ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 7 - श्रीकृष्ण का अद्भुत रहस्योद्घाटन


 ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 7 - श्रीकृष्ण का अद्भुत रहस्योद्घाटन

#BhagavadGita


नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका हमारे चैनल पर जहाँ हम भगवद गीता के श्लोकों को सरल और व्यावहारिक रूप से समझते हैं। 

हम चर्चा करेंगे भगवद गीता के अध्याय 7, श्लोक 7 पर, जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को अद्वितीय रहस्यों का उद्घाटन कराते हैं। तो इस वीडियो को अंत तक जरूर देखें।

"पिछले वीडियो में हमने अध्याय 7 के श्लोक 6 पर चर्चा की थी, जिसमें श्रीकृष्ण ने सृष्टि के मूल तत्वों का वर्णन किया।


आज के श्लोक में, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि पूरे ब्रह्मांड का आधार वे स्वयं हैं। कोई भी चीज़ उनसे परे नहीं है। इसका गहरा अर्थ क्या है? चलिए इसे समझते हैं।"

"श्री हरि 


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

"श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 

7"



"(श्लोक-७)


मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥


उच्चारण की विधि - मत्तः, परतरम्, न, अन्यत्, किञ्चित्, अस्ति, धनञ्जय, मयि, सर्वम्, इदम्, प्रोतम्, सूत्रे, मणिगणाः, इव ॥ ७॥


शब्दार्थ - धनञ्जय अर्थात् हे धनंजय!, मत्तः अर्थात् मुझसे, अन्यत् अर्थात् भिन्न दूसरा, किञ्चित् अर्थात् कोई भी, परतरम् अर्थात् परम (कारण), न अर्थात् नहीं, अस्ति अर्थात् है, इदम् अर्थात् यह, सर्वम् अर्थात् सम्पूर्ण (जगत्), सूत्रे अर्थात् सूत्रमें (सूत्रके), मणिगणाः अर्थात् मणियोंके, इव अर्थात् सदृश, मयि अर्थात् मुझमें, प्रोतम् अर्थात् गुँथा हुआ है।


अर्थ - हे धनञ्जय ! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्रमें सूत्रके मनियोंके सदृश मुझमें गुँथा हुआ है ॥ ७ ॥"

"व्याख्या' मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनंजय' - हे अर्जुन ! मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है, मैं ही सब संसारका महाकारण हूँ। जैसे वायु आकाशसे ही उत्पन्न होती है, आकाशमें ही रहती है और आकाशमें ही लीन होती है अर्थात् आकाशके सिवाय वायुकी कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ऐसे ही संसार भगवान् से उत्पन्न होता है, भगवान् में स्थित रहता है और भगवान् में ही लीन हो जाता है अर्थात् भगवान् के सिवाय संसारकी कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।


यहाँ 'परतरम्' कहकर सबका मूल कारण बताया गया है। मूल कारणके आगे कोई कारण नहीं है अर्थात् मूल कारणका कोई उत्पादक नहीं है। भगवान् ही सबके मूल कारण हैं। यह संसार अर्थात् देश, काल, व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदि सभी परिवर्तनशील हैं। परन्तु जिसके होनेपनसे इन सबका होनापन दीखता है अर्थात् जिसकी सत्तासे ये सभी 'है' दीखते हैं, वह परमात्मा ही इन सबमें परिपूर्ण हैं।


भगवान् ने इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें कहा कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा, जिसको जाननेके बाद कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा - 'यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते' और यहाँ कहते हैं कि मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है- 'मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति'। दोनों ही जगह 'न अन्यत्' कहनेका तात्पर्य है कि जब मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं, तब मेरेको जाननेके बाद जानना कैसे बाकी रहेगा ? "

"अतः भगवान् ने यहाँ 'मयि सर्वमिदं प्रोतम्' और आगे 'वासुदेवः सर्वम्' (७। १९) तथा 'सदसच्चाहम्' (९। १९) कहा है।


जो कार्य होता है, वह कारणके सिवाय अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखता। वास्तवमें कारण ही कार्यरूपसे दीखता है। इस प्रकार जब कारणका ज्ञान हो जायगा, तब कार्य कारणमें लीन हो जायगा अर्थात् कार्यकी अलग सत्ता प्रतीत नहीं होगी और 'एक परमात्माके सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है'- ऐसा अनुभव स्वतः हो जायगा।


'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव'- यह सारा संसार सूतमें सूतकी ही मणियोंकी तरह मेरेमें पिरोया हुआ है अर्थात् मैं ही सारे संसारमें अनुस्यूत (व्याप्त) हूँ। जैसे सूतसे बनी मणियोंमें और सूतमें सूतके सिवाय अन्य कुछ नहीं है; ऐसे ही संसारमें मेरे सिवाय अन्य कोई तत्त्व नहीं है। तात्पर्य है कि जैसे सूतमें सूतकी मणियाँ पिरोयी गयी हों तो दीखनेमें मणियाँ और सूत अलग-अलग दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें सूत एक ही होता है। ऐसे ही संसारमें जितने प्राणी हैं, वे सभी नाम, रूप, आकृति आदिसे अलग-अलग दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें व्याप्त रहनेवाला चेतन-तत्त्व एक ही है। वह चेतन-तत्त्व मैं ही हूँ' क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत' (गीता १३। २) अर्थात् मणिरूप अपरा प्रकृति भी मेरा स्वरूप है और धागारूप परा प्रकृति भी मैं ही हूँ। दोनोंमें मैं ही परिपूर्ण हूँ, व्याप्त हूँ। "

"साधक जब संसारको संसारबुद्धिसे देखता है, तब उसको संसारमें परिपूर्णरूपसे व्याप्त परमात्मा नहीं दीखते। जब उसको परमात्मतत्त्वका वास्तविक बोध हो जाता है, तब व्याप्य-व्यापक भाव मिटकर एक परमात्मतत्त्व ही दीखता है। इस तत्त्वको बतानेके लिये ही भगवान् ने यहाँ कारणरूपसे अपनी व्यापकताका वर्णन किया है।


परिशिष्ट भाव - जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई हों तो उनमें सूतके सिवाय और कुछ नहीं है, ऐसे ही संसारमें भगवान् के सिवाय और कुछ नहीं है। तात्पर्य है कि मणिरूप अपरा प्रकृति और धागारूप परा प्रकृति-दोनोंमें भगवान् ही परिपूर्ण हैं। मणियाँ बननेमें अपरा प्रकृतिकी मुख्यता है और धागा बननेमें परा प्रकृतिकी मुख्यता है। 'मणिगणाः' पद बहुवचनमें देनेका तात्पर्य है कि अपरा प्रकृति स्थावर-जंगम, जलचर-थलचर-नभचर, चौदह भुवन, चौरासी लाख योनियाँ आदि अनन्त रूपोंमें और अनन्त समुदायोंमें विभक्त है।


अपरा और पराका भेद 'अपरा' प्रकृतिके कारण ही है; क्योंकि अपराको सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेके कारण ही जीव है (इसी अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)। अतः अपरा प्रकृति जगत् में भी है और जीवमें भी। परन्तु परमात्मामें न अपरा है, न परा है; न जगत् है, न जीव है। तात्पर्य है कि वास्तवमें न धागा है, न मणियाँ हैं, प्रत्युत एक सूत (रुई) ही है। इसी तरह न अपरा है, न परा है, प्रत्युत एक परमात्मा ही हैं। "

"इसी बातका भगवान् ने आगे बारहवें श्लोकतक वर्णन किया है। इस श्लोकमें आये 'मत्तः' पदसे आरम्भ करके बारहवें श्लोकके 'मत्त एव' पदोंतक भगवान् ने यही बात बतायी है कि मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है। यहाँ 'मत्तः' पद समग्र परमात्माका वाचक है, जो परा और अपरा दोनों प्रकृतियोंका मालिक है।


कारण ही कार्यमें परिणत होता है; जैसे, रुई ही धागा बनती है, बीज ही वृक्ष बनता है। अतः सबके परम कारण भगवान् होनेसे सब रूपोंमें भगवान् ही हैं- 'वासुदेवः सर्वम्।' इसलिये भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ताको देखना भूल है।


'मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति'- जो दोमें श्रेष्ठ हो, उसको 'परतर' कहते हैं। भगवान् अद्वितीय हैं, उनके सिवाय दूसरी कोई वस्तु ('पर') है ही नहीं, फिर वे 'परतर' कैसे हो सकते हैं? उनमें 'परतर' शब्द लागू ही नहीं होता। यहाँ भगवान् को अद्वितीय बतानेके लिये ही 'परतर' शब्द आया है। तात्पर्य है कि भगवान् से अन्य भी कुछ नहीं है और श्रेष्ठ भी कुछ नहीं है। उपनिषझें आया है-


पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥


(कठ० १।३।११)


'पुरुषसे पर कुछ भी नहीं है। वही सबकी परम अवधि और वही परम गति है।' 


अर्जुनने भी कहा है-


न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ।


(गीता ११।४३)


सम्बन्ध-जो कुछ कार्य दीखता है, उसके मूलमें परमात्मा ही हैं- यह ज्ञान करानेके लिये अब भगवान् आठवेंसे बारहवें श्लोकतकका प्रकरण आरम्भ करते हैं।"

"कल हम चर्चा करेंगे अध्याय 7 के श्लोक 8 पर, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण हर वस्तु में अपनी उपस्थिति को व्यक्त करेंगे।



अगर आपको आज का वीडियो पसंद आया हो, तो लाइक और शेयर जरूर करें। अपने विचार कमेंट में बताएं और चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें।

फिर मिलेंगे अगले वीडियो में। जय श्रीकृष्ण! 🙏"


दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

Comments

Popular posts from this blog

📖 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 8, श्लोक 22 "परम सत्य की प्राप्ति का मार्ग"

📖 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 8, श्लोक 27 "ज्ञान और मोक्ष के मार्ग को समझना"

ईश्वर-अर्जुन संवाद: अंतिम क्षण में क्या स्मरण करें? (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 8, श्लोक 6)