ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 3 - आत्मा और अध्यात्म के महत्व
"गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"स्वागत है आपका श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञानवर्धक अध्याय में। आज हम अध्याय 7, श्लोक 3 की अद्भुत व्याख्या करेंगे। भगवान कृष्ण द्वारा दिए गए इस ज्ञान को समझने के लिए वीडियो अंत तक देखें।""
पिछले वीडियो में हमने चर्चा की थी अध्याय 7, श्लोक 2 के बारे में, जहां भगवान कृष्ण ने ज्ञान और विज्ञान की बात की। आइए आज उससे आगे बढ़ें।
अध्याय 7, श्लोक 3 में भगवान कृष्ण ने इस दुनिया के महानतम सत्य को उजागर किया है। इस श्लोक में, वे बता रहे हैं कि क्यों केवल कुछ ही व्यक्ति आध्यात्मिकता का सर्वोच्च स्तर प्राप्त कर पाते हैं। आइए इसे विस्तार से समझते हैं।"
"भगवतगीता अध्याय 7 श्लोक 3"
"भगवत्स्वरूपको तत्त्वसे जाननेवालेकी दुर्लभताका प्रतिपादन ।
(श्लोक-३)
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥
उच्चारण की विधि - मनुष्याणाम्, सहस्रेषु, कश्चित्, यतति, सिद्धये, यतताम्, अपि, सिद्धानाम्, कश्चित्, माम्, वेत्ति, तत्त्वतः ॥ ३॥
शब्दार्थ - सहस्रेषु अर्थात् हजारों, मनुष्याणाम् अर्थात् मनुष्योंमें, कश्चित् अर्थात् कोई एक, सिद्धये अर्थात् मेरी प्राप्तिके लिये, यतति अर्थात् यत्न करता है (और उन), यतताम् अर्थात् यत्न करनेवाले, सिद्धानाम् अर्थात् योगियोंमें, अपि अर्थात् भी, कश्चित् अर्थात् कोई एक (मेरे परायण होकर), माम् अर्थात् मुझको, तत्त्वतः तत्त्वसे अर्थात् यथार्थरूपसे, वेत्ति अर्थात् जानता है।
अर्थ - हजारों मनुष्योंमें कोई एक मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियोंमें भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्वसे अर्थात् यथार्थरूपसे जानता है ॥ ३॥"
"व्याख्या- 'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये हजारों मनुष्योंमें कोई एक ही मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है।
१-संख्यावाचक शब्दको यदि किसीका विशेषण बताया जाय, तो उस शब्दमें एकवचन ही होता है। यदि उसके योगमें षष्ठी की जाय तो संख्यावाचक शब्दमें तीनों वचन होते हैं। यहाँ 'मनुष्याणाम्' पदमें सहस्र संख्याके योगमें षष्ठी हुई है और 'सहस्राणि' पदमें निर्धारण अर्थमें सप्तमीका बहुवचन हुआ है। अतः 'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये' पदोंका अर्थ हुआ 'मनुष्याणां सहस्राणि भगवति रुचिं कुर्वन्ति सहस्रेषु कश्चित् सिद्धये यतति च' 'हजारों मनुष्य भगवान् में रुचि रखते हैं, पर उन हजारोंमेंसे कोई एक सिद्धिके लिये यत्न करता है।'
तात्पर्य है कि जिनमें मनुष्यपना है अर्थात् जिनमें पशुओंकी तरह खाना-पीना और ऐश-आराम करना नहीं है, वे ही वास्तवमें मनुष्य हैं। उन मनुष्योंमें भी जो नीति और धर्मपर चलनेवाले हैं, ऐसे मनुष्य हजारों हैं। उन हजारों मनुष्योंमें भी कोई एक ही सिद्धिके लिये यत्न करता है अर्थात् जिससे बढ़कर कोई लाभ नहीं, जिसमें दुःखका लेश भी नहीं और आनन्दकी किंचिन्मात्र भी कमी नहीं, कमीकी सम्भावना ही नहीं - ऐसे स्वतःसिद्ध नित्यतत्त्वकी प्राप्तिके लिये यत्न करता है।
२-स्वर्ग आदि लोकोंकी और अणिमा, महिमा, गरिमा आदि सिद्धियोंकी प्राप्ति वास्तवमें सिद्धि है ही नहीं, प्रत्युत वह तो असिद्धि ही है; जो परलोकमें स्वर्ग आदिकी प्राप्ति नहीं चाहता और इस लोकमें धन, मान, भोग, कीर्ति आदि नहीं चाहता "
"अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंमें नहीं अटकता और भोगे हुए भोगोंके तथा मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिके संस्कार रहनेसे उन विषयोंका संग होनेपर, उन विषयोंमें रुचि होते रहनेपर भी जो अपनी मान्यता, उद्देश्य, विचार, सिद्धान्त आदिसे विचलित नहीं होता- ऐसा कोई एक पुरुष ही सिद्धिके लिये यत्न करता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धिके लिये यत्न करनेवाले अर्थात् दृढ़तासे उधर लगनेवाले बहुत कम मनुष्य होते हैं।
परमात्मप्राप्तिकी तरफ न लगनेमें कारण है-भोग और संग्रहमें लगना। सांसारिक भोग-पदार्थोंमें केवल आरम्भमें ही सुख दीखता है। मनुष्य प्रायः तत्काल सुख देनेवाले साधनोंमें ही लगते हैं। उनका परिणाम क्या होगा- इसपर वे विचार करते ही नहीं। अगर वे भोग और ऐश्वर्यके परिणामपर विचार करने लग जायँ कि 'भोग और संग्रहके अन्तमें कुछ नहीं मिलेगा, रीते रह जायँगे और उनकी प्राप्तिके लिये किये हुए पाप-कर्मोंके फलस्वरूप चौरासी लाख योनियों तथा नरकोंके रूपमें दुःख-ही-दुःख मिलेगा', तो वे परमात्माके साधनमें लग जायँगे। दूसरा कारण यह है कि प्रायः लोग सांसारिक भोगोंमें ही लगे रहते हैं। उनमेंसे कुछ लोग संसारके भोगोंसे ऊँचे उठते भी हैं तो वे परलोकके स्वर्ग आदि भोग-भूमियोंकी प्राप्तिमें लग जाते हैं। परन्तु अपना कल्याण हो जाय, परमात्माकी प्राप्ति हो जाय ऐसा दृढ़तासे विचार करके परमात्माकी तरफ लगनेवाले लोग बहुत कम होते हैं। इतिहासमें भी देखते हैं तो सकामभावसे तपस्या आदि साधन करनेवालोंके ही चरित्र विशेष आते हैं। "
"कल्याणके लिये तत्परतासे साधन करनेवालोंके चरित्र बहुत ही कम आते हैं।
वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत इधर सच्ची लगनसे तत्परतापूर्वक लगनेवाले बहुत कम हैं। इधर दृढ़तासे न लगनेमें संयोगजन्य सुखकी तरफ आकृष्ट होना और परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये भविष्यकी आशा रखना ही खास कारण है।
३-परमात्मा सब देशमें, सब कालमें, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें, सब वस्तुओंमें, सब घटनाओंमें, सब परिस्थितियोंमें और सम्पूर्ण क्रियाओंमें स्वतः परिपूर्णरूपसे मौजूद हैं; अतः उनकी प्राप्तिमें भविष्यका कोई कारण ही नहीं है। परमात्मतत्त्व कर्मजन्य नहीं है। जो वस्तु कर्मजन्य होती है, वह भविष्यमें मिलती है। कारण कि जो वस्तु कर्मजन्य होती है, वह उत्पत्ति-विनाशवाली होती है और उसमें देश, कालकी दूरी होती है; अतः उसीके लिये भविष्य होता है। मनुष्य यह विचार करे कि परमात्मा सब देशमें हैं तो यहाँ भी हैं, जब यहाँ हैं तो कहीं जानेकी जरूरत नहीं। परमात्मा सब समयमें हैं तो अभी भी हैं, जब अभी हैं, तो भविष्य क्यों ? परमात्मा सबमें हैं तो मेरेमें भी हैं, जब मेरेमें हैं तो दूसरे किसीमें खोजनेकी पराधीनता नहीं। परमात्मा सबके हैं, तो मेरे भी हैं; जब मेरे हैं तो मेरेको अत्यन्त प्यारे होने ही चाहिये; क्योंकि अपनी चीज सबको प्यारी होती ही है। साथ-ही-साथ परमात्मा सर्वोत्कृष्ट हैं अर्थात् उनसे बढ़कर कोई है ही नहीं - ऐसा विश्वास होनेपर स्वतः ही मन खिंचेगा।"
"उपर्युक्त बातोंपर दृढ़ विश्वास हो जाय तो परमात्माकी आशा भविष्यका अवलम्बन करनेवाली नहीं होती; किन्तु परमात्माको तत्काल प्राप्त करनेकी उत्कण्ठा हो जाती है। प्रायः लोग इस (तीसरे) श्लोकको तत्त्वकी कठिनता बतानेवाला मानते हैं। परन्तु वास्तवमें यह श्लोक तत्त्वकी कठिनताके विषयमें नहीं है; क्योंकि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन नहीं है, प्रत्युत तत्त्वप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा होना और अभिलाषाकी पूर्तिके लिये तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंका मिलना दुर्लभ है, कठिन है। यहाँ भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि 'मैं कहूँगा और तू जानेगा', तो अर्जुन-जैसा अपने श्रेयका प्रश्न करनेवाला और भगवान्-जैसा सर्वज्ञ कहनेवाला मिलना दुर्लभ है। वास्तवमें देखा जाय तो केवल उत्कट अभिलाषा होना ही दुर्लभ है। कारण कि अभिलाषा होनेपर उसको जनानेकी जिम्मेवारी भगवान् पर आ जाती है।
यहाँ 'तत्त्वतः' कहनेका तात्पर्य है कि वह मेरे सगुण- निर्गुण, साकार-निराकार, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य, विष्णु आदि रूपोंमें प्रकट होनेवाले और समय-समयपर तरह-तरहके अवतार लेनेवाले मुझको तत्त्वसे जान लेता है अर्थात् उसके जाननेमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता और उसके अनुभवमें एक परमात्मतत्त्वके सिवाय संसारकी किंचिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती।
परिशिष्ट भाव-कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि जितने साधन हैं, उन साधनोंसे (यत्न करते हुए) जो सिद्ध हो चुके हैं, ऐसे जीवन्मुक्त ज्ञानी महापुरुषोंमें भी 'सब कुछ भगवान् ही हैं'- "
"इस प्रकार भगवान् के समग्ररूपको यथार्थरूपसे अनुभव करनेवाले प्रेमी भक्त दुर्लभ हैं * (इसी अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) ।
* धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ॥ सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया ॥ (मानस, उत्तर० ५४।३-४)
'यततामपि सिद्धानाम्' - वे सिद्ध अर्थात् जीवन्मुक्त पुरुष अपनी स्थिति (मुक्तावस्था) से असन्तुष्ट हैं और उनके भीतर परमप्रेम (अनन्तरस) को प्राप्त करनेकी उत्कण्ठा है, भूख है। इसलिये ब्रह्मसूत्रमें आया है-'मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात्' (१।३।२) 'उस प्रेमस्वरूप भगवान् को मुक्त पुरुषोंके लिये भी प्राप्तव्य बताया गया है'। कारण यह है कि मुक्त होनेपर नाशवान् रसकी कामना तो मिट जाती है, पर अनन्तरसकी भूख नहीं मिटती। वह भूख भगवान् की कृपासे ही जाग्रत् होती है। तात्पर्य है कि जो भगवान् पर श्रद्धा-विश्वास रखते हुए साधन करते हैं, जिनके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, उनको भगवान् ज्ञानमें सन्तुष्ट नहीं होने देते, उसमें टिकने नहीं देते और उनकी मुक्तिके रसको फीका कर देते हैं।
सिद्ध (मुक्त) तो कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी आदि सभी हो सकते हैं, पर भगवान् के समग्ररूपको जाननेवाले सब नहीं होते। अतः 'यततामपि सिद्धानाम्' पदोंका तात्पर्य है कि वे यत्न करते हुए अपनी पद्धतिसे सिद्ध तो हो गये, पर मेरे समग्ररूपको नहीं जान सके ! कारण कि मेरे समग्ररूपको पराभक्तिसे ही जाना जा सकता है - ' भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ' (गीता १८।५५)।"
"कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ' - यहाँ 'माम्' पद समग्र परमात्माका वाचक है। भगवान् के समग्ररूपको भगवान् की कृपासे ही जाना जा सकता है, विचारसे नहीं (गीता - दसवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक) । अर्जुनने भी गीता सुननेके बाद भगवान् से कहा है कि आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया और स्मृति प्राप्त हो गयी - 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत' (१८। ७३)। जैसे दूध पिलाते समय गाय अपने बछड़ेको स्नेहपूर्वक चाटती है तो उससे बछड़ेकी जो पुष्टि होती है, वह केवल दूध पीनेसे नहीं होती। ऐसे ही भगवान् की कृपासे जो ज्ञान होता है, वह अपने विचारसे नहीं होता; क्योंकि विचार करनेमें स्वयंकी सत्ता रहती है।
केवल निर्गुणको जाननेवाला परमात्माको तत्त्वसे नहीं जानता, प्रत्युत सगुण-निर्गुण दोनोंको (समग्रको) जाननेवाला ही परमात्माको तत्त्वसे जानता है। कर्मयोगसे 'शान्त आनन्द' (शान्ति) की प्राप्ति होती है, क्योंकि संसारके साथ सम्बन्ध होनेसे ही अशान्ति होती है। कर्मयोगसे संसारका सम्बन्ध विच्छेद होनेसे शान्ति प्राप्त हो जाती है- 'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' (गीता १२। १२)। ज्ञानयोगसे 'अखण्ड आनन्द' की प्राप्ति होती है। अखण्ड आनन्दको 'निजानन्द' भी कहते हैं; क्योंकि यह अपने स्वरूपका आनन्द है। निजानन्दमें जीवका ब्रह्मके साथ साधर्म्य हो जाता है अर्थात् जैसे ब्रह्म सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है, ऐसे ही जीव भी सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हो जाता है- 'मम साधर्म्यमागताः' (गीता १४। २)। "
"यद्यपि निजानन्दकी प्राप्ति होनेपर साधकमें कोई कमी नहीं रहती, फिर भी जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं और भगवान् की कृपाका आश्रय है, उसको निजानन्दमें सन्तोष नहीं होता।
१-जो मुक्त हो जाता है, उसको तो स्वाभाविक ही सन्तोष हो जाता है, पर जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, उसको सन्तोष नहीं होता।
कारण कि भक्तिके संस्कारवालेपर भगवान् विशेष कृपा करते हैं और उसको कहीं अटकने नहीं देते।
उसके भीतर 'अनन्त आनन्द' की भूख रहती है। अतः भक्तियोगसे 'अनन्त आनन्द' की प्राप्ति होती है। निजानन्द तो अंश (स्वरूप) का आनन्द है, पर अनन्त आनन्द अंशी (भगवान्) का आनन्द है। यह सिद्धान्त है कि वस्तुके आकर्षणमें जो सुख होता है, वह सुख वस्तुके ज्ञानमें नहीं होता। जैसे, रुपयोंके लोभमें जो सुख मिलता है, वह रुपयोंका ज्ञान होनेसे नहीं मिलता। रुपयोंका ज्ञान होनेसे उनका उपयोग करना तो आ जायगा, पर विशेष आकर्षण नहीं होगा। 'और मिले, और मिले'- यह आकर्षण तो लोभ होनेसे ही होगा। रुपयोंका सुख तो लोभरूप दोषके कारण दीखता है, वास्तवमें है नहीं, पर भगवान् का आनन्द निर्दोष प्रेमके कारण है, जो वास्तवमें है। कारण कि भगवान् का ही अंश होनेसे जीवमें अंशी-(भगवान्) का आकर्षण स्वतः है। यह सिद्धान्त है कि अंशका अंशीकी तरफ स्वतः आकर्षण होता है;
जैसे-पृथ्वीका अंश होनेसे ऊपर फेंका गया पत्थर स्वतः पृथ्वीकी तरफ खिंचता है, अग्नि स्वतः सूर्यकी तरफ (ऊपर) खिंचती है नदियाँ स्वतः समुद्रकी तरफ खिंचती हैं, आदि।"
"२-यहाँ शंका हो सकती है कि रातको सूर्य नहीं रहता, फिर भी अग्नि रातको ऊपरकी तरफ क्यों जाती है ? इसका समाधान है कि रात हो या दिन, सूर्य कहीं भी रहे, वह सदा पृथ्वीसे ऊपर ही रहता है। इसलिये जैसे भारतके लोग सूर्यको पृथ्वीसे ऊपर देखते हैं, ऐसे ही (पृथ्वीमण्डलपर भारतसे लगभग विपरीत दिशामें स्थित) अमेरिकाके लोग भी सूर्यको ऊपर ही देखते हैं।
हमें भगवान् की आवश्यकता क्यों है ? - इसपर विचार करें तो मालूम होता है कि हमारी कोई ऐसी आवश्यकता है, जिसको हम न तो अपने द्वारा पूरी कर सकते हैं और न संसारके द्वारा ही पूरी कर सकते हैं। दुःखोंका नाश करनेके लिये और परमशान्तिको प्राप्त करनेके लिये हमें भगवान् की आवश्यकता नहीं है। कारण कि अगर हम कामनाओंका सर्वथा त्याग कर दें तो स्वतः हमारे दुःखोंका नाश होकर परमशान्तिकी प्राप्ति हो जायगी –'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' अर्थात् हम मुक्त हो जायँगे। हमें परमप्रेमकी प्राप्तिके लिये ही भगवान् की आवश्यकता है; क्योंकि हम भगवान् के ही अंश हैं।
जो मनुष्य सांसारिक दुःखोंसे छूटना चाहता है, पराधीनतासे छूटकर स्वाधीन होना चाहता है, उसकी मुक्ति हो जाती है। परन्तु जो मनुष्य संसारसे दुःखी होकर ऐसा सोचता है कि कोई तो अपना होता, जो मेरेको अपनी शरण लेकर, अपने गले लगाकर मेरे दुःख, सन्ताप, पाप, अभाव, भय, नीरसता आदिको हर लेता, उसको भक्ति प्राप्त हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि मुक्ति पानेके लिये ईश्वरकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत भक्ति पानेके लिये ईश्वरकी आवश्यकता है। "
"जब मनुष्य इस बातको जान लेता है कि इतने बड़े संसारमें, अनन्त ब्रह्माण्डोंमें कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत जिसके एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, वही अपना है, तब उसके भीतर भगवान् की आवश्यकताका अनुभव होता है। कारण कि अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें। जो कभी हमारेसे अलग न हो और हम कभी उससे अलग न हों। ऐसी वस्तु भगवान् ही हो सकते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब मनुष्यको भगवान् की आवश्यकता है, तो फिर भगवान् मिलते क्यों नहीं ? इसका कारण यह है कि मनुष्य भगवान् की प्राप्तिके बिना सुख-आरामसे रहता है, वह अपनी आवश्यकताको भूले रहता है। वह मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ्यमें ही सन्तोष कर लेता है। अगर वह भगवान् की आवश्यकताका अनुभव करे, उनके बिना चैनसे न रह सके तो भगवान् की प्राप्तिमें देरी नहीं है। कारण कि जो नित्यप्राप्त है, उसकी प्राप्तिमें क्या देरी ? भगवान् कोई वृक्ष तो हैं नहीं कि आज बोयेंगे और वर्षोंके बाद फल मिलेगा ! वे तो सब देशमें, सब समयमें, सब वस्तुओंमें, सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियोंमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं। हम ही उनसे विमुख हुए हैं, वे हमसे कभी विमुख नहीं हुए।
सम्बन्ध-दूसरे श्लोकमें भगवान् ने ज्ञान-विज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा की थी। उस प्रतिज्ञाके अनुसार अब भगवान् ज्ञान-विज्ञान कहनेका उपक्रम करते हैं।"
"कल के वीडियो में हम अध्याय 7, श्लोक 4 पर चर्चा करेंगे, जहां भगवान कृष्ण इस सृष्टि की संरचना और प्रकृति के रहस्यों का वर्णन करेंगे। जुड़े रहें। आज का श्लोक हमें यह सिखाता है कि आत्मा और अध्यात्म का गूढ़ ज्ञान प्राप्त करना सरल नहीं है। अपने विचार नीचे कमेंट करें और चैनल सब्सक्राइब करना न भूलें।
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