ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 8 - प्रकृति व दिव्यता के अद्भुत रहस्य
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 8 - प्रकृति व दिव्यता के अद्भुत रहस्य
#BhagavadGita
"नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका हमारे खास श्रृंखला 'भगवद गीता से सीखें' में।
आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 7, श्लोक 8 की, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति और दिव्यता के अद्भुत रहस्यों का वर्णन किया है।"
"पिछले श्लोक में हमने देखा कि भगवान ने किस प्रकार अपने दिव्य स्वरूप को हर वस्तु में व्याप्त बताया। आज हम इस ज्ञान को और गहराई से समझेंगे।
आज के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे हर वस्तु में, हर तत्व में उपस्थित हैं। वे प्रकृति के प्रत्येक कण में अपनी दिव्यता का परिचय देते हैं। आइए, इसे विस्तार से समझते हैं।"
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7
श्लोक 8"
"रसादिरूपसे जलादिमें अपनी व्यापकताका कथन । (श्लोक-८)
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥
उच्चारण की विधि - रसः, अहम्, अप्सु, कौन्तेय, प्रभा, अस्मि, शशिसूर्ययोः, प्रणवः, सर्ववेदेषु, शब्दः, खे, पौरुषम्, नृषु ॥ ८ ॥
शब्दार्थ - कौन्तेय अर्थात् हे अर्जुन !, अहम् अर्थात् मैं, अप्सु अर्थात् जलमें, रसः अर्थात् रस (हूँ), शशिसूर्ययोः अर्थात् चन्द्रमा और सूर्यमें, प्रभा अर्थात् प्रकाश, अस्मि अर्थात् हूँ, सर्ववेदेषु अर्थात् सम्पूर्ण वेदोंमें, प्रणवः अर्थात् ओंकार (हूँ), खे अर्थात् आकाशमें, शब्दः अर्थात् शब्द (और), नृषु अर्थात् पुरुषोंमें, पौरुषम् अर्थात् पुरुषत्व (हूँ)।
अर्थ - हे अर्जुन ! मैं जलमें रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदोंमें ओंकार हूँ, आकाशमें शब्द और पुरुषोंमें पुरुषत्व हूँ ॥ ८॥"
"व्याख्या- [जैसे साधारण दृष्टिसे लोगोंने रुपयोंको ही सर्वश्रेष्ठ मान रखा है तो रुपये पैदा करने और उनका संग्रह करनेमें लोभी आदमीकी स्वाभाविक रुचि हो जाती है। ऐसे ही देखने, सुनने, मानने और समझनेमें जो कुछ जगत् आता है, उसका कारण भगवान् हैं (सातवें अध्यायका छठा श्लोक); भगवान् के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं - ऐसा माननेसे भगवान् में स्वाभाविक रुचि हो जाती है। फिर स्वाभाविक ही उनका भजन होता है। यही बात दसवें अध्यायके आठवें श्लोकमें कही है कि 'मैं सम्पूर्ण संसारका कारण हूँ, मेरेसे ही संसारकी उत्पत्ति होती है' - ऐसा समझकर बुद्धिमान् मनुष्य मेरा भजन करते हैं। ऐसे ही अठारहवें अध्यायके छियालीसवें श्लोकमें कहा है कि 'जिस परमात्मासे सम्पूर्ण जगत् की प्रवृत्ति होती है और जिससे सारा संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मोंके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त कर लेता है।' इसी सिद्धान्तको बतानेके लिये यह प्रकरण आया है ।]
'रसोऽहमप्सु कौन्तेय' - हे कुन्तीनन्दन ! जलोंमें मैं 'रस' हूँ। जल रस-तन्मात्रासे पैदा होता है; रस-तन्मात्रामें रहता है और रस-तन्मात्रामें ही लीन होता है।"
"१-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- इन स्थूल पंचमहाभूतोंके कारणोंका नाम भी क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द है, जो 'पंचतन्मात्राएँ' कहलाती हैं। पंचतन्मात्राएँ इन्द्रियों और अन्तःकरणकी विषय नहीं हैं तथा केवल शास्त्रोंसे सुनकर मानी जाती हैं। पंचमहाभूतोंके कार्योंका नाम भी गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द है, जो इन्द्रियों और अन्तःकरणके विषय हैं।
जलमेंसे अगर 'रस' निकाल दिया जाय तो जलतत्त्व कुछ नहीं रहेगा। अतः रस ही जलरूपसे है। वह रस मैं हूँ।
'प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ' - चन्द्रमा और सूर्यमें प्रकाश करनेकी जो एक विलक्षण शक्ति 'प्रभा' है, वह मेरा स्वरूप है। प्रभा रूप-तन्मात्रासे उत्पन्न होती है, रूप-तन्मात्रामें रहती है और अन्तमें रूप-तन्मात्रामें ही लीन हो जाती है।
२-रूप-तन्मात्रामें दो शक्तियाँ होती हैं- एक 'प्रकाशिका' अर्थात् प्रकाश करनेवाली और एक 'दाहिका' अर्थात् जलानेवाली। प्रकाशिका शक्तिको 'प्रभा' कहते हैं और दाहिका शक्तिको 'तेज' कहते हैं। 'प्रकाशिका शक्ति' दाहिका शक्तिके बिना भी रह सकती है (जैसे-मणि, चन्द्र आदिमें), पर 'दाहिका शक्ति' प्रकाशिका शक्तिके बिना नहीं रह सकती। "
"यहाँ 'प्रभास्मि शशिसूर्ययोः' पदोंमें चन्द्रमा और सूर्यकी 'प्रकाशिका शक्ति' की प्रधानताको लेकर 'प्रभा' शब्दका प्रयोग हुआ है और आगे इसी अध्यायके नवें श्लोकमें 'तेजश्चास्मि विभावसौ' पदोंमें अग्निकी 'दाहिका शक्ति' की प्रधानताको लेकर 'तेज' शब्दका प्रयोग हुआ है। सूर्य और अग्निमें प्रकाशिका और दाहिका-दोनों शक्तियाँ हैं। चन्द्रमामें प्रकाशिका शक्ति तो है, पर उसमें दाहिका शक्ति तिरस्कृत होकर 'सौम्य शक्ति' प्रकट हो गयी है, जो कि शीतलता देनेवाली है।
अगर चन्द्रमा और सूर्यमेंसे प्रभा निकाल दी जाय तो चन्द्रमा और सूर्य निस्तत्त्व हो जायँगे। तात्पर्य है कि केवल प्रभा ही चन्द्र और सूर्यरूपसे प्रकट हो रही है। भगवान् कहते हैं कि वह प्रभा भी मैं ही हूँ।
'प्रणवः सर्ववेदेषु' - सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार) मेरा स्वरूप है। कारण कि सबसे पहले प्रणव प्रकट हुआ। प्रणवसे त्रिपदा गायत्री और त्रिपदा गायत्रीसे वेदत्रयी प्रकट हुई है। इसलिये वेदोंमें सार 'प्रणव' ही रहा। अगर वेदोंमेंसे प्रणव निकाल दिया जाय तो वेद वेदरूपसे नहीं रहेंगे। प्रणव ही वेद और गायत्रीरूपसे प्रकट हो रहा है। वह प्रणव मैं ही हूँ।"
"शब्दः खे' - सब जगह यह जो पोलाहट दीखती है, यह आकाश है। आकाश शब्द-तन्मात्रासे पैदा होता है, शब्द-तन्मात्रामें ही रहता है और अन्तमें शब्द-तन्मात्रामें ही लीन हो जाता है। अतः शब्द-तन्मात्रा ही आकाश-रूपसे प्रकट हो रही है। शब्द तन्मात्राके बिना आकाश कुछ नहीं है। वह शब्द मैं ही हूँ।
'पौरुषं नृषु' - मनुष्योंमें सार चीज जो पुरुषार्थ है, वह मेरा स्वरूप है। वास्तवमें नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव करना ही मनुष्योंमें असली पुरुषार्थ है। परन्तु मनुष्योंने अप्राप्तको प्राप्त करनेमें ही अपना पुरुषार्थ मान रखा है; जैसे-निर्धन आदमी धनकी प्राप्तिमें पुरुषार्थ मानता है, अपढ़ आदमी पढ़ लेनेमें पुरुषार्थ मानता है, अप्रसिद्ध आदमी अपना नाम विख्यात कर लेनेमें अपना पुरुषार्थ मानता है, इत्यादि। निष्कर्ष यह निकला कि जो अभी नहीं है, उसकी प्राप्तिमें ही मनुष्य अपना पुरुषार्थ मानता है। पर यह पुरुषार्थ वास्तवमें पुरुषार्थ नहीं है। कारण कि जो पहले नहीं थे, प्राप्तिके समय भी जिनका निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है और अन्तमें जो 'नहीं' में भरती हो जायँगे, ऐसे पदार्थोंको प्राप्त करना पुरुषार्थ नहीं है। "
"परमात्मा पहले भी मौजूद थे, अब भी मौजूद हैं और आगे भी सदा मौजूद रहेंगे; क्योंकि उनका कभी अभाव नहीं होता। इसलिये परमात्माको उत्साहपूर्वक प्राप्त करनेका जो प्रयत्न है, वही वास्तवमें पुरुषार्थ है। उसकी प्राप्ति करनेमें ही मनुष्योंकी मनुष्यता है। उसके बिना मनुष्य कुछ नहीं है अर्थात् निरर्थक है।
परिशिष्ट भाव-छठे-सातवें श्लोकोंमें भगवान् ने अपनेको सम्पूर्ण जगत् का कारण बताया है। इसलिये अब भगवान् आठवें श्लोकसे बारहवें श्लोकतक 'कारण' रूपसे अपनी विभूतियोंका वर्णन करते हैं। यद्यपि कारणकी अपेक्षा कार्यमें विशेष गुण होता है, पर स्वतन्त्र सत्ता कारणकी ही होती है अर्थात् कारणके बिना कार्यकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। जैसे, मिट्टी कारण है और घड़ा कार्य है। घड़ेमें जल भरा जा सकता है, पर यह विशेषता मिट्टीमें नहीं है। परन्तु मिट्टीके बिना घड़ेकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। तात्पर्य है कि कारण ही कार्यरूपमें परिणत होता है। घड़ेकी रचनामें कर्ता, कारण और कार्य-तीनों एक नहीं होते अर्थात् कारण (मिट्टी) और कार्य (घड़ा) की तो एक सत्ता होती है, पर कर्ता (कुम्हार) की अलग (स्वतन्त्र) सत्ता होती है। "
"परन्तु सृष्टिकी रचनामें कर्ता, कारण और कार्य-तीनों एक भगवान् ही होते हैं। अतः रस भी भगवान् हैं और जल भी भगवान् हैं। प्रभा भी भगवान् हैं और चन्द्र-सूर्य भी भगवान् हैं। ओंकार भी भगवान् हैं और वेद भी भगवान् हैं। शब्द भी भगवान् हैं और आकाश भी भगवान् हैं। पुरुषार्थ भी भगवान् हैं और मनुष्य भी भगवान् हैं।
[मिट्टी तो घड़ेके रूपमें परिणत होती है, पर परमात्मा संसारके रूपमें परिणत नहीं होते। कारण कि परिणत होनेवाली वस्तु विकारी होती है, जबकि परमात्मा निर्विकार हैं। अतः जैसे अँधेरेमें रस्सी ही साँपके रूपमें दीखती है अथवा साँप ही कुण्डलीरूपमें दीखता है, ऐसे ही परमात्मा संसाररूपमें दीखते हैं। तात्पर्य है कि परमात्मामें कार्य-कारणका भेद नहीं है; क्योंकि उनके सिवाय अन्य कोई वस्तु है ही नहीं। कार्य-कारणका भेद मनुष्योंकी दृष्टिमें ही है। इसलिये मनुष्योंको समझानेके लिये अन्य वस्तुकी कुछ-न-कुछ सत्ता मानकर ही परमात्माका वर्णन, विवेचन, विचार, चिन्तन, प्रश्नोत्तर आदि किया जाता है- 'नोद्यं वा परिहारो वा क्रियतां द्वैतभाषया ।'
"कल के श्लोक में हम चर्चा करेंगे कि भगवान कैसे जीवन की समग्रता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसे जानने के लिए हमारे साथ जुड़े रहें।
आज के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे हर वस्तु में, हर तत्व में उपस्थित हैं। वे प्रकृति के प्रत्येक कण में अपनी दिव्यता का परिचय देते हैं। आइए, इसे विस्तार से समझते हैं।
जय श्रीकृष्ण! 🙏"
दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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