ईश्वर अर्जुन संवाद – श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7, श्लोक 24
क्या भगवान सभी की भक्ति स्वीकार करते हैं?
श्लोक:
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः |
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ||
अनुवाद:
जो अल्प बुद्धि वाले हैं, वे मुझे अव्यक्त (निराकार) से व्यक्त (साकार) रूप में आया हुआ मानते हैं। वे मेरे परम, अविनाशी और सर्वोत्तम स्वरूप को नहीं जानते।
इस श्लोक का अर्थ और महत्व
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि जो बुद्धिहीन या अल्प-ज्ञानी लोग हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि परमात्मा सदा अव्यक्त और अपरिवर्तनीय हैं। वे यह मानते हैं कि ईश्वर केवल एक सीमित रूप में अवतरित होते हैं और इसीलिए वे उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाते।
1. अव्यक्त और व्यक्त का भेद:
ईश्वर अनादि, अनंत और निराकार हैं, लेकिन भक्तों की भक्ति स्वीकार करने के लिए वे अवतार भी लेते हैं। लोग उन्हें केवल उनके साकार रूप में ही मानते हैं, जबकि वे निराकार ब्रह्म भी हैं।
2. ईश्वर का अनुत्तम स्वरूप:
भगवान कृष्ण यहाँ बताते हैं कि उनका स्वरूप "अनुत्तम" अर्थात सर्वोत्तम है, लेकिन जो उनकी वास्तविक स्थिति को नहीं समझते, वे उनके पूर्ण स्वरूप को जान नहीं पाते।
3. भक्ति का महत्व:
ईश्वर सभी की भक्ति स्वीकार करते हैं, लेकिन जो लोग उन्हें केवल एक रूप में मानते हैं और उनकी व्यापकता को नहीं समझते, वे अधूरी भक्ति करते हैं। सच्ची भक्ति वही होती है, जिसमें भक्त ईश्वर के सम्पूर्ण स्वरूप को स्वीकार करता है।
क्या यह शिक्षा आज भी प्रासंगिक है?
आज के समय में भी हम केवल बाहरी दिखावे में उलझ जाते हैं और ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को पहचानने में असमर्थ रहते हैं। लोग मूर्तिपूजा, कर्मकांड और परंपराओं में तो विश्वास रखते हैं, लेकिन ईश्वर की व्यापकता और उनके अव्यक्त रूप को नहीं समझते। इस श्लोक की शिक्षा हमें यह सिखाती है कि हमें ईश्वर को केवल एक सीमित रूप में नहीं बल्कि उनके संपूर्ण दिव्य स्वरूप में स्वीकार करना चाहिए।
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