ईश्वर-अर्जुन संवाद | श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7, श्लोक 20 – कैसे मोह हमें सत्य से दूर करता है?
श्लोक:
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः |
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ||
परिचय
भगवान श्रीकृष्ण गीता के सातवें अध्याय में अर्जुन को ज्ञान, भक्ति और मोह के प्रभाव के बारे में बताते हैं। इस श्लोक में वे समझाते हैं कि जिनका ज्ञान इच्छाओं (कामनाओं) के कारण नष्ट हो जाता है, वे ईश्वर की बजाय अन्य देवताओं की पूजा में लग जाते हैं। उनके कर्म उनके स्वभाव (प्रकृति) के अनुसार नियंत्रित होते हैं और वे सत्य को पहचान नहीं पाते।
कैसे मोह हमें सत्य से दूर करता है?
मोह (आसक्ति) व्यक्ति को सच्चे ज्ञान और भक्ति के मार्ग से भटका सकता है। जब कोई व्यक्ति भौतिक सुखों और इच्छाओं में फंसा होता है, तो वह अपनी आत्मा की सच्ची शक्ति को पहचान नहीं पाता और ईश्वर से विमुख हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण का संदेश
- इच्छाएँ ज्ञान को नष्ट कर सकती हैं: जब व्यक्ति भौतिक इच्छाओं से प्रभावित होता है, तो वह अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूल जाता है।
- असली ईश्वर से दूर होना: सांसारिक इच्छाएँ व्यक्ति को सच्चे ईश्वर की भक्ति से दूर कर सकती हैं, और वह अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने लगता है, जिससे वह सत्य से भटक जाता है।
- प्राकृतिक स्वभाव का प्रभाव: हर व्यक्ति का स्वभाव (प्रकृति) उसके कर्मों को नियंत्रित करता है, और इच्छाओं में फंसकर वह उसी अनुसार कार्य करता है।
मोह से बचने के उपाय
- स्वयं को आत्मज्ञान में लगाना: अपने असली उद्देश्य को समझने के लिए आत्मचिंतन और अध्ययन करें।
- इच्छाओं को नियंत्रित करना: भौतिक इच्छाओं पर नियंत्रण रखने से व्यक्ति सत्य के करीब आ सकता है।
- संतों और ज्ञानी व्यक्तियों की संगति: सच्चे ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सद्गुरुओं और आध्यात्मिक मार्गदर्शकों का साथ लें।
निष्कर्ष
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह समझा रहे हैं कि मोह और इच्छाएँ व्यक्ति को सच्चे ज्ञान से दूर ले जाती हैं। जब हम अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करते हैं और सच्चे ईश्वर की शरण में आते हैं, तभी हमें वास्तविक शांति और ज्ञान की प्राप्ति होती है।
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