गीता ज्ञान: भगवान कृष्ण का अद्भुत संदेश | अध्याय 7 श्लोक 9 | जानें आध्यात्मिक रहस्य

 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 9 - प्रकृति के अनंत स्वरूप

#BhagavadGita


"नमस्कार, आपका स्वागत है इस विशेष गीता ज्ञान सत्र में।

आज हम चर्चा करेंगे भगवद्गीता के अध्याय 7 के श्लोक 9 की, जिसमें भगवान कृष्ण हमें ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों का बोध कराते हैं।

तो चलिए, इस अद्भुत यात्रा की शुरुआत करते हैं।"


"पिछले वीडियो में हमने चर्चा की थी अध्याय 7 के श्लोक 8 पर, जिसमें भगवान कृष्ण ने बताया कि वे किस प्रकार इस सृष्टि में व्याप्त हैं।


आज के श्लोक में भगवान कृष्ण प्रकृति के अनंत स्वरूप को बताते हैं। वे कहते हैं कि वे ही हर वस्तु के रस, शक्ति और प्रकृति के मूल स्रोत हैं।"

"श्री हरि 


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

"श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 

श्लोक 9"



"गन्धादिरूपसे पृथ्वी आदिमें अपनी व्यापकताका कथन ।


(श्लोक-९)


पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ । जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥


उच्चारण की विधि - पुण्यः, गन्धः, पृथिव्याम्, च, तेजः, च, अस्मि, विभावसौ, जीवनम्, सर्वभूतेषु, तपः, च, अस्मि, तपस्विषु ॥ ९॥


शब्दार्थ - पृथिव्याम् अर्थात् पृथ्वीमें, पुण्यः अर्थात् पवित्र, गन्धः अर्थात् गन्ध*, च अर्थात् और, विभावसौ अर्थात् अग्निमें, तेजः अर्थात् तेज, अस्मि अर्थात् हूँ, च अर्थात् तथा, सर्वभूतेषु अर्थात् सम्पूर्ण भूतोंमें (उनका), जीवनम् अर्थात् जीवन (हूँ), च अर्थात् और, तपस्विषु अर्थात् तपस्वियोंमें, तपः अर्थात् तप, अस्मि अर्थात् हूँ।


अर्थ - मैं पृथ्वीमें पवित्र गन्ध और अग्निमें तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतोंमें उनका जीवन हूँ और तपस्वियोंमें तप हूँ ॥ ९॥"

"व्याख्या- 'पुण्यो गन्धः पृथिव्याम्' - पृथ्वी गन्ध-तन्मात्रासे उत्पन्न होती है, गन्ध-तन्मात्रारूपसे रहती है और गन्ध-तन्मात्रामें ही लीन होती है। तात्पर्य है कि गन्धके बिना पृथ्वी कुछ नहीं है। भगवान् कहते हैं पृथ्वीमें वह पवित्र गन्ध मैं हूँ।


यहाँ गन्धके साथ 'पुण्यः' विशेषण देनेका तात्पर्य है कि गन्धमात्र पृथ्वीमें रहती है। उसमें पुण्य अर्थात् पवित्र गन्ध तो पृथ्वीमें स्वाभाविक रहती है, पर दुर्गन्ध किसी विकृतिसे प्रकट होती है।


'तेजश्चास्मि विभावसौ' - तेज रूप-तन्मात्रासे प्रकट होता है, उसीमें रहता है और अन्तमें उसीमें लीन हो जाता है। अग्निमें तेज ही तत्त्व है। तेजके बिना अग्नि निस्तत्त्व है, कुछ नहीं है। वह तेज मैं ही हूँ।


'जीवनं सर्वभूतेषु' - सम्पूर्ण प्राणियोंमें एक जीवनीशक्ति है, प्राणशक्ति है, जिससे सब जी रहे हैं। उस प्राणशक्तिसे वे प्राणी कहलाते हैं। प्राणशक्तिके बिना उनमें प्राणिपना कुछ नहीं है। प्राणशक्तिके कारण गाढ़ नींदमें सोता हुआ आदमी भी मुर्दे-से विलक्षण दीखता है। वह प्राणशक्ति मैं ही हूँ।"

"तपश्चास्मि तपस्विषु' - द्वन्द्वसहिष्णुताको तप कहते हैं। परन्तु वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये कितने ही कष्ट आयें, उनमें निर्विकार रहना ही असली तप है। यही तपस्वियोंमें तप है, इसीसे वे तपस्वी कहलाते हैं और इसी तपको भगवान् अपना स्वरूप बताते हैं। अगर तपस्वियोंमेंसे ऐसा तप निकाल दिया जाय तो वे तपस्वी नहीं रहेंगे।


परिशिष्ट भाव - सृष्टिकी रचनामें भगवान् ही कर्ता हैं, भगवान् ही कारण हैं और भगवान् ही कार्य हैं। अतः गन्ध और पृथ्वी, तेज और अग्नि, जीवनीशक्ति और प्राणी, तपस्या और तपस्वी- ये सब के सब (कारण तथा कार्य) एक भगवान् ही हैं। कारण कि परा और अपरा -दोनों ही भगवान् की शक्ति होनेसे भगवान् से अभिन्न हैं। अतः परा-अपराके संयोगसे पैदा होनेवाली सम्पूर्ण सृष्टि भगवत्स्वरूप ही है।


'पुण्यो गन्धः ' - गन्ध-तन्मात्रा कारण है और पृथ्वी उसका कार्य है। गन्धको पवित्र कहनेका तात्पर्य है कि कारण (तन्मात्रा) सदा पवित्र ही होता है। अपवित्रता कार्यमें विकृति होनेसे ही आती है। अतः जैसे गन्ध-तन्मात्रा पवित्र है, ऐसे ही शब्द, स्पर्श, रूप और रस-तन्मात्रा भी पवित्र समझनी चाहिये।"

"कल के श्लोक में, हम जानेंगे कि भगवान कृष्ण कैसे जीवन की रचना के मूल आधार को प्रकट करते हैं।


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जय श्रीकृष्ण! 🙏"


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