ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 6 - सृष्टि और ईश्वर के अद्भुत रहस्य
नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका हमारे चैनल पर जहाँ हम भगवद गीता के श्लोकों को सरल और व्यावहारिक रूप से समझते हैं।
"आज हम चर्चा करेंगे भगवद्गीता के अध्याय 7, श्लोक 6 पर।
भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में हमें यह सिखाया है कि सृष्टि और ईश्वर के बीच का गहरा संबंध कितना अद्भुत और रहस्यमयी है।
आइए, गीता के इस ज्ञान को समझें और अपनी ज़िंदगी में इसे अपनाएं।"
"पिछले वीडियो में हमने अध्याय 7 के श्लोक 5 पर चर्चा की थी, जहाँ श्रीकृष्ण ने जीव और निर्जीव प्रकृति के बारे में बताया।
आज के श्लोक में हम जानेंगे कि यह दोनों प्रकृतियाँ कैसे आपस में जुड़ी हुई हैं।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण हमें यह समझाते हैं कि यह सारा संसार उनके दोनों रूपों – भौतिक और आध्यात्मिक – के आधार पर टिका हुआ है।
वे हमें बताते हैं कि यह सब कुछ उनकी लीला का ही हिस्सा है।"
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक
6"
"उक्त दोनों प्रकृतियोंको सम्पूर्ण भूतोंका कारण और अपनेको महाकारण बतलाना । (श्लोक-६)
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
उच्चारण की विधि - एतद्योनीनि, भूतानि, सर्वाणि, इति, उपधारय, अहम्, कृत्स्नस्य, जगतः, प्रभवः, प्रलयः, तथा ॥ ६ ॥
शब्दार्थ - इति अर्थात् ऐसा, उपधारय अर्थात् समझ (कि), सर्वाणि अर्थात् सम्पूर्ण, भूतानि अर्थात् भूत, एतद्योनीनि अर्थात् इन दोनों प्रकृतियोंसे ही उत्पन्न होनेवाले हैं (और), अहम् अर्थात् मैं, कृत्स्नस्य अर्थात् सम्पूर्ण, जगतः अर्थात् जगत् का, प्रभवः अर्थात् प्रभव, तथा अर्थात् तथा, प्रलयः अर्थात् प्रलय हूँ (अर्थात् सम्पूर्ण जगत्का मूल कारण हूँ।)।
अर्थ - हे अर्जुन ! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियोंसे ही उत्पन्न होनेवाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत्का मूलकारण हूँ ॥ ६ ॥"
"व्याख्या- 'एतद्योनीनि भूतानि ' *- जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जंगम और वृक्ष, लता, घास आदि स्थावर प्राणी हैं, वे सब के सब मेरी अपरा और परा प्रकृतिके सम्बन्धसे ही उत्पन्न होते हैं।
* 'एतद्योनीनि भूतानि' पदोंका अर्थ है- 'एते अपरा-परे योनी कारणे येषां तानि' अर्थात् 'अपरा और परा-ये दो प्रकृतियाँ जिनकी कारण हैं, ऐसे सम्पूर्ण प्राणी'।
तेरहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भी भगवान् ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके सम्बन्धसे सम्पूर्ण स्थावर जंगम प्राणियोंकी उत्पत्ति बतायी है। यही बात सामान्य रीतिसे चौदहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भी बतायी है कि स्थावर, जंगम योनियोंमें उत्पन्न होनेवाले जितने शरीर हैं, वे सब प्रकृतिके हैं और उन शरीरोंमें जो बीज अर्थात् जीवात्मा है, वह मेरा अंश है। उसी बीज अर्थात् जीवात्माको भगवान् ने 'परा प्रकृति' (सातवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) और 'अपना अंश' (पन्द्रहवें अध्यायका सातवाँ श्लोक) कहा है।
'सर्वाणीत्युपधारय' - 'स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताललोक आदि सम्पूर्ण लोकोंके जितने भी स्थावर जंगम प्राणी हैं, वे सब के सब अपरा और परा प्रकृतिके संयोगसे ही उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य है कि परा प्रकृतिने अपराको अपना मान लिया है, उसका संग कर लिया है, इसीसे सब प्राणी पैदा होते हैं- इसको तुम धारण करो अर्थात् ठीक तरहसे समझ लो अथवा मान लो।
१-इसमें एक विचित्र बात है कि सम्बन्ध केवल क्षेत्रज्ञने माना है, क्षेत्रने नहीं। यदि यह अपना सम्बन्ध न माने तो इसका पुनर्जन्म हो ही नहीं सकता; क्योंकि पुनर्जन्मका कारण गुणोंका संग ही है- "
"कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।' (गीता १३। २१)
'अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा' - मात्र वस्तुओंको सत्ता-स्फूर्ति परमात्मासे ही मिलती है, इसलिये भगवान् कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव (उत्पन्न करनेवाला) और प्रलय (लीन करनेवाला) हूँ।
'प्रभवः' का तात्पर्य है कि मैं ही इस जगत् का निमित्तकारण हूँ; क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे संकल्पसे पैदा हुई है- 'सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति' (छान्दोग्य० ६। २।३)।
२-जीवोंके द्वारा किये हुए अनादिकालके कर्म जीवोंके प्रलयकालमें लीन होनेपर जब परिपक्व होते हैं अर्थात् फल देनेके लिये उन्मुख होते हैं, तब उससे (प्रलयका समय समाप्त होनेपर, सर्गके आदिमें) भगवान् का संकल्प होता है और उसी संकल्पसे शरीरोंकी उत्पत्ति होती है।
जैसे घड़ा बनानेमें कुम्हार और सोनेके आभूषण बनानेमें सुनार ही निमित्तकारण है, ऐसे ही संसारमात्रकी उत्पत्तिमें भगवान् ही निमित्तकारण हैं।
'प्रलयः' कहनेका तात्पर्य है कि इस जगत् का उपादान-कारण भी मैं ही हूँ; क्योंकि कार्यमात्र उपादान-कारणसे उत्पन्न होता है; उपादान-कारण-रूपसे ही रहता है और अन्तमें उपादान-कारणमें ही लीन हो जाता है।
जैसे घड़ा बनानेमें मिट्टी उपादान-कारण है, ऐसे ही सृष्टिकी रचना करनेमें भगवान् ही उपादान-कारण हैं। जैसे घड़ा मिट्टीसे ही पैदा होता है, मिट्टीरूप ही रहता है और अन्तमें टूट करके घिसते-घिसते मिट्टी ही बन जाता है; और जैसे सोनेके यावन्मात्र आभूषण सोनेसे ही उत्पन्न होते हैं, "
"सोनारूप ही रहते हैं और अन्तमें सोना ही रह जाते हैं, ऐसे ही यह संसार भगवान् से ही उत्पन्न होता है, भगवान् में ही रहता है और अन्तमें भगवान् में ही लीन हो जाता है। ऐसा जानना ही 'ज्ञान' है। सब कुछ भगवत्स्वरूप है, भगवान् के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं - ऐसा अनुभव हो जाना 'विज्ञान' है।
'कृत्स्नस्य जगतः' पदोंमें भगवान् ने अपनेको जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत् का प्रभव और प्रलय बताया है। इसमें जड (अपरा प्रकृति) का प्रभव और प्रलय बताना तो ठीक है, पर चेतन (परा प्रकृति अर्थात् जीवात्मा) का उत्पत्ति और विनाश कैसे हुआ? क्योंकि वह तो नित्य तत्त्व है- 'नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः' (गीता २। २४)। जो परिवर्तनशील है, उसको जगत् कहते हैं- 'गच्छतीति जगत्।' पर यहाँ जगत् शब्द जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण संसारका वाचक है। इसमें जड-अंश तो परिवर्तनशील है और चेतन-अंश सदा-सर्वथा परिवर्तनरहित तथा निर्विकार है। वह निर्विकार तत्त्व जब जडके साथ अपना सम्बन्ध मानकर तादात्म्य कर लेता है, तब वह जड (शरीर) के उत्पत्ति-विनाशको अपना उत्पत्ति-विनाश मान लेता है। इसीसे उसके जन्म-मरण कहे जाते हैं। इसीलिये भगवान् ने अपनेको सम्पूर्ण जगत् अर्थात् अपरा और परा प्रकृतिका प्रभव तथा प्रलय बताया है।
अगर यहाँ 'जगत्' शब्दसे केवल नाशवान् परिवर्तनशील और विकारी संसारको ही लिया जाय, चेतनको नहीं लिया जाय तो बड़ी बाधा लगेगी। भगवान् ने 'कृत्स्नस्य जगतः' पदोंसे अपनेको सम्पूर्ण जगत् का कारण बताया है।"
"३-अपरा प्रकृति और भगवान् में तो कार्य-कारणका सम्बन्ध है; क्योंकि अपरा प्रकृति भगवान् का कार्य है। परन्तु परा प्रकृति और भगवान् में कार्य-कारणका सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि परा प्रकृति (जीव) भगवान् का अंश है, कार्य नहीं। इसलिये अंश-अंशीकी दृष्टिसे ही भगवान् जीवके कारण कहे गये हैं, कार्य-कारणकी दृष्टिसे नहीं।
अतः सम्पूर्ण जगत् के अन्तर्गत स्थावर जंगम, जड-चेतन सभी लिये जायँगे। अगर केवल जडको लिया जायगा तो चेतन-भाग छूट जायगा, जिससे 'मैं सम्पूर्ण जगत् का कारण हूँ' यह कहना नहीं बन सकेगा और आगे भी बड़ी बाधा लगेगी। कारण कि आगे इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भगवान् ने कहा है कि तीनों गुणोंसे मोहित जगत् मेरेको नहीं जानता, तो यहाँ जानना अथवा न जानना चेतनका ही हो सकता है, जडका जानना अथवा न जानना होता ही नहीं। इसलिये 'जगत् ' शब्दसे केवल जडको ही नहीं, चेतनको भी लेना पड़ेगा।
ऐसे ही सोलहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें भी आसुरी सम्पदावालोंकी मान्यताके अनुसार 'जगत् ' शब्दसे जड और चेतन-दोनों ही लेने पड़ेंगे; क्योंकि आसुरी सम्पदावाले व्यक्ति सम्पूर्ण शरीरधारी जीवोंको असत्य मानते हैं, केवल जडको नहीं। इसलिये अगर वहाँ 'जगत्' शब्दसे केवल जड संसार ही लिया जाय तो जगत् को (जड संसारको) असत्य, मिथ्या और अप्रतिष्ठित कहनेवाले अद्वैत-सिद्धान्ती भी आसुरी सम्पदावालोंमें आ जायँगे, जो कि सर्वथा अनुचित है। ऐसे ही आठवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें आये 'शुक्लकृष्णे गती होते जगतः' पदोंमें 'जगत्' शब्द केवल जडका ही वाचक मानें तो जडकी शुक्ल और कृष्ण गतिका क्या तात्पर्य होगा ? "
"गति तो चेतनकी ही होती है। जडसे तादात्म्य करनेके कारण ही चेतनको 'जगत्' नामसे कहा गया है।
इन सब बातोंपर विचार करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जडके साथ एकात्मता करनेसे जीव 'जगत्' कहा जाता है। परन्तु जब यह जडसे विमुख होकर चिन्मय-तत्त्वके साथ अपनी एकताका अनुभव कर लेता है, तब यह 'योगी' कहा जाता है, जिसका वर्णन गीतामें जगह-जगह आया है।
परिशिष्ट भाव - जो न खुदको जान सके और न दूसरेको जान सके, वह 'अपरा प्रकृति' है। जो खुदको भी जान सके और दूसरेको भी जान सके, वह 'परा प्रकृति' है। इन अपरा और परा- दोनोंके माने हुए संयोगसे ही सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणी पैदा होते हैं (गीता-तेरहवें अध्यायका छब्बीसवाँ श्लोक) ।
मूल दोष एक ही है, जो स्थानभेदसे अनेक रूपसे दीखता है, वह है- अपराके साथ सम्बन्ध। इस एक दोषसे ही सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं। यह एक दोष आ जाय तो सम्पूर्ण दोष आ जायँगे और यह एक दोष दूर हो जाय तो सम्पूर्ण दोष दूर हो जायँगे। इसी तरह मूल गुण भी एक ही है, जिससे सम्पूर्ण गुण प्रकट होते हैं, वह है - भगवान् के साथ सम्बन्ध।
अपराको चाहे नित्य मानें, चाहे अनित्य मानें, पर उसके साथ हमारा सम्बन्ध अनित्य है- यह सर्वसम्मत बात है। यह सम्बन्ध ही जन्म-मरणका कारण है-'कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता १३। २१)। यही संसारका बीज है।
मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ-इसका तात्पर्य है कि इस स्थावर-जंगमरूप जगत् को मैं ही उत्पन्न करनेवाला हूँ और मैं ही उत्पन्न होनेवाला हूँ; "
"मैं ही नाश करनेवाला हूँ और मैं ही नष्ट होनेवाला हूँ; क्योंकि मेरे सिवाय संसारका दूसरा कोई भी कारण तथा कार्य नहीं है (इसी अध्यायका सातवाँ श्लोक) अर्थात् मैं ही इसका निमित्त तथा उपादान कारण हूँ। अतः जगत्-रूपसे मैं ही हूँ। नवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भी भगवान् ने कहा है-'अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन' अर्थात् 'अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।' श्रीमद्भागवतमें भगवान् कहते हैं-
आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभुः । त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः ॥ (११। २८।६)
'जो कुछ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष वस्तु है, वह सर्वशक्तिमान् परमात्मा ही हैं। जो कुछ सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसके निमित्त कारण भी वे ही हैं और उपादान कारण भी वे ही हैं अर्थात् वे ही विश्व बनाते हैं और वे ही विश्व बनते हैं। वे ही रक्षक हैं और वे ही रक्षित हैं। वे ही सर्वात्मा भगवान् इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है, वह भी वे ही हैं।'
तैत्तिरीयोपनिषद् में आया है कि अन्न भी मैं ही हूँ और अन्नको खानेवाला भी मैं ही हूँ -' अहमन्नमहमन्नमहमन्नम्। अहमन्नादोऽहमन्नादोऽहमन्नादः ।' (३।१०।६)
तात्पर्य यह हुआ कि अपरा और परा प्रकृति तथा उनके संयोगसे पैदा होनेवाले सम्पूर्ण प्राणी- ये सब-के-सब एक भगवान् ही हैं। कारण भी भगवान् हैं और कार्य भी !
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने अपनेको परा और अपरा प्रकृतिरूप सम्पूर्ण जगत् का मूल कारण बताया। अब भगवान् के सिवाय भी जगत् का और कोई कारण होगा-इसका आगेके श्लोकमें निषेध करते हैं।"
"कल के वीडियो में हम चर्चा करेंगे अध्याय 7 के श्लोक 7 पर, जिसमें श्रीकृष्ण सृष्टि की मूलभूत संरचना के बारे में और अधिक गहराई से बताएंगे।""
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फिर मिलेंगे अगले वीडियो में। जय श्रीकृष्ण! 🙏"
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