श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 8, श्लोक 4 का अर्थ और महत्व

 

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 8, श्लोक 4 का अर्थ और महत्व

🔹 श्लोक 4:
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् |
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ||

🔹 अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि "अधिभूत" (भौतिक जगत) नश्वर पदार्थों का समूह है। "पुरुष" अर्थात हिरण्यमय पुरुष (हिरण्यगर्भ) "अधिदैवत" (देवताओं का स्वामी) है। वहीं, "अधियज्ञ" स्वयं श्रीकृष्ण हैं, जो देहधारी जीवों के शरीर में स्थित हैं।

📝 मुख्य बिंदु:

अधिभूत – नष्ट होने वाले सभी भौतिक पदार्थ।
पुरुष (अधिदैवत) – देवताओं के अधिपति हिरण्यगर्भ।
अधियज्ञ – स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, जो शरीर में स्थित हैं।

👉 इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण यह स्पष्ट कर रहे हैं कि समस्त भौतिक और आध्यात्मिक सत्ता उन्हीं से उत्पन्न होती है और अंततः उन्हीं में विलीन होती है।


भगवद गीता के अनुसार अधियज्ञ क्या है और इसका क्या महत्व है?

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📜 गीता ज्ञान का अनमोल उपहार


उत्तर:  श्रीमद्भगवद गीता के अध्याय 8, श्लोक 4 में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि अधियज्ञ वह परम तत्व है जो सभी यज्ञों और पूजा का मूल आधार है।


🔹 अधिभूत – यह क्षणिक भौतिक संसार है, जो बदलता रहता है।

🔹 अधिदैव – ब्रह्मांड को संचालित करने वाली दिव्य शक्ति।

🔹 अधियज्ञ – स्वयं परमात्मा, जो हर यज्ञ और तपस्या में उपस्थित हैं।


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