
सम्बन्ध-देवताओंका पूजन करनेवालोंका अविधिपूर्वक पूजन करना क्या है? इसपर कहते हैं-"
कल के श्लोक में हम जानेंगे कि श्रीकृष्ण स्वयं को किस रूप में प्रकट करते हैं और कौन सा भक्ति मार्ग सबसे श्रेष्ठ है।"
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