गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 21 - क्या स्वर्ग का सुख स्थायी है?
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 21 - क्या स्वर्ग का सुख स्थायी है?
🙏 जय श्रीकृष्ण! स्वागत है आप सभी का "ईश्वर अर्जुन संवाद" सीरीज में, जहाँ हम श्रीमद्भगवद गीता के अमृत ज्ञान को सरल भाषा में समझने की कोशिश कर रहे हैं।
आज हम एक बहुत महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करेंगे – क्या स्वर्ग का सुख स्थायी होता है? क्या हमें स्वर्ग जाने की इच्छा रखनी चाहिए? आइए जानते हैं गीता के अध्याय 9, श्लोक 21 के माध्यम से!
💬 क्या आप कभी इस विषय पर विचार कर चुके हैं? अपने विचार हमें कमेंट सेक्शन में जरूर बताइए!
पिछले श्लोक में हमने जाना कि ईश्वर को पाने के लिए सच्ची भक्ति कितनी महत्वपूर्ण है। श्रीकृष्ण ने बताया कि जो लोग अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे अपने कर्मों के अनुसार फल पाते हैं, लेकिन सच्ची मुक्ति केवल ईश्वर की भक्ति से ही संभव है।
📖 आज का श्लोक (अध्याय 9, श्लोक 21):
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं। क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।।
🔹 भावार्थ: स्वर्गलोक में पुण्य कर्मों का फल भोगने के बाद, जब पुण्य समाप्त हो जाता है, तब व्यक्ति पुनः मर्त्यलोक (पृथ्वी) पर आ जाता है। इसका अर्थ यह है कि स्वर्ग का आनंद भी स्थायी नहीं है!
🔹 व्याख्या: स्वर्ग को पाने की लालसा में कई लोग अच्छे कर्म करते हैं, लेकिन गीता हमें यह सिखाती है कि स्वर्ग भी एक अस्थायी अवस्था है। पुण्य समाप्त होते ही जीव को फिर से जन्म लेना पड़ता है। इसलिए हमें मोक्ष की ओर बढ़ना चाहिए, न कि केवल स्वर्ग सुख की कामना करनी चाहिए।
💬 आपके विचार: क्या आप स्वर्ग को पाना चाहते हैं, या फिर मोक्ष की राह पर बढ़ना पसंद करेंगे? कमेंट करके हमें बताइए!
श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
(श्लोक-२१)
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥
उच्चारण की विधि - ते, तम्, भुक्त्वा, स्वर्गलोकम्, विशालम्, क्षीणे, पुण्ये, मर्त्यलोकम्, विशन्ति, एवम्, त्रयीधर्मम्, अनुप्रपन्नाः, गतागतम्, कामकामाः, लभन्ते ॥ २१ ॥
शब्दार्थ - ते अर्थात् वे, तम् अर्थात् उस, विशालम् अर्थात् विशाल, स्वर्गलोकम् अर्थात् स्वर्गलोकको, भुक्त्वा अर्थात् भोगकर, पुण्ये अर्थात् पुण्य, क्षीणे अर्थात् क्षीण होनेपर, मर्त्यलोकम् अर्थात् मृत्युलोकको, विशन्ति अर्थात् प्राप्त होते हैं, एवम् अर्थात् इस प्रकार (स्वर्गके साधनरूप), त्रयीधर्मम् अर्थात् तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मका, अनुप्रपन्नाः अर्थात् आश्रय लेनेवाले (और), कामकामाः अर्थात् भोगोंकी कामनावाले पुरुष, गतागतम् अर्थात् बार-बार आवागमनको, लभन्ते अर्थात् प्राप्त होते हैं अर्थात् पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आते हैं।
अर्थ - वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकामकर्मका आश्रय लेनेवाले और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बार-बार आवागमनको प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आते हैं ॥ २१ ॥
व्याख्या 'ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं......कामकामा लभन्ते' - स्वर्गलोक भी विशाल (विस्तृत) है, वहाँकी आयु भी विशाल (लम्बी) है और वहाँकी भोग-सामग्री भी विशाल (बहुत) है। इसलिये इन्द्रलोकको 'विशाल' कहा गया है।
स्वर्गकी प्राप्ति चाहनेवाले न तो भगवान् का आश्रय लेते हैं और न भगवत्प्राप्तिके किसी साधनका ही आश्रय लेते हैं। वे तो केवल तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मों (अनुष्ठानों) का ही आश्रय लेते हैं। इसलिये उनको त्रयीधर्मके शरण बताया गया है।
'गतागतम्' का अर्थ है- जाना और आना। सकाम अनुष्ठान करनेवाले स्वर्गके प्रापक जिन पुण्योंके फलस्वरूप स्वर्गमें जाते हैं, उन पुण्योंके समाप्त होनेपर वे पुनः मृत्युलोकमें लौट आते हैं। इस प्रकार उनका घटीयन्त्रकी तरह बार-बार सकाम शुभकर्म करके स्वर्गमें जाने और फिर लौटकर मृत्युलोकमें आनेका चक्कर चलता ही रहता है। इस चक्करसे वे कभी छूट नहीं पाते।
अगर पूर्वश्लोकमें आये 'पूतपापाः' पदसे जिनके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये हैं और यहाँ आये 'क्षीणे पुण्ये' पदोंसे जिनके सम्पूर्ण पुण्य क्षीण हो गये हैं- ऐसा अर्थ लिया जाय, तो उनको (पाप-पुण्य दोनों क्षीण होनेसे) मुक्त हो जाना चाहिये ? परन्तु वे मुक्त नहीं होते, प्रत्युत आवागमनको प्राप्त होते हैं। इसलिये यहाँ 'पूतपापाः' पदसे वे लिये गये हैं, जिनके स्वर्गके प्रतिबन्धक पाप यज्ञ करनेसे नष्ट हो गये हैं और 'क्षीणे पुण्ये' पदोंसे वे लिये गये हैं, जिनके स्वर्गके प्रापक पुण्य वहाँका सुख भोगनेसे समाप्त हो गये हैं। अतः सम्पूर्ण पापों और पुण्योंके नाशकी बात यहाँ नहीं आयी है।
सम्बन्ध- जो त्रयीधर्मका आश्रय लेते हैं, उनको तो देवताओंसे प्रार्थना-याचना करनी पड़ती है; परन्तु जो केवल मेरा ही आश्रय लेते हैं, उनको अपने योगक्षेमके लिये मनमें चिन्ता, संकल्प अथवा याचना नहीं करनी पड़ती- यह बात भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।
कल के श्लोक (अध्याय 9, श्लोक 22) में श्रीकृष्ण यह बताएंगे कि वे अपने भक्तों की हर इच्छा कैसे पूर्ण करते हैं! क्या सच में भगवान हमारी हर जरूरत का ध्यान रखते हैं? जानने के लिए कल का वीडियो ज़रूर देखें!
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क्या स्वर्ग का सुख स्थायी होता है? श्रीमद्भगवद गीता में इस पर क्या बताया गया है?
"श्रीमद्भगवद गीता के अध्याय 9, श्लोक 21 में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि स्वर्ग का सुख स्थायी नहीं होता। जो भी पुण्यात्मा स्वर्ग लोक में जाते हैं, वे वहाँ अपने पुण्य के अनुसार सुख भोगते हैं, लेकिन जब पुण्य समाप्त हो जाता है, तो उन्हें पुनः पृथ्वी लोक में आना पड़ता है।
🔹 मुख्य बातें:
✅ स्वर्ग एक अस्थायी अवस्था है।
✅ पुण्य कर्मों का फल भोगने के बाद व्यक्ति पुनः जन्म लेता है।
✅ वास्तविक मुक्ति (मोक्ष) केवल ईश्वर की भक्ति और ज्ञान से संभव है।
क्या हमें स्वर्ग की कामना करनी चाहिए या मोक्ष की?
गीता के अनुसार, स्वर्ग का आनंद क्षणिक है, जबकि मोक्ष हमें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करता है। इसलिए, हमें अपने कर्मों को इस प्रकार करना चाहिए कि वे हमें मोक्ष की ओर ले जाएँ।
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