गीता का सार (Geeta Ka Saar) अध्याय 9 श्लोक 20 - क्या वास्तव में यज्ञ करने से स्वर्ग मिलता है?

 


"श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 9 श्लोक 20 | क्या वास्तव में यज्ञ करने से स्वर्ग मिलता है? | गीता का सार"




🌿 "क्या यज्ञ और पूजा-पाठ से हमें स्वर्ग की प्राप्ति होती है? या इनसे कुछ और गहरा संदेश छिपा है?"
आज के इस एपिसोड में हम श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 9 के श्लोक 20 की गहराई से व्याख्या करेंगे। आइए समझते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण हमें क्या संदेश दे रहे हैं और कैसे यह श्लोक हमारे जीवन में बदलाव ला सकता है।

💡 कल का श्लोक – "श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 9 श्लोक 21"
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🔹 Intro (शुरुआत – 30 सेकंड)

"हरि ओम! 🙏 स्वागत है आप सभी का ‘ईश्वर अर्जुन संवाद’ में, जहाँ हम रोज़ गीता जी के एक श्लोक की व्याख्या करते हैं और उसे अपने जीवन में लागू करने की कोशिश करते हैं। 🚀

आज हम अध्याय 9, श्लोक 20 पर चर्चा करेंगे। भगवान श्रीकृष्ण यहाँ यज्ञ करने वालों के बारे में क्या कहते हैं? क्या सच में यज्ञ करने से स्वर्ग मिलता है? चलिए जानते हैं!

वीडियो शुरू करने से पहले, आपसे अनुरोध है – अगर आप इस यात्रा में हमारे साथ हैं, तो इस वीडियो को लाइक करें, कमेंट करें और इसे अपने दो दोस्तों तक जरूर पहुँचाएँ। क्योंकि आपका एक शेयर किसी के जीवन में बदलाव ला सकता है! 🙌"


🔹 Recap (पिछले श्लोक का सार) – 30 सेकंड

"दोस्तों, पिछले एपिसोड में हमने जाना कि भगवान कृष्ण अपने भक्तों के लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं। जिन्होंने उन्हें पूरी श्रद्धा से स्वीकार किया, उनके लिए वे जीवन में हर जगह उपस्थित हैं।

अगर आपने पिछला वीडियो मिस कर दिया, तो डिस्क्रिप्शन में लिंक दिया है – जरूर देखें! 🎥"


🔹 Today's Shlok Explanation (आज का श्लोक - 3-4 मिनट)

📖 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 9 श्लोक 20:
"त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।"

🔹 भावार्थ:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो लोग वेदों के तीनों विभागों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) का अध्ययन करते हैं, वे यज्ञों द्वारा मेरी पूजा करते हैं और स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा रखते हैं। ये लोग पुण्य अर्जित कर इंद्रलोक में जाते हैं और वहाँ दिव्य सुखों का भोग करते हैं।

🔍 गहराई से समझें:
1️⃣ यज्ञ करना और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए कर्म करना सतोगुणी मार्ग है, लेकिन यह स्थायी नहीं है।
2️⃣ पुण्य समाप्त होते ही स्वर्ग से पुनः धरती पर जन्म लेना पड़ता है।
3️⃣ भगवान हमें यह समझा रहे हैं कि असली मोक्ष और शाश्वत सुख भक्ति मार्ग में है, न कि केवल स्वर्ग पाने की इच्छा में।

👉 क्या आप मानते हैं कि स्वर्ग में जाना अंतिम लक्ष्य है, या आत्म-साक्षात्कार अधिक महत्वपूर्ण है? कमेंट में अपनी राय बताइए!

"(श्लोक-२०)


त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥


उच्चारण की विधि - त्रैविद्याः, माम्, सोमपाः, पूतपापाः, यज्ञैः, इष्दा, स्वर्गतिम्, प्रार्थयन्ते, ते, पुण्यम्, आसाद्य, सुरेन्द्रलोकम्, अश्नन्ति, दिव्यान्, दिवि, देवभोगान् ॥ २० ॥


शब्दार्थ - त्रैविद्याः अर्थात् तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकाम कर्मोंको करनेवाले, सोमपाः अर्थात् सोमरसको पीनेवाले, पूतपापाः अर्थात् पापरहित पुरुष*, माम् अर्थात् मुझको, यज्ञैः अर्थात् यज्ञोंके द्वारा, इष्ट्वा अर्थात् पूजकर, स्वर्गतिम् अर्थात् स्वर्गकी प्राप्ति, प्रार्थयन्ते अर्थात् चाहते हैं, ते अर्थात् वे पुरुष, पुण्यम् अर्थात् अपने पुण्योंके फलरूप, सुरेन्द्रलोकम् अर्थात् स्वर्गलोकको, आसाद्य अर्थात् प्राप्त होकर, दिवि अर्थात् स्वर्गमें, दिव्यान् अर्थात् दिव्य, देवभोगान् अर्थात् देवताओंके भोगोंको, अश्नन्ति अर्थात् भोगते हैं।


अर्थ - तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकामकर्मोंको करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले, पापरहित पुरुष * मुझको यज्ञोंके द्वारा पूजकर स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं; वे पुरुष अपने पुण्योंके फलरूप स्वर्गलोकको प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्य देवताओंके भोगोंको भोगते हैं ॥ २० ॥"

व्याख्या 'त्रैविद्याः मां सोमपाः..... दिव्यान्दिवि देवभोगान्'- संसारके मनुष्य प्रायः यहाँके भोगोंमें ही लगे रहते हैं। उनमें भी जो विशेष बुद्धिमान् कहलाते हैं, उनके हृदयमें भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व रहनेके कारण जब वे ऋक्, साम और यजुः - इन तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका तथा उनके फलका वर्णन सुनते हैं, तब वे (वेदोंमें आस्तिकभाव होनेके कारण) यहाँके भोगोंकी इतनी परवाह न करके स्वर्गके भोगोंके लिये ललचा उठते हैं और स्वर्गप्राप्तिके लिये वेदोंमें कहे हुए यज्ञोंके अनुष्ठानमें लग जाते हैं। ऐसे मनुष्योंके लिये ही यहाँ 'त्रैविद्याः' पद आया है।

"सोमलता अथवा सोमवल्लीनामकी एक लता होती है। उसके विषयमें शास्त्रमें आता है कि जैसे शुक्लपक्षमें प्रतिदिन चन्द्रमाकी एक-एक कला बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमाको कलाएँ पूर्ण हो जाती हैं और कृष्णपक्षमें प्रतिदिन एक-एक कला क्षीण होते-होते अमावस्याको कलाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं, ऐसे ही उस सोमलताका भी शुक्लपक्षमें प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकलते-निकलते पूर्णिमातक पंद्रह पत्ते निकल आते हैं और कृष्णपक्षमें प्रतिदिन एक-एक पत्ता गिरते-गिरते अमावस्यातक पूरे पत्ते गिर जाते हैं। *


* पंचांगयुक्पंचदशच्छदाढ्या सर्पाकृतिः शोणितपर्वदेशा। 

सा सोमवल्ली रसबन्धकर्म करोति एकादिवसोपनीता ।। 

करोति सोमवृक्षोऽपि रसबन्धवधादिकम् । 

पूर्णिमादिवसानीतस्तयोर्वल्ली गुणाधिका ॥

कृष्णे पक्षे प्रगलति दलं प्रत्यहं चैकमेकं शुक्लेऽप्येकं प्रभवति पुन-र्लम्बमाना लताः स्युः ।

तस्याः कन्दः कलयतितरां पूर्णिमायां गृहीतो बद्ध्वा सूतं कनकसहितं देहलोहं विधत्ते ॥ इयं सोमकला नाम वल्ली परमदुर्लभा । अनया बद्धसूतेन्द्रो लक्षवेधी प्रजायते ॥


(रसेन्द्रचूड़ामणि ६ । ६-९)

उस सोमलताके रसको सोमरस कहते हैं। यज्ञ करनेवाले उस सोमरसको वैदिक मन्त्रोंके द्वारा अभिमन्त्रित करके पीते हैं, इसलिये उनको 'सोमपाः' कहा गया है।"

"वेदोंमें वर्णित यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले और वेदमन्त्रोंसे अभिमन्त्रित सोमरसको पीनेवाले मनुष्योंके स्वर्गके प्रतिबन्धक पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये उनको 'पूतपापाः' कहा गया है।


भगवान् ने पूर्वश्लोकमें कहा है कि सत्-असत् सब कुछ मैं ही हूँ, तो इन्द्र भी भगवत्स्वरूप ही हुए। अतः यहाँ 'माम्' पदसे इन्द्रको ही लेना चाहिये; क्योंकि सकाम यज्ञका अनुष्ठान करनेवाले मनुष्य स्वर्गप्राप्तिकी इच्छासे स्वर्गके अधिपति इन्द्रका ही पूजन करते हैं और इन्द्रसे ही स्वर्ग-प्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं।


स्वर्गप्राप्तिकी इच्छासे स्वर्गके अधिपति इन्द्रकी स्तुति करना और उस इन्द्रसे स्वर्गलोककी याचना करना- इन दोनोंका नाम 'प्रार्थना' है। वैदिक और पौराणिक विधि-विधानसे किये गये सकाम यज्ञोंके द्वारा इन्द्रका पूजन करने और प्रार्थना करनेके फलस्वरूप वे लोग स्वर्गमें जाकर देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं। वे दिव्य भोग मनुष्यलोकके भोगोंकी अपेक्षा बहुत विलक्षण हैं। वहाँ वे दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध-इन पाँचों विषयोंका भोग (अनुभव) करते हैं। इनके सिवाय दिव्य नन्दनवन आदिमें घूमना, सुख-आराम लेना, आदर-सत्कार पाना, महिमा पाना आदि भोगोंको भी भोगते हैं।"

"परिशिष्ट भाव - यहाँ ऐसे मनुष्योंका वर्णन हुआ है, जिनके भीतर संसारकी सत्ता और महत्ता बैठी हुई है और जो भगवान् की अविधिपूर्वक उपासना करनेवाले हैं (गीता-नवें अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)। ऐसी मनुष्योंकी उपासनाका फल नाशवान् ही होता है (गीता-सातवें अध्यायका तेईसवाँ श्लोक) ।


समग्ररूपके अन्तर्गत होनेसे सब भगवान् ही हैं, इसलिये यहाँ इन्द्रके लिये भी 'माम्' पद आया है। मनुष्यलोककी अपेक्षा पवित्र होनेसे इन्द्रलोकके लिये 'पुण्यम्' पद आया है।"


🔹 Precap (कल के श्लोक की झलक – 30 सेकंड)

"आज हमने जाना कि केवल पुण्य और यज्ञ करने से हमें कुछ समय के लिए स्वर्ग तो मिल सकता है, लेकिन यह स्थायी नहीं है।

कल के श्लोक में हम देखेंगे कि भगवान कृष्ण हमें स्थायी मुक्ति का मार्ग कैसे बताते हैं। तो जुड़े रहिए और कल सुबह 10:30 बजे फिर मिलते हैं!"


🔹 Outro (अंतिम संदेश – 1 मिनट)

"🙏 दोस्तों, गीता का ज्ञान सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं है, बल्कि इसे जीवन में अपनाने के लिए है।

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👉 अब आपकी बारी!
1️⃣ क्या आपने कभी सोचा है कि यज्ञों का असली अर्थ क्या है?
2️⃣ आपके अनुसार असली मोक्ष क्या है – स्वर्ग या भगवान की भक्ति?

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🚀 मिलते हैं अगले वीडियो में – ‘हर घर गीता, हर मन गीता’ के संकल्प के साथ! जय श्री कृष्ण! 🙏"


क्या यज्ञ और पुण्य कर्मों से स्वर्ग की प्राप्ति होती है?

"Today's Video  - https://youtu.be/9EkFBUqo6Yg


Premiere @ 10.30 AM 


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📜 गीता ज्ञान का अनमोल उपहार

उत्तर:हाँ, श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 9 श्लोक 20 में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वेदों में पारंगत और यज्ञ करने वाले लोग पुण्य अर्जित कर स्वर्ग की प्राप्ति करते हैं। वहाँ वे दिव्य सुखों का भोग करते हैं, लेकिन यह सुख स्थायी नहीं होता। जब पुण्य समाप्त हो जाते हैं, तो उन्हें पुनः धरती पर जन्म लेना पड़ता है।


👉 असली मोक्ष क्या है?

भगवान कृष्ण कहते हैं कि सच्चा मोक्ष केवल भक्ति और आत्मसाक्षात्कार से ही संभव है, न कि केवल पुण्य कर्मों से। इसलिए हमें केवल स्वर्ग पाने की बजाय, भगवान के चरणों में स्थायी शरण लेने का प्रयास करना चाहिए।


📢 क्या आप मानते हैं कि भक्ति ही मोक्ष का सबसे बड़ा मार्ग है? अपने विचार साझा करें! 


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✅ कहते हैं कि अगर आप किसी समस्या से गुजर रहे हैं, तो श्रीमद्भगवद्गीता का चमत्कारिक प्रभाव यही है कि आप प्रभुजी का नाम लेकर कोई भी पृष्ठ खोलें, और उसके दाहिने पृष्ठ पर जो पहली पंक्ति होगी, वही आपकी समस्या का समाधान होगी।

✅ भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश आज भी प्रासंगिक हैं और जीवन को संतुलित करने में मदद करते हैं।

✅ गीता हमें सिखाती है कि कैसे परिस्थितियों को स्वीकार करें और जीवन में आगे बढ़ें।


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