गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 22 - भक्तों की हर ज़रूरत

 

गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 22 - भक्तों की हर ज़रूरत


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 22 - भक्तों की हर ज़रूरत


🙏 जय श्रीकृष्ण! आप सभी का स्वागत है "गीता का सार" में, जहाँ हम गीता के श्लोकों को समझकर जीवन के गूढ़ रहस्यों को खोजने की कोशिश कर रहे हैं।

आज का विषय बेहद ख़ास है! क्या भगवान सच में अपने भक्तों का हर काम संभालते हैं? क्या सिर्फ़ "हे भगवान!" कहने से हमारी समस्याएँ हल हो जाएँगी? या फिर इसके पीछे कोई और गहरा रहस्य छिपा है?

इसका उत्तर श्रीकृष्ण खुद देते हैं गीता के अध्याय 9, श्लोक 22 में! तो चलिए, इस श्लोक को समझते हैं और जानते हैं कि यह हमारे जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण है!

💬 आपका क्या विचार है? क्या आपको कभी लगा कि भगवान आपकी मदद कर रहे हैं? कमेंट में बताइए!


पिछले श्लोक (अध्याय 9, श्लोक 21) में हमने जाना कि स्वर्ग का सुख भी अस्थायी होता है। पुण्य समाप्त होते ही जीव को फिर से पृथ्वी लोक में आना पड़ता है। इसलिए श्रीकृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि हमें मोक्ष की ओर बढ़ना चाहिए, न कि सिर्फ़ स्वर्ग की कामना करनी चाहिए।


📖 आज का श्लोक (अध्याय 9, श्लोक 22):



अनन्याश्चिन्तयन्तो मां, ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां, योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

🔹 भावार्थ: जो भक्त अनन्य भाव से केवल मेरे बारे में चिंतन करते हैं, उनकी हर ज़रूरत को मैं पूरा करता हूँ और उनकी रक्षा भी करता हूँ।

🔹 व्याख्या: 💡 क्या इसका मतलब यह है कि हमें कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, भगवान सबकुछ कर देंगे? 🤔 नहीं! यहाँ श्रीकृष्ण "अनन्य भक्ति" की बात कर रहे हैं।

"योगक्षेमं वहाम्यहम्" का मतलब है: योग: जो चीज़ हमारे पास नहीं है, उसे भगवान हमें प्रदान करेंगे। क्षेम: जो चीज़ हमारे पास है, उसकी रक्षा करेंगे।

लेकिन शर्त है – सच्ची, अनन्य भक्ति! सिर्फ़ मंदिर जाने से कुछ नहीं होगा, अगर हमारा मन भटक रहा है!

💬 आप क्या सोचते हैं? क्या भगवान सच में भक्तों का ध्यान रखते हैं? कमेंट में ज़रूर बताइए!


कल के श्लोक (अध्याय 9, श्लोक 23) में श्रीकृष्ण बताएंगे कि जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे वास्तव में किसकी पूजा कर रहे हैं? 🤔 क्या सभी देवता एक ही हैं? इसका उत्तर जानने के लिए कल का वीडियो मिस मत कीजिए!


श्री हरि

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर चिन्तन करनेवाले अपने भक्तोंका योगक्षेम स्वयं वहन करनेकी प्रतिज्ञा ।

(श्लोक-२२)

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥

उच्चारण की विधि - अनन्याः, चिन्तयन्तः, माम्, ये, जनाः, पर्युपासते, तेषाम्, नित्याभियुक्तानाम्, योगक्षेमम्, वहामि, अहम् ॥ २२ ॥

शब्दार्थ - ये अर्थात् जो, अनन्याः अर्थात् अनन्य प्रेमी, जनाः अर्थात् भक्तजन, माम् अर्थात् मुझ परमेश्वरको, चिन्तयन्तः अर्थात् निरन्तर चिन्तन करते हुए, पर्युपासते अर्थात् निष्कामभावसे भजते हैं, तेषाम् अर्थात् उन, नित्याभियुक्तानाम् अर्थात् नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका, योगक्षेमम् अर्थात् योगक्षेम *, अहम् अर्थात् मैं स्वयं, वहामि अर्थात् प्राप्त कर देता हूँ।

अर्थ - जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम * मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ ॥ २२ ॥


व्याख्या-'अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते' - जो कुछ देखने, सुनने और समझनेमें आ रहा है, वह सब-का-सब भगवान् का स्वरूप ही है और उसमें जो कुछ परिवर्तन तथा चेष्टा हो रही है, वह सब-की-सब भगवान् की लीला है - ऐसा जो दृढ़तासे मान लेते हैं, समझ लेते हैं, उनकी फिर भगवान् के सिवाय कहीं भी महत्त्वबुद्धि नहीं होती। वे भगवान् में ही लगे रहते हैं। इसलिये वे 'अनन्य' हैं। केवल भगवान् में ही महत्ता और प्रियता होनेसे उनके द्वारा स्वतः भगवान् का ही चिन्तन होता है।

'अनन्याः' कहनेका दूसरा भाव यह है कि उनके साधन और साध्य केवल भगवान् ही हैं अर्थात् केवल भगवान् के ही शरण होना है, उन्हींका चिन्तन करना है, उन्हींकी उपासना करनी है और उन्हींको प्राप्त करना है - ऐसा उनका दृढ़ भाव है। भगवान् के सिवाय उनका कोई अन्य भाव है ही नहीं; क्योंकि भगवान् के सिवाय अन्य सब नाशवान् है। अतः उनके मनमें भगवान् के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है; अपने जीवन-निर्वाहकी भी इच्छा नहीं है। इसलिये वे अनन्य हैं।


वे खाना-पीना, चलना-फिरना, बातचीत करना, व्यवहार करना आदि जो कुछ भी काम करते हैं, वह सब भगवान् की ही उपासना है; क्योंकि वे सब काम भगवान् की प्रसन्नताके लिये ही करते हैं।

'तेषां नित्याभियुक्तानाम्' - जो अनन्य होकर भगवान् का ही चिन्तन करते हैं और भगवान् की प्रसन्नताके लिये ही सब काम करते हैं, उन्हींके लिये यहाँ 'नित्याभियुक्तानाम्' पद आया है।

इसको दूसरे शब्दोंमें इस प्रकार समझें कि वे संसारसे विमुख हो गये-यह उनकी 'अनन्यता' है, वे केवल भगवान् के सम्मुख हो गये- यह उनका 'चिन्तन' है और सक्रिय-अक्रिय सभी अवस्थाओंमें भगवत्सेवापरायण हो गये-यह उनकी 'उपासना' है। ये तीनों बातें जिनमें हो जाती हैं, वे ही 'नित्याभियुक्त' हैं।

'योगक्षेमं वहाम्यहम्' - अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करा देना 'योग' है और प्राप्त सामग्रीकी रक्षा करना 'क्षेम' है। भगवान् कहते हैं कि मेरेमें नित्य-निरन्तर लगे हुए भक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।


वास्तवमें देखा जाय तो अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करानेमें भी 'योग' का वहन है और प्राप्ति न करानेमें भी 'योग' का वहन है। कारण कि भगवान् तो अपने भक्तका हित देखते हैं और वही काम करते हैं, जिसमें भक्तका हित होता हो। ऐसे ही प्राप्त वस्तुकी रक्षा करनेमें भी 'क्षेम' का वहन है और रक्षा न करनेमें भी 'क्षेम' का वहन है। अगर भक्तकी भक्ति बढ़ती हो, उसका कल्याण होता हो तो भगवान् प्राप्तकी रक्षा करेंगे; क्योंकि इसीमें उसका 'क्षेम' है। अगर प्राप्तकी रक्षा करनेसे उसकी भक्ति न बढ़ती हो, उसका हित न होता हो तो भगवान् उस प्राप्त वस्तुको नष्ट कर देंगे; क्योंकि नष्ट करनेमें ही उसका 'क्षेम' है। इसलिये भगवान् के भक्त अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों परिस्थितियोंमें परम प्रसन्न रहते हैं। भगवान् पर निर्भर रहनेके कारण उनका यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि जो भी परिस्थिति आती है, वह भगवान् की ही भेजी हुई है। अतः 'अनुकूल परिस्थिति ठीक है और प्रतिकूल परिस्थिति बेठीक है' - उनका यह भाव मिट जाता है। उनका भाव रहता है कि 'भगवान् ने जो किया है, वही ठीक है और भगवान् ने जो नहीं किया है, वही ठीक है, उसीमें हमारा कल्याण है'।


ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये'- यह सोचनेकी हमें किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। कारण कि हम सदा भगवान् के हाथमें ही हैं और भगवान् सदा ही हमारा वास्तविक हित करते रहते हैं। इसलिये हमारा अहित कभी हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि भक्तका मनचाहा हो जाय तो उसमें भी कल्याण है और मनचाहा न हो तो उसमें भी कल्याण है। भक्तका चाहा और न चाहा कोई मूल्य नहीं रखता, मूल्य तो भगवान् के विधानका है। इसलिये अगर कोई अनुकूलतामें प्रसन्न और प्रतिकूलतामें खिन्न होता है, तो वह भगवान् का दास नहीं है, प्रत्युत अपने मनका दास है।

वास्तवमें तो 'योग' नाम भगवान् के साथ सम्बन्धका है और 'क्षेम' नाम जीवके कल्याणका है। इस दृष्टिसे भगवान् भक्तके सम्बन्धको अपने साथ दृढ़ करते हैं- यह तो भक्तका 'योग' हुआ और भक्तके कल्याणकी चेष्टा करते हैं- यह भक्तका 'क्षेम' हुआ। इसी बातको लेकर दूसरे अध्यायके पैंतालीसवें श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनके लिये आज्ञा दी कि 'तू निर्योगक्षेम हो जा' अर्थात् तू योग और क्षेम-सम्बन्धी किसी प्रकारकी चिन्ता मत कर।


वहाम्यहम्' का तात्पर्य है कि जैसे छोटे बच्चेके लिये माँ किसी वस्तुकी आवश्यकता समझती है, तो बड़ी प्रसन्नता और उत्साहके साथ स्वयं वह वस्तु लाकर देती है। ऐसे ही मेरेमें निरन्तर लगे हुए भक्तोंके लिये मैं किसी वस्तुकी आवश्यकता समझता हूँ, तो वह वस्तु मैं स्वयं ढोकर लाता हूँ अर्थात् भक्तोंके सब काम मैं स्वयं करता हूँ।

परिशिष्ट भाव - भगवान् यहाँ पूर्वश्लोकमें वर्णित वैदिक सकामी मनुष्यों और आगेके श्लोकमें वर्णित अन्य देवताओंके उपासकोंकी अपेक्षा अपने भक्तोंकी विशेषता बताते हैं। भगवान् के अनन्यभक्त न तो पूर्वश्लोकमें वर्णित इन्द्रको मानते हैं और न आगेके श्लोकमें वर्णित अन्य देवताओंको मानते हैं। इन्द्रादिकी उपासना करनेवालोंको तो कामनाके अनुसार सीमित फल मिलता है। परन्तु भगवान् की उपासना करनेवालेको असीम फल मिलता है। देवताओंका उपासक तो मजदूर (नौकर) की तरह है और भगवान् की उपासना करनेवाला घरके सदस्यकी तरह है। मजदूर काम करता है तो उसको मजदूरीके अनुसार सीमित पैसे मिलते हैं, पर घरका सदस्य काम करता है तो सब कुछ उसीका होता है।

अनन्यभक्त वे हैं, जिनकी दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय अन्यकी सत्ता ही नहीं है-


उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥

(मानस, अरण्य० ५।६)

'योगक्षेमं वहाम्यहम् ' - भगवान् साधकको उसके लिये आवश्यक साधन सामग्री प्राप्त कराते हैं और प्राप्त साधन-सामग्रीकी रक्षा करते हैं- यही भगवान् का योगक्षेम वहन करना है। यद्यपि भगवान् सभी साधकोंका योगक्षेम वहन करते हैं, तथापि अनन्यभक्तोंका योगक्षेम विशेषरूपसे वहन करते हैं; जैसे - प्यारे बच्चेका पालन माँ स्वयं करती है, नौकरोंसे नहीं करवाती।

जैसे भक्तको भगवान् की सेवामें आनन्द आता है, ऐसे ही भगवान् को भी भक्तकी सेवामें आनन्द आता है- 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्' (गीता ४। ११)।

सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें अपनी उपासनाकी बात कह करके अब भगवान् अन्य देवताओंकी उपासनाकी बात कहते हैं।


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