भगवान श्रीकृष्ण का दिव्य ज्ञान | गीता अध्याय 7 श्लोक 10 | गीता सार हिंदी में

 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 10 - ईश्वर ही संपूर्ण सृष्टि के आधार

#BhagavadGita


"नमस्कार, आपका स्वागत है इस विशेष गीता ज्ञान सत्र में।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा – ‘मैं इस समस्त ब्रह्मांड की आत्मा हूँ, सबका आधार हूँ।’""

क्या आप जानते हैं कि हम जिस ऊर्जा से संचालित होते हैं, उसका वास्तविक स्रोत कौन है? आज के इस वीडियो में हम जानेंगे भगवद गीता के अध्याय 7 के श्लोक 10 की गहराई।"


"कल के श्लोक में हमने जाना कि श्रीकृष्ण इस जगत के सभी तत्वों के स्रोत हैं।

उन्होंने बताया कि जड़ और चेतन प्रकृति उन्हीं से उत्पन्न होती है।


आज के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं कि मैं सभी प्राणियों में जीवनी शक्ति का मूल स्रोत हूँ।

इसका क्या अर्थ है? और हम इसे अपने जीवन में कैसे अपना सकते हैं? आइए जानते हैं!"

"श्री हरि 


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

"श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 7 

श्लोक 10"



"बीजादिरूपसे सम्पूर्ण भूतोंमें अपनी व्यापकताका कथन ।


(श्लोक-१०)


बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥ 


उच्चारण की विधि - बीजम्, माम्, सर्वभूतानाम्, विद्धि, पार्थ, सनातनम्, बुद्धिः, बुद्धिमताम्, अस्मि, तेजः, तेजस्विनाम्, अहम् ॥ १० ॥


शब्दार्थ - पार्थ अर्थात् हे अर्जुन ! (तू), सर्वभूतानाम् अर्थात् सम्पूर्ण भूतोंका, सनातनम् अर्थात् सनातन, बीजम् अर्थात् बीज, माम् अर्थात् मुझको (ही), विद्धि अर्थात् जान, अहम् अर्थात् मैं, बुद्धिमताम् अर्थात् बुद्धिमानोंकी, बुद्धिः अर्थात् बुद्धि (और), तेजस्विनाम् अर्थात् तेजस्वियोंका, तेजः अर्थात् तेज, अस्मि अर्थात् हूँ।


अर्थ - हे अर्जुन ! तू सम्पूर्ण भूतोंका सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्धिमानोंकी बुद्धि और तेजस्वियोंका तेज हूँ ॥ १० ॥"

"व्याख्या- 'बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि * पार्थ सनातनम्' - हे पार्थ ! सम्पूर्ण प्राणियोंका सनातन (अविनाशी) बीज मैं हूँ अर्थात् सबका कारण मैं ही हूँ। * इसी अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान् ने 'उपधारय' कहा और यहाँ 'विद्धि' कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि मात्र संसारमें साररूपसे मैं ही हूँ-इस बातको समझो और समझकर धारण करो। समझकर धारण करनेसे असली प्रेम जाग्रत् हो जाता है।


सम्पूर्ण प्राणी बीजरूप मेरेसे उत्पन्न होते हैं, मेरेमें ही रहते हैं और अन्तमें मेरेमें ही लीन होते हैं। मेरे बिना प्राणीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।


जितने बीज होते हैं, वे सब वृक्षसे उत्पन्न होते हैं और वृक्ष पैदा करके नष्ट हो जाते हैं। परन्तु यहाँ जिस बीजका वर्णन है, वह बीज 'सनातन' है अर्थात् आदि-अन्तसे रहित (अनादि एवं अनन्त) है। इसीको नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें 'अव्यय बीज' कहा गया है। यह चेतन-तत्त्व अव्यय अर्थात् अविनाशी है। यह स्वयं विकाररहित रहते हुए ही सम्पूर्ण जगत् का उत्पादक, आश्रय और प्रकाशक है तथा जगत् का कारण है।


गीतामें 'बीज' शब्द कहीं भगवान् और कहीं जीवात्मा - दोनोंके लिये आया है। यहाँ जो 'बीज' शब्द आया है, वह भगवान् का वाचक है; क्योंकि यहाँ कारणरूपसे विभूतियोंका वर्णन है। "

"दसवें अध्यायके उनतालीसवें श्लोकमें विभूतिरूपसे आया 'बीज' शब्द भी भगवान् का ही वाचक है; क्योंकि वहाँ उनको सम्पूर्ण प्राणियोंका कारण कहा गया है। नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें 'बीज' शब्द भगवान् के लिये आया है; क्योंकि उसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें 'सदसच्चाहमर्जुन' पदमें कहा गया है कि कार्य और कारण सब मैं ही हूँ।  सब कुछ भगवान् ही होनेसे 'बीज' शब्द भगवान् का वाचक है। चौदहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें 'अहं बीजप्रदः पिता' 'मैं बीज प्रदान करनेवाला पिता हूँ' - ऐसा होनेसे वहाँ 'बीज' शब्द जीवात्माका वाचक है। 'बीज' शब्द जीवात्माका वाचक तभी होता है, जब यह जडके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, नहीं तो यह भगवान् का स्वरूप ही है।


'बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि ' - बुद्धिमानोंमें बुद्धि मैं हूँ।


बुद्धिके कारण ही वे बुद्धिमान् कहलाते हैं। अगर उनमें बुद्धि न रहे तो उनकी बुद्धिमान् संज्ञा ही नहीं रहेगी।


'तेजस्तेजस्विनामहम् ' - तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ। यह तेज दैवी-सम्पत्तिका एक गुण है। तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंमें एक विशेष तेज - शक्ति रहती है, जिसके प्रभावसे दुर्गुण-दुराचारी मनुष्य भी सद्गुण-सदाचारी बन जाते हैं। यह तेज भगवान् का ही स्वरूप है।"

"विशेष बात


भगवान् ही सम्पूर्ण संसारके कारण हैं, संसारके रहते हुए भी वे सबमें परिपूर्ण हैं और सब संसारके मिटनेपर भी वे रहते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सब कुछ भगवान् ही हैं।इसके लिये उपनिषदोंमें सोना, मिट्टी और लोहेका दृष्टान्त दिया गया है कि जैसे सोनेसे बने हुए सब गहने सोना ही हैं, मिट्टीसे बने हुए सब बर्तन मिट्टी ही हैं और लोहेसे बने हुए सब अस्त्र-शस्त्र लोहा ही हैं, ऐसे ही भगवान् से उत्पन्न हुआ सब संसार भगवान् ही है। परन्तु गीतामें भगवान् ने बीजका दृष्टान्त दिया है कि सम्पूर्ण संसारका बीज मैं हूँ। बीज वृक्षसे पैदा होता है और वृक्षको पैदा करके स्वयं नष्ट हो जाता है अर्थात् बीजसे अंकुर निकल आता है, अंकुरसे वृक्ष हो जाता है और बीज स्वयं मिट जाता है। परन्तु भगवान् ने अपनेको संसारमात्रका बीज कहते हुए भी यह एक विलक्षण बात बतायी कि मैं अनादि बीज हूँ, पैदा हुआ बीज नहीं हूँ- 'बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्' (७। १०), और मैं अविनाशी बीज हूँ- 'बीजमव्ययम्' (९। १८)। अविनाशी बीज कहनेका मतलब यह है कि संसार मेरेसे पैदा हो जाता है, पर मैं मिटता नहीं हूँ, जैसा-का-तैसा ही रहता हूँ। सोना, मिट्टी और लोहेके दृष्टान्तमें गहनोंमें सोना दीखता है, "

"बर्तनोंमें मिट्टी दीखती है और अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा दीखता है, पर संसारमें परमात्मा दीखते नहीं। अगर बीजका दृष्टान्त लें तो वृक्षमें बीज नहीं दीखता। जब वृक्षमें बीज आता है, तब पता लगता है कि इस वृक्षमें ऐसा बीज है, जिससे यह वृक्ष पैदा हुआ है। सम्पूर्ण वृक्ष बीजसे ही निकलता है और बीजमें ही समाप्त हो जाता है। वृक्षका आरम्भ बीजसे होता है और अन्त भी बीजमें ही होता है अर्थात् वह वृक्ष चाहे सौ वर्षोंतक रहे, पर उसकी अन्तिम परिणति बीजमें ही होगी, बीजके सिवाय और क्या होगा ? ऐसे ही भगवान् संसारके बीज हैं अर्थात् भगवान् से ही संसार उत्पन्न होता है और भगवान् में ही लीन हो जाता है। अन्तमें एक भगवान् ही बाकी रहते हैं - 'शिष्यते शेषसंज्ञः' (श्रीमद्भा० १०।३।२५)।


वृक्ष दीखते हुए भी 'यह बीज ही है' - ऐसा जो जानते हैं, वे वृक्षको ठीक-ठीक जानते हैं और जो बीजको न देखकर केवल वृक्षको देखते हैं, वे वृक्षके तत्त्वको नहीं जानते। भगवान् यहाँ 'बीजं मां सर्वभूतानाम्' कहकर सबको यह ज्ञान कराते हैं कि तुम्हारेको जितना यह संसार दीखता है, इसके पहले मैं ही था, मैं एक ही प्रजारूपसे बहुत रूपोंमें प्रकट हुआ हूँ- 'बहु स्यां प्रजायेय' (छान्दोग्य० ६ । २। ३) और इनके समाप्त होनेपर मैं ही रह जाता हूँ। "

"तात्पर्य है कि पहले मैं ही था और पीछे मैं ही रहता हूँ तो बीचमें भी मैं ही हूँ।


यह संसार पांचभौतिक भी उन्हींको दीखता है, जो विचार करते हैं, नहीं तो यह पांचभौतिक भी नहीं दीखता। जैसे कोई कह दे कि ये अपने सब-के-सब शरीर पार्थिव (पृथ्वीसे पैदा होनेवाले) हैं, इसलिये इनमें मिट्टीकी प्रधानता है तो दूसरा कहेगा कि ये मिट्टी कैसे हैं? मिट्टीसे तो हाथ धोते हैं, मिट्टी तो रेता होती है; अतः ये शरीर मिट्टी नहीं हैं। इस तरह शरीर मिट्टी होता हुआ भी उसको मिट्टी नहीं दीखता। परन्तु यह जितना संसार दीखता है, इसको जलाकर राख कर दिया जाय तो अन्तमें एक मिट्टी ही हो जाता है।


विचार करें कि इन शरीरोंके मूलमें क्या है? माँ-बापमें जो रज-वीर्यरूप अंश होता है, जिससे शरीर बनता है, वह अंश अन्नसे पैदा होता है। अन्न मिट्टीसे पैदा होता है। अतः ये शरीर मिट्टीसे ही पैदा होते हैं और अन्तमें मिट्टीमें ही लीन हो जाते हैं। अन्तमें शरीरकी तीन गतियाँ होती हैं - चाहे जमीनमें गाड़ दिया जाय, चाहे जला दिया जाय और चाहे पशु-पक्षी खा जायँ। तीनों ही उपायोंसे वह अन्तमें मिट्टी हो जाता है। इस तरह पहले और आखिरमें मिट्टी होनेसे बीचमें भी शरीर या संसार मिट्टी ही है। "

"परन्तु बीचमें यह शरीर या संसार देखनेमें मिट्टी नहीं दीखता। विचार करनेसे ही मिट्टी दीखता है, आँखोंसे नहीं। इसी तरह यह संसार विचार करनेसे परमात्मस्वरूप दीखता है। विचार करें तो जब भगवान् ने यह संसार रचा तो कहींसे कोई सामान नहीं मँगवाया, जिससे संसारको बनाया हो और बनानेवाला भी दूसरा नहीं हुआ है। भगवान् आप ही संसारको बनानेवाले हैं और आप ही संसार बन गये। शरीरोंकी रचना करके आप ही उनमें प्रविष्ट हो गये – 'तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्' (तैत्तिरीयोपनिषद् २। ६)। इन शरीरोंमें जीवरूपसे भी वे ही परमात्मा हैं। अतः यह संसार भी परमात्माका स्वरूप ही है।


परिशिष्ट भाव - अपनेको सम्पूर्ण प्राणियोंका बीज कहनेका तात्पर्य यह है कि सब प्राणियोंके रूपमें मैं ही हूँ। सृष्टि अनन्त है। अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त जीव हैं। परन्तु उन अनन्त जीवोंका बीज (परमात्मा) एक ही है। अनन्त सृष्टि पैदा होनेपर भी उस बीजमें कोई फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि वह अव्यय है- 'बीजमव्ययम्' (गीता ९। १८)। उस एक ही बीजसे अनेक प्रकारकी सृष्टि उत्पन्न होती है (गीता - दसवें अध्यायका उनतालीसवाँ श्लोक)। बीजको कितनी ही सूक्ष्म दृष्टिसे देखें, उसमें फल-फूल-पत्ते आदि नहीं दीखेंगे; क्योंकि वे उस बीजमें कारणरूपसे विद्यमान हैं। "

"उस बीजसे पैदा होनेवाले वृक्षके दो पत्ते भी आपसमें नहीं मिलते - यह अनेकता भी उस एक बीजमें ही रहती है।


सृष्टिकी एक-एक वस्तुमें अनेक भेद हैं। विभिन्न देशोंमें मनुष्योंकी अनेक जातियाँ हैं। उनमें भी इतना भेद है कि दो मनुष्योंके अँगूठेकी रेखाएँ भी परस्पर नहीं मिलतीं। उनके रूप, स्वभाव, रुचि, प्रकृति, मान्यता, भाव आदि भी परस्पर नहीं मिलते। गाय, भैंस, भेंड़, बकरी, घोड़ा, ऊँट, कुत्ता आदिकी अनेक जातियाँ हैं और उनकी एक-एक जातिमें भी अनेक भेद हैं। वृक्षोंमें भी एक-एक वृक्षकी अनेक जातियाँ होती हैं। एक-एक विद्याको देखें तो उसमें इतने भेद हैं कि उनका अन्त नहीं आता। मूल रंग तीन हैं, पर उनके मिश्रणसे अनेक रंग बन जाते हैं। उनमें भी एक-एक रंगमें इतने भेद हैं कि दो व्यक्तियोंको भी एक रंग समानरूपसे नहीं दीखता। इस प्रकार सृष्टिमें एक समान दीखनेवाली दो चीजें भी वास्तवमें समान नहीं होतीं। इतनी अनेकता होनेपर भी सृष्टिका बीज एक ही है। "

"तात्पर्य है कि एक ही भगवान् अनेक रूपोंमें प्रकट होते हैं और अनेक रूपोंमें प्रकट होनेपर भी एक ही रहते हैं।


१-प्राणियोंमें अनेकता होनेपर भी उनमें परस्पर प्रेमकी एकता होनी चाहिये। जैसे काँटा पैरमें गड़ता है, पर आँसू नेत्रोंमें आते हैं, ऐसा ही भाव सम्पूर्ण प्राणियोंमें रहना चाहिये- 'सर्वभूतहिते रताः' (गीता ५। २५, १२। ४)। एकमात्र प्रेम ही ऐसी चीज है, जिसमें कोई भेद नहीं रहता। प्रेमका भेद नहीं कर सकते। प्रेममें सब एक हो जाते हैं। ज्ञानमें तत्त्वभेद तो नहीं रहता, पर मतभेद रहता है। प्रेममें मतभेद भी नहीं रहता। अतः प्रेमसे आगे कुछ भी नहीं है। प्रेमसे त्रिलोकीनाथ भगवान् भी वशमें हो जाते हैं।


भगवान् देश, काल आदि सभी दृष्टियोंसे अनन्त हैं। जब भगवान् की बनायी हुई सृष्टिका भी अन्त नहीं आ सकता तो फिर भगवान् का अन्त आ ही कैसे सकता है? 


आजतक भगवान् के विषयमें जो कुछ सोचा गया है, जो कुछ कहा गया है, जो कुछ लिखा गया है, जो कुछ माना गया है, वह पूरा-का-पूरा मिलकर भी अधूरा है। इतना ही नहीं, भगवान् भी अपने विषयमें पूरी बात नहीं कह सकते, अगर कह दें तो अनन्त कैसे रहेंगे ?"

"कल के श्लोक में हम जानेंगे कि श्रीकृष्ण बल और शुद्धता का भी मूल स्रोत कैसे हैं।

तो जुड़े रहिए और इसे मिस न करें!


भगवद गीता का ज्ञान हमें जीवन की सच्चाई को समझने में मदद करता है।

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कल फिर मिलते हैं एक नए श्लोक के साथ! 🚩


जय श्रीकृष्ण! 🙏"


दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं! याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें. बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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