ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 5 - आत्मा और प्रकृति के बीच का रहस्य

 


नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका हमारे चैनल पर जहाँ हम भगवद गीता के श्लोकों को सरल और व्यावहारिक रूप से समझते हैं। 

आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 7 के श्लोक 5 की—आत्मा और प्रकृति के गहरे रहस्यों पर। तो चलिए, इस ज्ञान की यात्रा शुरू करते हैं।

"पिछले वीडियो में हमने अध्याय 7 के श्लोक 4 पर चर्चा की थी, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति के तत्वों के बारे में बताया। अगर आपने वो वीडियो नहीं देखा, तो जाकर ज़रूर देखें।


आज के श्लोक में श्रीकृष्ण हमें आत्मा और प्रकृति के बीच के संबंध और उनकी अहमियत के बारे में बता रहे हैं। यह श्लोक हमारे आध्यात्मिक और व्यक्तिगत जीवन को नई दिशा दे सकता है।"

"श्री हरि 


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

"भगवतगीता अध्याय 7 

श्लोक 5"



"(श्लोक-५)


अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥


उच्चारण की विधि - अपरा, इयम्, इतः, तु, अन्याम्, प्रकृतिम्, विद्धि, मे, पराम्, जीवभूताम्, महाबाहो, यया, इदम्, धार्यते, जगत् ॥ ५ ॥


शब्दार्थ - इयम् अर्थात् यह (आठ प्रकारके भेदोंवाली), तु अर्थात् तो, अपरा अर्थात् अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है (और) महाबाहो अर्थात् हे महाबाहो !, इतः अर्थात् इससे, अन्याम् अर्थात् दूसरीको, यया अर्थात् जिससे, इदम् अर्थात् यह (सम्पूर्ण), जगत् अर्थात् जगत्, धार्यते अर्थात् धारण किया जाता है, मे अर्थात् मेरी, जीवभूताम् अर्थात् जीवरूपा, पराम् अर्थात् परा अर्थात् चेतन, प्रकृतिम् अर्थात् प्रकृति, विद्धि अर्थात् जान।


अर्थ - हे महाबाहो ! इससे दूसरीको, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति जान ॥ ५॥"

"यहाँ 'इतीयं मे' पदोंसे भगवान् यह चेता रहे हैं कि यह अपरा प्रकृति मेरी है। इसके साथ भूलसे अपनापन कर लेना ही बार-बार जन्म-मरणका कारण है; और जो भूल करता है, उसीपर भूलको मिटानेकी जिम्मेवारी होती है। अतः जीव इस अपराके साथ अपनापन न करे।


अहंतामें भोगेच्छा और जिज्ञासा- ये दोनों रहती हैं। इनमेंसे भोगेच्छाको कर्मयोगके द्वारा मिटाया जाता है और जिज्ञासाको ज्ञानयोगके द्वारा पूरा किया जाता है। कर्मयोग और ज्ञानयोग- इन दोनोंमेंसे एकके भी सम्यक्तया पूर्ण होनेपर एक-दूसरेमें दोनों आ जाते हैं (गीता- पाँचवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक) अर्थात् भोगेच्छाकी निवृत्ति होनेपर जिज्ञासाकी भी पूर्ति हो जाती है और जिज्ञासाकी पूर्ति होनेपर भोगेच्छाकी भी निवृत्ति हो जाती है। कर्मयोगमें भोगेच्छा मिटनेपर तथा ज्ञानयोगमें जिज्ञासाकी पूर्ति होनेपर असंगता स्वतः आ जाती है। उस असंगताका भी उपभोग न करनेपर वास्तविक बोध हो जाता है और मनुष्यका जन्म सर्वथा सार्थक हो जाता है।


'जीवभूताम्' - वास्तवमें यह जीवरूप नहीं हैं, प्रत्युत जीव बना हुआ है। यह तो स्वतः साक्षात् परमात्माका अंश है। केवल स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीररूप प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही यह जीव बना है। यह सम्बन्ध जोड़ता है-अपने सुखके लिये। यही सुख इसके जन्म-मरणरूप महान् दुःखका खास कारण है।


'महाबाहो' - हे अर्जुन ! तुम बड़े शक्तिशाली हो, इसलिये तुम अपरा और परा प्रकृतिके भेदको समझनेमें समर्थ हो। अतः तुम इसको समझो - 'विद्धि।'


'ययेदं धार्यते जगत् ' * - वास्तवमें यह जगत् जगद् रूप नहीं है, प्रत्युत भगवान् का ही स्वरूप है - 'वासुदेवः सर्वम्' (७। १९), 'सदसच्चाहम्' (९। १९)। * गीतामें 'जगत्' शब्द कहीं 'परा' प्रकृतिका (७। १३), कहीं 'अपरा' प्रकृतिका (७।५) और कहीं 'परा-अपरा' दोनों प्रकृतियोंका वाचक है (७।६)।"

"केवल इस परा प्रकृति-जीवने इसको जगत्-रूपसे धारण कर रखा है अर्थात् जीव इस संसारकी स्वतन्त्र सत्ता मानकर अपने सुखके लिये इसका उपयोग करने लग गया। इसीसे जीवका बन्धन हुआ है। अगर जीव संसारकी स्वतन्त्र सत्ता न मानकर इसको केवल भगवत्स्वरूप ही माने तो उसका जन्म-मरणरूप बन्धन मिट जायगा।


भगवान् की परा प्रकृति होकर भी जीवात्माने इस दृश्यमान जगत् को, जो कि अपरा प्रकृति है, धारण कर रखा है अर्थात् इस परिवर्तनशील, विकारी जगत् को स्थायी, सुन्दर और सुखप्रद मानकर 'मैं' और 'मेरे'-रूपसे धारण कर रखा है। जिसकी भोगों और पदार्थोंमें जितनी आसक्ति है, आकर्षण है, उसको उतना ही संसार और शरीर स्थायी, सुन्दर और सुखप्रद मालूम देता है। पदार्थोंका संग्रह तथा उनका उपभोग करनेकी लालसा ही खास बाधक है। संग्रहसे अभिमानजन्य सुख होता है और भोगोंसे संयोगजन्य सुख होता है। इस सुखासक्तिसे ही जीवने जगत् को जगत्-रूपसे धारण कर रखा है। सुखासक्तिके कारण ही वह इस जगत् को भगवत्स्वरूपसे नहीं देख सकता। जैसे स्त्री वास्तवमें जनन-शक्ति है; परन्तु स्त्रीमें आसक्त पुरुष स्त्रीको मातृरूपसे नहीं देख सकता, ऐसे ही संसार वास्तवमें भगवत्स्वरूप है; परंतु संसारको अपना भोग्य माननेवाला भोगासक्त पुरुष संसारको भगवत्स्वरूप नहीं देख सकता। यह भोगासक्ति ही जगत् को धारण कराती है अर्थात् जगत् को धारण करानेमें हेतु है।


दूसरी बात, मात्र मनुष्योंके शरीरोंकी उत्पत्ति रज-वीर्यसे ही होती है, जो कि स्वरूपसे स्वतः ही मलिन है। परंतु भोगोंमें आसक्त पुरुषोंकी उन शरीरोंमें मलिन बुद्धि नहीं होती, प्रत्युत रमणीय बुद्धि होती है। यह रमणीय बुद्धि ही जगत् को धारण कराती है। नदीके किनारे खड़े एक सन्तसे किसीने कहा कि 'देखिये महाराज ! "

"यह नदीका जल बह रहा है और उस पुलपर मनुष्य बह रहे हैं।' सन्तने उससे कहा कि 'देखो भाई ! नदीका जल ही नहीं, खुद नदी भी बह रही है; और पुलपर मनुष्य ही नहीं, खुद पुल भी बह रहा है।' तात्पर्य यह हुआ कि ये नदी, पुल तथा मनुष्य बड़ी तेजीसे नाशकी तरफ जा रहे हैं। एक दिन न यह नदी रहेगी, न यह पुल रहेगा और न ये मनुष्य रहेंगे। ऐसे ही यह पृथ्वी भी बह रही है अर्थात् प्रलयकी तरफ जा रही है। इस प्रकार भावरूपसे दीखनेवाला यह सारा जगत् प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है; परन्तु जीवने इसको भावरूपसे अर्थात् 'है' रूपसे धारण (स्वीकार) कर रखा है। परा प्रकृतिकी (स्वरूपसे) उत्पत्ति नहीं होती; पर अपरा प्रकृतिके साथ तादात्म्य करनेके कारण यह शरीरकी उत्पत्तिको अपनी उत्पत्ति मान लेता है और शरीरके नाशको अपना नाश मान लेता है, जिससे यह जन्मता-मरता रहता है। अगर यह अपराके साथ सम्बन्ध न जोड़े, इससे विमुख हो जाय अर्थात् भावरूपसे इसको सत्ता न दे तो जगत् सत्-रूपसे दीख ही नहीं सकता।


'इदम्' पदसे शरीर और संसार - दोनों लेने चाहिये; क्योंकि शरीर और संसार अलग-अलग नहीं हैं। तत्त्वतः (धातु चीज) एक ही है। शरीर और संसारका भेद केवल माना हुआ है, वास्तवमें अभेद ही है। इसलिये तेरहवें अध्यायमें भगवान् ने 'इदं शरीरम्' पदोंसे शरीरको क्षेत्र बताया (तेरहवें अध्यायका पहला श्लोक); परन्तु जहाँ क्षेत्रका वर्णन किया है, वहाँ समष्टिका ही वर्णन हुआ है (तेरहवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) और इच्छा-द्वेषादि विकार व्यष्टिके माने गये हैं (तेरहवें अध्यायका छठा श्लोक); क्योंकि इच्छा आदि विकार व्यष्टि प्राणीके ही होते हैं। तात्पर्य है कि समष्टि और व्यष्टि तत्त्वतः एक ही हैं। एक होते हुए भी अपनेको शरीर माननेसे 'अहंता' और शरीरको अपना माननेसे 'ममता' पैदा होती है, जिससे बन्धन होता है। "

"अगर शरीर और संसारकी अभिन्नताका अथवा अपनी और भगवान् की अभिन्नताका साक्षात् अनुभव हो जाय तो अहंता और ममता स्वतः मिट जाती हैं। ये अहंता और ममता कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंसे ही मिटती हैं। कर्मयोगसे-'निर्ममो निरहङ्कारः' (गीता २। ७१), ज्ञानयोगसे-'अहङ्कारं ..... विमुच्य निर्ममः' (गीता १८। ५३) और भक्तियोगसे 'निर्ममो निरहङ्कारः' (गीता १२। १३)। तात्पर्य है कि जडताके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होना चाहिये, जो कि केवल माना हुआ है। अतः विवेकपूर्वक न माननेसे अर्थात् वास्तविकताका अनुभव करनेसे वह माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है।


विशेष बात


जैसे गुरु-शिष्यका सम्बन्ध होता है, तो इसमें गुरु शिष्यको अपना शिष्य मानता है। शिष्य गुरुको अपना गुरु मानता है। इस प्रकार गुरु अलग है और शिष्य अलग है अर्थात् उन दोनोंकी अलग-अलग सत्ता दीखती है। परन्तु उन दोनोंके सम्बन्धसे एक तीसरी सत्ता प्रतीत होने लग जाती है, जिसको 'सम्बन्धकी सत्ता' कहते हैं *।


* गुरु-शिष्यके सम्बन्धमें गुरुका काम केवल शिष्यका हित करना है और शिष्यका काम केवल गुरुकी सेवा करना है। इस प्रकार संसारमें माने हुए जितने भी सम्बन्ध हैं, सब केवल एक-दूसरेका हित या सेवा करनेके लिये ही हैं, अपने लिये नहीं।


ऐसे ही साक्षात् परमात्माके अंश जीवने शरीर-संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। इस सम्बन्धके कारण एक तीसरी सत्ता प्रतीत होने लग जाती है, जिसको 'मैं'-पन कहते हैं। सम्बन्धकी यह सत्ता ('मैं'-पन) केवल मानी हुई है, वास्तवमें है नहीं। जीव भूलसे इस माने हुए सम्बन्धको सत्य मान लेता है अर्थात् इसमें सद्भाव कर लेता है और बँध जाता है। इस प्रकार जीव संसारसे नहीं, प्रत्युत संसारसे माने हुए सम्बन्धसे ही बँधता है।


गुरु और शिष्यमें तो दोनोंकी अलग-अलग सत्ता है और दोनों एक-दूसरेसे सम्बन्ध मानते हैं; "

"परन्तु जीव (चेतन) और संसार (जड)- इन दोनोंमें केवल एक जीवकी ही वास्तविक सत्ता है और यही भूलसे संसारके साथ अपना सम्बन्ध मानता है। संसार प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है; अतः उससे माना हुआ सम्बन्ध भी प्रतिक्षण स्वतः नष्ट हो रहा है। ऐसा होते हुए भी जबतक संसारमें सुख प्रतीत होता है, तबतक उससे माना हुआ सम्बन्ध स्थायी प्रतीत होता है। तात्पर्य यह है कि संसारसे माना हुआ सम्बन्ध सुखासक्तिपर ही टिका हुआ है। संसारसे सुखासक्तिपूर्वक माने हुए सम्बन्धके कारण ही संसार अप्राप्त होनेपर भी प्राप्त और परमात्मा प्राप्त होनेपर भी अप्राप्त प्रतीत हो रहे हैं। संसारसे माना हुआ सम्बन्ध टूटते ही परमात्माके वास्तविक सम्बन्धका अथवा संसारकी अप्राप्ति और परमात्माकी प्राप्तिका अनुभव हो जाता है।


'मैं' पनको मिटानेके लिये साधक प्रकृति और प्रकृतिके कार्यको न तो अपना स्वरूप समझे, न उससे कुछ मिलनेकी इच्छा रखे और न ही अपने लिये कुछ करे। जो कुछ करे, वह सब केवल संसारकी सेवाके लिये ही करता रहे। तात्पर्य है कि जो कुछ प्रकृतिजन्य पदार्थ हैं, उन सबकी संसारके साथ एकता है; अतः उनको केवल संसारका मानकर संसारकी ही सेवामें लगाता रहे। इससे क्रिया और पदार्थोंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है और अपना स्वरूप अवशिष्ट रह जाता है अर्थात् अपने स्वरूपका बोध हो जाता है। यह कर्मयोग हुआ। ज्ञानयोगमें विवेक-विचारपूर्वक प्रकृतिके कार्य पदार्थों और क्रियाओंसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद करनेपर स्वरूपका बोध हो जाता है। इस प्रकार जडके सम्बन्धसे जो अहंता ('मैं' पन) पैदा हुई थी, उसकी निवृत्ति हो जाती है। भक्तियोगमें 'मैं केवल भगवान् का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं तथा मैं शरीर-संसारका नहीं हूँ और शरीर-संसार मेरे नहीं हैं'- ऐसी दृढ़ मान्यता करके भक्त संसारसे विमुख होकर केवल भगवत्परायण हो जाता है, "

"जिससे संसारका सम्बन्ध स्वतः टूट जाता है और अहंताकी निवृत्ति हो जाती है।


इस प्रकार कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- इन तीनोंमेंसे किसी एकका भी ठीक अनुष्ठान करनेपर जडतासे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होकर परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।


परिशिष्ट भाव - जब चेतन अपरा प्रकृतिके साथ तादात्म्य कर लेता है अर्थात् 'अहम्' के साथ एक होकर अपनेको 'मैं हूँ' ऐसा मान लेता है, तब वह जीवरूप बनी हुई 'परा प्रकृति' कहलाता है। 'अहम्' (मैं) से इधर जगत् (अपरा प्रकृति) है और उधर परमात्मा हैं। परन्तु जीव उन परमात्माको स्वीकार न करके, प्रत्युत उनकी अपरा प्रकृतिको स्वीकार करके उसको जगत् -रूपसे धारण कर लेता है और जन्ममरणरूप बन्धनमें पड़ जाता है।


'अपरेयमितस्त्वन्याम्' - अपरासे अन्य परा है और परासे अन्य अपरा है। अपरा 'अन्य' अर्थात् विजातीय है। अन्यको पकड़नेसे ही परा 'जीव' बनी है -'जीवभूताम्'।


अपरा (परिवर्तनशील) और परा (अपरिवर्तनशील) - दोनों ही भगवान् की प्रकृतियाँ अर्थात् शक्तियाँ हैं, स्वभाव हैं। भगवान् की शक्ति होनेसे दोनों भगवान् से अभिन्न हैं; क्योंकि शक्तिमान् के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। जैसे नख और केश निष्प्राण होनेपर भी हमारे प्राणयुक्त शरीरसे अलग नहीं हैं, ऐसे ही अपरा प्रकृति जड़ होनेपर भी चेतन भगवान् से अलग नहीं है अपरा और परा-दोनों प्रकृतियाँ भगवान् का स्वरूप हुईं तो फिर भगवान् के सिवाय क्या शेष रहा ? कुछ भी शेष नहीं रहा- 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता ७। १९) । तात्पर्य है कि अपरा और परा- दोनों प्रकृतियोंके सहित भगवान् का स्वरूप 'समग्र' है अर्थात् परा-अपरा, सत्-असत्, जड़-


- 'सदसच्चाहमर्जुन' (गीता ९। १९) । इस प्रकार जब चेतन सब कुछ भगवान् ही हैं।"

"ययेदं धार्यते जगत्' का तात्पर्य है कि संसार न तो भगवान् की दृष्टिमें है और न महात्माकी दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवकी दृष्टि (मान्यता) में है। भगवान् की दृष्टिमें सत्-असत् सब कुछ वे ही हैं- 'सदसच्चाहमर्जुन' (गीता ९। १९) और महात्माकी दृष्टिमें भी सब कुछ भगवान् ही हैं - 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता ७। १९) । जीवने ही राग-द्वेषके कारण जगत् को अपनी बुद्धिमें धारण कर रखा है। इसी बातको आगे पन्द्रहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें 'मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति' पदोंसे कहा गया है। जगत् को सत्ता देनेसे ही राग-द्वेष पैदा होते हैं।


जीवने संसारकी सत्ता मान ली और सत्ता मानकर उसको महत्ता दे दी। महत्ता देनेसे कामना अर्थात् सुखभोगकी इच्छा पैदा हुई, जिससे जीव जन्म-मरणमें पड़ गया। तात्पर्य यह हुआ कि एक भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता माननेसे ही जीव संसार-बन्धनमें पड़ा है। अतः दूसरी सत्ता न माननेकी जिम्मेवारी जीवकी ही है। अगर वह संसारकी सत्ता न माने तो संसार है ही कहाँ ?


भगवान् ने पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्-इन आठोंको अपरा (जड़) प्रकृति कहा है।


१-पृथ्वी स्थूल है। पृथ्वीसे सूक्ष्म जल है। जलसे सूक्ष्म तेज है। तेजसे सूक्ष्म वायु है। वायुसे सूक्ष्म आकाश है। आकाशसे सूक्ष्म मन है।


मनसे सूक्ष्म बुद्धि है। बुद्धिसे सूक्ष्म अहम् है। अपरा प्रकृतिमें अहम् सबसे सूक्ष्म है। इस प्रकार भगवान् ने स्थूलसे सूक्ष्मतक क्रमसे अपरा प्रकृतिका वर्णन किया है।


अतः जैसे पृथ्वी जड़ और जाननेमें आनेवाली है, ऐसे ही अहम् भी जड़ और जाननेमें आनेवाला है। तात्पर्य है कि पृथ्वी, जल आदि आठों एक ही जातिके हैं। 


२-एक अनेकमें अनुगत हो तो उसे 'जाति' कहते हैं। "

"पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम् - इन आठोंमें जातीय एकता तो है, पर स्वरूपकी एकता नहीं है अर्थात् जाति एक होनेपर भी इनका स्वरूप अलग-अलग है। इसीलिये इसको 'अष्टधा' कहा गया है। अपरा प्रकृतिका कार्य होनेसे यहाँ पृथ्वी, जल आदिको भी अपरा प्रकृति कहा गया है।


अतः जिस जातिकी पृथ्वी है, उसी जातिका अहम् भी है अर्थात् अहम् भी मिट्टीके ढेलेकी तरह जड़ और दृश्य है। अतः भगवान् ने अहम् को एतत्तासे कहा है; जैसे - 'एतद् यो वेत्ति' (गीता १३। १)। 'एतत्' (यह) कभी 'अहम्' (मैं) नहीं होता; अतः अहम् को एतत्तासे कहनेका तात्पर्य है कि यह अपना स्वरूप नहीं है। परन्तु जब चेतन (जीव) इस अहम् के साथ अपना तादात्म्य मान लेता है, तब वह बँध जाता है- 'अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते' (गीता ३। २७)। इसीको चिज्जड़ग्रन्थि कहते हैं।


'अहङ्कार इतीयं मे'- यह धातुरूप अहंकार तो अपरा प्रकृतिका (जड़) है, पर 'मैं हूँ' - यह ग्रन्थिरूप अहंकार केवल अपरा प्रकृति नहीं है, प्रत्युत इसमें परा प्रकृति (चेतन) भी मिली हुई है। तत्त्वज्ञान होनेपर यह जन्म-मरण देनेवाला ग्रन्थिरूप अहंकार तो नहीं रहता, पर अपरा प्रकृतिका धातुरूप अहंकार रहता है।


क्रिया और पदार्थ न तो परा प्रकृतिमें हैं और न परमात्मामें हैं, प्रत्युत अपरा प्रकृतिमें हैं। अपरा प्रकृति क्रियारूप और पदार्थरूप है। परमात्मा प्रकृतिकी सहायतासे ही सृष्टि-रचना करते हैं। परा प्रकृति अर्थात् जीव क्रिया और पदार्थरूप अपरा प्रकृतिमें आसक्ति करके और उसका आश्रय लेकर बंध जाता है। अपराकी आसक्ति और उसका आश्रय लेना ही जगत् को धारण करना है। इसलिये भगवान् ने सातवें अध्यायके आरम्भमें ही 'मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन् मदाश्रयः' पदोंसे अपनेमें आसक्ति (प्रेम) करने और अपना आश्रय लेनेकी बात कही है। अगर जीव अपरा प्रकृतिमें आसक्ति न रखे और उसका आश्रय न ले तो वह 'मुक्त' हो जायगा। "

"अगर वह भगवान् में आसक्ति (प्रेम) करे और उनका आश्रय ले तो वह 'भक्त' हो जायगा। 


जगत् की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। बाँधनेवाला जगत् तो जीवने ही बना रखा है। जीव जगत् को धारण करता है, इसीसे सुख-दुःख होते हैं, बन्धन होता है, चौरासी लाख योनियाँ, भूत, प्रेत, पिशाच, देवता आदि योनियाँ तथा नरकोंकी प्राप्ति होती है। सत्त्व, रज और तम - ये तीनों गुण कोई बाधा नहीं देते; परन्तु इनका संग करनेसे जीव ऊर्ध्वगति, मध्यगति अथवा अधोगतिमें जाता है - 'कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता १३। २१)। गुणोंका संग जीव स्वयं करता है। अपरा प्रकृति किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं करती। सम्बन्ध न प्रकृति करती है, न गुण करते हैं, न इन्द्रियाँ करती हैं, न मन करता है, न बुद्धि करती है। जीव स्वयं ही सम्बन्ध करता है, इसीलिये सुखी-दुःखी हो रहा है, जन्म-मरणमें जा रहा है। जीव स्वतन्त्र है; क्योंकि यह 'परा' अर्थात् उत्कृष्ट प्रकृति है। अपरा प्रकृति तो बेचारी कुछ नहीं करती; क्योंकि उसमें चेतना और कामना नहीं है। उससे सम्बन्ध जोड़कर, उसका सदुपयोग-दुरुपयोग करके जीव ऊँच-नीच योनियोंमें जाता है, भटकता है। तात्पर्य है कि अपरिवर्तनशील होते हुए भी जीव विजातीय जगत् के साथ सम्बन्ध जोड़कर परिवर्तनशील जगत्-रूप हो जाता है' (इसी अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)। उसकी दृष्टि शरीरकी तरफ ही रहती है, अपने स्वरूपकी स्फुरणा होती ही नहीं !


१- यहाँ 'जगत्' शब्द परिवर्तनशीलका वाचक है- 'गच्छतीति जगत्'।


जो हमसे सर्वथा अलग है, उस जगत् अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम् के साथ अपनी एकता मान ली - यही जगत् को धारण करना है। वास्तवमें जगत् हमारा है ही नहीं; क्योंकि अगर हमारी चीज हमारेको मिल गयी होती तो हमारी कामनाएँ सदाके लिये मिट जातीं, "

"हम निर्मम, निर्भय, निश्चिन्त, निष्काम हो जाते। परन्तु जगत् हमें ऐसी चीज नहीं दे सकता, जो हमारी हो अर्थात् जो हमसे कभी बिछुड़े नहीं। जो चीज वास्तवमें हमारी है, वह जगत् के द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती, प्रत्युत जगत् के सम्बन्ध-विच्छेदसे प्राप्त हो सकती है। हमारी वस्तु है-परमात्मा। हम उस परमात्माके ही अंश हैं- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५। ७) । उसकी प्राप्तिका उपाय (कर्मयोगकी दृष्टिसे) यह है कि जगत् से मिली हुई वस्तुओं (शरीरादि) को जगत् की ही सेवामें लगा दें और बदलेमें उससे कुछ भी आशा (फलेच्छा) न रखें। उससे कोई सम्बन्ध न जोड़ें, न क्रियाके साथ, न पदार्थके साथ। सेवा करनेकी अपेक्षा भी किसीको दुःख न देना श्रेष्ठ है। किसीको भी दुःख न देनेसे, किसीका भी अहित न करनेसे सेवा अपने-आप होने लगती है, करनी नहीं पड़ती।


२-किसीका भी अहित न करनेसे दो बातें होंगी-हम कुछ नहीं करेंगे, अगर कुछ करेंगे तो हमारेसे सेवा ही होगी। कुछ न करना अथवा सेवा करना- इन दोनोंसे ही संसारसे सम्बन्ध विच्छेद होता है। कारण कि कुछ न करनेमें कोई दोष होता ही नहीं और अपने-आप सेवा होनेसे सब दोष मिट जाते हैं। जैसे भोजन करनेमें 'मैं खाता हूँ' -इस प्रकार जो अभिमान होता है, वह भोजन पचनेमें नहीं होता; क्योंकि वह अपने-आप पचता है। ऐसे ही सेवा अपने-आप होनेसे कर्तृत्वाभिमान और फलासक्तिका त्याग स्वतः होता है। 


अपने-आप होनेवाली क्रियाका अभिमान नहीं होता और उसके फलकी इच्छा भी नहीं होती। अभिमान और फलेच्छाका त्याग होनेपर हमें वह वस्तु मिल जाती है, जो वास्तवमें हमारी है। 

वास्तवमें अपरा प्रकृतिकी परमात्माके सिवाय अलग सत्ता है ही नहीं-'नासतो विद्यते भावः'। उसको विशेष सत्ता जीवने ही दी है। जैसे, रुपयोंकी अपनी कोई महत्ता नहीं है, हम ही लोभके कारण उसको महत्ता देते हैं। "

"हम जिसको महत्ता देते हैं, उसीमें हमारा आकर्षण होता है। महत्ता तब देते हैं, जब दोषोंको स्वीकार करते हैं।


३-संसारके सब सुख दोषजनित हैं। दोषोंको स्वीकार करनेसे ही सुख दीखता है। कामके कारण ही मनुष्य स्त्रीके बिना नहीं रह सकता। लोभके कारण ही मनुष्य धनके बिना नहीं रह सकता। मोहके कारण ही मनुष्य परिवारके बिना नहीं रह सकता। दोषके कारण ही उसको त्यागका महत्त्व नहीं दीखता।


कामरूप दोषके कारण ही स्त्रीमें आकर्षण होता है, लोभ-रूप दोषके कारण ही धनमें आकर्षण होता है, मोह- रूप दोषके कारण ही कुटुम्ब परिवारमें आकर्षण होता है, आदि। परन्तु दोषोंके साथ तादात्म्य होनेके कारण दोष दोषरूपसे नहीं दीखते और हमें इस बातका पता नहीं लगता कि हम ही उनको (अपरा प्रकृतिको) सत्ता और महत्ता दे रहे हैं। तादात्म्य मिटनेपर दोष तो रहते नहीं और गुण दीखते नहीं!


अनन्त ब्रह्माण्डोंमें तीन लोक, चौदह भुवन, जड़-चेतन, स्थावर-जंगम, थलचर-जलचर-नभचर, जरायुज-अण्डज-स्वेदज-उद्भिज्ज, सात्त्विक-राजस-तामस, मनुष्य, देवता, पितर, गन्धर्व, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, भूत-प्रेत-पिशाच, ब्रह्म-राक्षस आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, पढ़ने तथा कल्पना करनेमें आता है, उसमें 'परा' और 'अपरा'- इन दो प्रकृतियोंके सिवाय कुछ भी नहीं है। जो देखने, सुनने, पढ़ने तथा कल्पना करनेमें आता है और जिन शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम् के द्वारा देखा, सुना, पढ़ा, सोचा जाता है, वह सब-का-सब 'अपरा' है। परन्तु जो देखता, सुनता, पढ़ता, सोचता, जानता, मानता है, वह 'परा' है। परा और अपरा-दोनों ही भगवान् की शक्तियाँ होनेसे भगवान् से अभिन्न अर्थात् भगवत्स्वरूप ही हैं। अतः अनन्त ब्रह्माण्डोंके भीतर तथा बाहर और अनन्त ब्रह्माण्डोंके रूपमें एक भगवान् के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं है- 'वासुदेवः सर्वम्' (७। १९),"

"सदसच्चाहमर्जुन' (९। १९) । संसारके सभी दर्शन, मत-मतान्तर आचार्योंको लेकर हैं, पर 'वासुदेवः सर्वम्' किसी आचार्यका दर्शन, मत नहीं है, प्रत्युत साक्षात् भगवान् का अटल सिद्धान्त है, जिसके अन्तर्गत सभी दर्शन, मत-मतान्तर आ जाते हैं।


'अपरा' (जगत्) को स्वतन्त्र सत्ता जीवने ही दी है - 'ययेदं धार्यते जगत्'। 'अपरा' भगवान् की है, पर उसको अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम् को अपना और अपने लिये मान लेनेसे ही जीव बन्धनमें पड़ा है। अतः साधकको अगर जगत् दीखता है तो यह उसकी व्यक्तिगत दृष्टि है। व्यक्तिगत दृष्टि सिद्धान्त नहीं होता। दीखना सीमित होता है, जबकि तत्त्व असीम है। जैसे, सूर्य थालीकी तरह दीखता है, पर वास्तवमें वह थालीके आकारका नहीं है, प्रत्युत पृथ्वीसे भी कई गुना अधिक बड़ा है !


अगर साधकको जगत् दीखता है तो उसको निष्कामभावपूर्वक जगत् की सेवा करनी चाहिये। जगत् को अपना और अपने लिये मानना तथा उससे सुख लेना ही असाधन है, बन्धन है। कारण कि हमारे पास शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदि जो कुछ भी है, वह सब जगत् का है और जगत् के लिये है। अतः जगत् की वस्तुको जगत् की सेवामें लगानेसे जगत् जगत्-रूपसे नहीं दीखेगा, प्रत्युत भगवत्स्वरूप दीखने लगेगा, जो कि वास्तवमें है। तात्पर्य है कि साधक चाहे जगत् को माने, चाहे आत्माको माने, चाहे परमात्माको माने, किसीको भी मानकर वह साधन कर सकता है और अन्तिम तत्त्व 'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव कर सकता है।


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने कहा कि परा प्रकृतिने अपरा प्रकृतिको धारण कर रखा है। उसीका स्पष्टीकरण करनेके लिये अब आगेका श्लोक कहते हैं।"

"कल के वीडियो में हम जानेंगे अध्याय 7 के श्लोक 6 के बारे में, जहाँ श्रीकृष्ण सृष्टि के मूल सिद्धांतों पर प्रकाश डालते हैं। इसे मिस मत कीजिए।


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