ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 4 - संसार की रचना का आधार

 



॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 4 - संसार की रचना का आधार

"गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

"नमस्कार, आपका स्वागत है हमारे चैनल पर जहाँ हम भगवद्गीता के श्लोकों की गहराई में जाकर उनका अर्थ और महत्व समझते हैं। आज के श्लोक में, श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रकृति के तत्वों और उनके प्रभावों का ज्ञान दे रहे हैं। चलिए, इस श्लोक को समझकर हमारे जीवन को नया दृष्टिकोण दें।


पिछले श्लोक में, हमने जाना कि भगवान श्रीकृष्ण ने भक्ति के महत्व को कैसे समझाया। उन्होंने यह बताया कि किस प्रकार भक्ति मार्ग हमें मुक्ति की ओर ले जा सकता है।


आज का श्लोक है भगवद्गीता अध्याय 7, श्लोक 4। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रकृति के आठ प्रमुख तत्वों के बारे में ज्ञान दे रहे हैं, जो इस संसार की रचना का आधार हैं।"


"भगवतगीता अध्याय 7 श्लोक 4"

"अपरा और परा प्रकृतिके स्वरूपका वर्णन । (श्लोक-४)


भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥


उच्चारण की विधि - भूमिः, आपः, अनलः, वायुः, खम्, मनः, बुद्धिः, एव, च, अहङ्कारः, इति, इयम्, मे, भिन्ना, प्रकृतिः, अष्टधा॥ ४॥


शब्दार्थ - भूमिः अर्थात् पृथ्वी, आपः अर्थात् जल, अनलः अर्थात् अग्नि, वायुः अर्थात् वायु, खम् अर्थात् आकाश, मनः अर्थात् मन, बुद्धिः अर्थात् बुद्धि, च अर्थात् और, अहङ्कारः अर्थात् अहंकार, एव अर्थात् भी, इति अर्थात् इस प्रकार, इयम् अर्थात् यह, अष्टधा अर्थात् आठ प्रकारसे, भिन्ना अर्थात् विभाजित, मे अर्थात् मेरी, प्रकृतिः अर्थात् प्रकृति है।


अर्थ - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी इस प्रकार यह आठ प्रकारसे विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकारके भेदोंवाली तो अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है"

"व्याख्या- [जो परिवर्तनशील है, कभी एकरूप नहीं रहता, उस जडका ही भगवान् ने अत्यन्त सूक्ष्मरूपसे 'क्षर' नामसे वर्णन किया है- 'क्षरः सर्वाणि भूतानि' (१५। १६), फिर 'भूमिरापोऽनलो वायुः प्रकृतिरष्टधा' (७। ४) - इस श्लोकमें उसीको आठ भेदोंवाली 'अपरा प्रकृति' के नामसे कहा है और फिर 'महाभूतान्यहङ्कार.......पञ्च चेन्द्रियगोचराः' (१३। ५) - इस श्लोकमें उसीके विस्तारसे चौबीस भेद बताये हैं।]


'भूमिरापोऽनलो वायुः विद्धि मे पराम्'-परमात्मा सबके कारण हैं। वे प्रकृतिको लेकर सृष्टिकी रचना करते हैं *।


* कहीं तो प्रकृतिको लेकर भगवान् रचना करते हैं (गीता-नवें अध्यायका आठवाँ श्लोक) और कहीं भगवान् की अध्यक्षतामें प्रकृति रचना करती है (गीता- नवें अध्यायका दसवाँ श्लोक)- इन दोनों ही रीतियोंसे गीतामें संसारकी रचनाका वर्णन आता है।


जिस प्रकृतिको लेकर रचना करते हैं, उसका नाम 'अपरा प्रकृति' है और अपना अंश जो जीव है, उसको भगवान् 'परा प्रकृति' कहते हैं। अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड और परिवर्तनशील है तथा परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और परिवर्तनरहित है।


प्रत्येक मनुष्यका भिन्न-भिन्न स्वभाव होता है। जैसे स्वभावको मनुष्यसे अलग सिद्ध नहीं कर सकते, ऐसे ही परमात्माकी प्रकृतिको परमात्मासे अलग (स्वतन्त्र) सिद्ध नहीं कर सकते। यह प्रकृति प्रभुका ही एक स्वभाव है; इसलिये इसका नाम 'प्रकृति' है। "

"इसी प्रकार परमात्माका अंश होनेसे जीवको परमात्मासे भिन्न सिद्ध नहीं कर सकते; क्योंकि यह परमात्माका स्वरूप है। परमात्माका स्वरूप होनेपर भी केवल अपरा प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेके कारण इस जीवात्माको प्रकृति कहा गया है। अपरा प्रकृतिके सम्बन्धसे अपनेमें कृति (करना) माननेके कारण ही यह जीवरूप है। अगर यह अपनेमें कृति न माने तो यह परमात्मस्वरूप ही है; फिर इसकी जीव या प्रकृति संज्ञा नहीं रहती अर्थात् इसमें बन्धनकारक कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं रहता (गीता- अठारहवें अध्यायका सत्रहवाँ श्लोक)।


यहाँ अपरा प्रकृतिमें पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार- ये आठ शब्द लिये गये हैं। इनमेंसे अगर पाँच स्थूल भूतोंसे स्थूल सृष्टि मानी जाय तथा मन, बुद्धि और अहंकार - इन तीनोंसे सूक्ष्म सृष्टि मानी जाय तो इस वर्णनमें स्थूल और सूक्ष्म सृष्टि तो आ जाती है, पर कारणरूप प्रकृति इसमें नहीं आती। कारणरूप प्रकृतिके बिना प्रकृतिका वर्णन अधूरा रह जाता है। अतः आदरणीय टीकाकारोंने पाँच स्थूल भूतोंसे सूक्ष्म पंचतन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) को लिया है, जो कि पाँच स्थूल भूतोंकी कारण हैं। 'मन' शब्दसे अहंकार लिया है, जो कि मनका कारण है। 'बुद्धि' शब्दसे महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) और 'अहंकार' शब्दसे प्रकृति ली गयी है।  "

"इस प्रकार इन आठ शब्दोंका ऐसा अर्थ लेनेसे ही समष्टि अपरा प्रकृतिका पूरा वर्णन होता है; क्योंकि इसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण- ये तीनों समष्टि शरीर आ जाते हैं। शास्त्रोंमें इसी समष्टि प्रकृतिका 'प्रकृति-विकृति' के नामसे वर्णन किया गया है*।


* मूलप्रकृतिरविकृति र्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त। षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥


(सांख्यकारिका ३)


तात्पर्य है कि मूल प्रकृति तो किसीसे पैदा नहीं होती; अतः यह किसीकी भी विकृति (कार्य) नहीं है। मूल प्रकृतिसे पैदा होनेके कारण महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ- ये सात पदार्थ 'विकृति' भी हैं और शब्दादि पाँच विषयों तथा दस इन्द्रियोंके कारण होनेसे 'प्रकृति' भी हैं अर्थात् ये सातों पदार्थ 'प्रकृति-विकृति' हैं। शब्दादि पाँच विषय, दस इन्द्रियाँ और मन- ये सोलह पदार्थ केवल 'विकृति' हैं; क्योंकि ये किसीकी भी प्रकृति (कारण) नहीं हैं अर्थात् इनसे कोई भी पदार्थ पैदा नहीं होता।


चेतन न प्रकृति है और न विकृति ही है अर्थात् यह न तो किसीका कारण है और न कार्य।


परन्तु यहाँ एक बात ध्यान देनेकी है कि भगवान् ने यहाँ अपरा और परा प्रकृतिका वर्णन 'प्रकृति-विकृति' की दृष्टिसे नहीं किया है। यदि भगवान् 'प्रकृति-विकृति' की दृष्टिसे वर्णन करते तो चेतनको प्रकृतिके नामसे कहते ही नहीं; क्योंकि चेतन न तो प्रकृति है और न विकृति है। "

"इससे सिद्ध होता है कि भगवान् ने यहाँ जड और चेतनका विभाग बतानेके लिये ही अपरा प्रकृतिके नामसे जडका और परा प्रकृतिके नामसे चेतनका वर्णन किया है। यहाँ यह आशय मालूम देता है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- इन पाँच तत्त्वोंके स्थूलरूपसे स्थूल सृष्टि ली गयी है और इनका सूक्ष्मरूप जो पंचतन्मात्राएँ कही जाती हैं, उनसे सूक्ष्मसृष्टि ली गयी है। सूक्ष्मसृष्टिके अंग मन, बुद्धि और अहंकार हैं।


अहंकार दो प्रकारका होता है- (१) 'अहं-अहं' करके अन्तःकरणकी वृत्तिका नाम भी अहंकार है, जो कि करणरूप है। यह हुई 'अपरा प्रकृति', जिसका वर्णन यहाँ चौथे श्लोकमें हुआ है और (२) 'अहम्' रूपसे व्यक्तित्व, एकदेशीयताका नाम भी अहंकार है, जो कि कर्तारूप है अर्थात् अपनेको क्रियाओंका करनेवाला मानता है। यह हुई 'परा प्रकृति', जिसका वर्णन यहाँ पाँचवें श्लोकमें हुआ है। यह अहंकार कारणशरीरमें तादात्म्यरूपसे रहता है। इस तादात्म्यमें एक जड-अंश है और एक चेतन-अंश है। इसमें जो जड-अंश है, वह कारण-शरीर है और उसमें जो अभिमान करता है, वह चेतन-अंश है। जबतक बोध नहीं होता, तबतक यह जड-चेतनके तादात्म्यवाला कारण-शरीरका 'अहम्' कर्तारूपसे निरन्तर बना रहता है। सुषुप्तिके समय यह सुप्तरूपसे रहता है अर्थात् प्रकट नहीं होता। नींदसे जगनेपर 'मैं सोया था, "

"अब जाग्रत् हुआ हूँ' इस प्रकार 'अहम्' की जागृति होती है। इसके बाद मन और बुद्धि जाग्रत् होते हैं; जैसे-मैं कहाँ हूँ, कैसे हूँ- यह मनकी जागृति हुई और मैं इस देशमें, इस समयमें हूँ- ऐसा निश्चय होना बुद्धिकी जागृति हुई। इस प्रकार नींदसे जगनेपर जिसका अनुभव होता है, वह 'अहम्' परा प्रकृति है और वृत्तिरूप जो अहंकार है, वह अपरा प्रकृति है। इस अपरा प्रकृतिको प्रकाशित करनेवाला और आश्रय देनेवाला चेतन जब अपरा प्रकृतिको अपनी मान लेता है, तब वह जीवरूप परा प्रकृति होती है- 'ययेदं धार्यते जगत्।'


अगर यह परा प्रकृति अपरा प्रकृतिसे विमुख होकर परमात्माके ही सम्मुख हो जाय, परमात्माको ही अपना माने और अपरा प्रकृतिको कभी भी अपना न माने अर्थात् अपरा प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्धरहित होकर निर्लिप्तताका अनुभव कर ले तो इसको अपने स्वरूपका बोध हो जाता है। स्वरूपका बोध हो जानेपर परमात्माका प्रेम प्रकट हो जाता है*, जो कि पहले अपरा प्रकृतिसे सम्बन्ध रखनेसे आसक्ति और कामनाके रूपमें था।


* जिस साधकमें ज्ञानमार्गका विशेष महत्त्व होता है, उसमें परमात्माका प्रेम अपने स्वरूपके आकर्षणके रूपमें प्रकट हो जायगा और जिस साधकमें भक्तिके संस्कार होते हैं, उसमें वह प्रभु-प्रेमके रूपमें प्रकट हो जायगा। यदि ज्ञानमार्गवाले साधकका आग्रह नहीं होगा तो उसमें भी प्रभु-प्रेम प्रकट हो जायगा। वास्तवमें स्वरूप-बोध होनेपर"

"ज्ञानमार्गीका आग्रह नहीं रहता; अतः उसमें प्रभु-प्रेम प्रकट हो जाता है। इस दृष्टिसे अन्तमें दोनों (भक्तियोगी और ज्ञानयोगी) एक हो जाते हैं।


वह प्रेम अनन्त, अगाध, असीम, आनन्दरूप और प्रतिक्षण वर्धमान है। उसकी प्राप्ति होनेसे यह परा प्रकृति प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाती है, अपने असंगरूपका अनुभव होनेसे ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाती है और अपरा प्रकृतिको संसारमात्रकी सेवामें लगाकर संसारसे सर्वथा विमुख होनेसे कृतकृत्य हो जाती है। यही मानव जीवनकी पूर्णता है, सफलता है।


'प्रकृतिरष्टधा अपरेयम्' पदोंसे ऐसा मालूम देता है कि यहाँ जो आठ प्रकारकी अपरा प्रकृति कही गयी है, वह 'व्यष्टि अपरा प्रकृति' है। इसका कारण यह है कि मनुष्यको व्यष्टि प्रकृति - शरीरसे ही बन्धन होता है, समष्टि प्रकृतिसे नहीं। कारण कि मनुष्य व्यष्टि शरीरके साथ अपनापन कर लेता है, जिससे बन्धन होता है।


व्यष्टि कोई अलग तत्त्व नहीं है, प्रत्युत समष्टिका ही एक क्षुद्र अंश है। समष्टिसे माना हुआ सम्बन्ध ही व्यष्टि कहलाता है अर्थात् समष्टिके अंश शरीरके साथ जीव अपना सम्बन्ध मान लेता है, तो वह समष्टिका अंश शरीर ही 'व्यष्टि' कहलाता है। व्यष्टिसे सम्बन्ध जोड़ना ही बन्धन है। इस बन्धनसे छुड़ानेके लिये भगवान् ने आठ प्रकारकी अपरा प्रकृतिका वर्णन करके कहा है कि अहंता (मैं-पन) पैदा होती है। यह अहंता ही बन्धनका कारण होती है।"

"कल के श्लोक में, हम जानेंगे कि भगवान श्रीकृष्ण आत्मा और प्रकृति के संबंध के बारे में कैसे बताते हैं। यह समझने का अवसर न चूकें।


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