ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 27 - ध्यान के माध्यम से शांति और आत्म-साक्षात्कार

 


"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहां हम गहराई से समझते हैं भगवद् गीता के श्लोक और उनके संदेश। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 के श्लोक 27 की, जो ध्यान और आत्म-साक्षात्कार की यात्रा को विस्तार से बताता है। तो, अंत तक बने रहें और इस दिव्य ज्ञान का लाभ उठाएं।


पिछले वीडियो में हमने चर्चा की थी अध्याय 6 के श्लोक 26 की, जिसमें ध्यान में मन को स्थिर रखने की प्रक्रिया को समझाया गया था।


आज के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं कि ध्यान के माध्यम से कैसे मनुष्य आत्म-साक्षात्कार और परम शांति को प्राप्त कर सकता है। यह श्लोक ध्यान के लाभ और उसके प्रभाव पर आधारित है।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 27"

"ध्यानयोगसे उत्तम और अत्यन्त सुखकी प्राप्ति। (श्लोक-२७)


प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् । उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ।।


उच्चारण की विधि - प्रशान्तमनसम्, हि, एनम्, योगिनम्, सुखम्, उत्तमम्, उपैति, शान्तरजसम्, ब्रह्मभूतम्, अकल्मषम् ॥ २७ ॥


शब्दार्थ - हि अर्थात् क्योंकि, प्रशान्तमनसम् अर्थात् जिसका मन भली प्रकार शान्त है, अकल्मषम् अर्थात् जो पापसे रहित है (और), शान्तरजसम् अर्थात् जिसका रजोगुण शान्त हो गया है (ऐसे), एनम् अर्थात् इस, ब्रह्मभूतम् अर्थात् सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके साथ एकीभाव हुए, योगिनम् अर्थात् योगीको, उत्तमम् अर्थात् उत्तम, सुखम् अर्थात् आनन्द, उपैति अर्थात् प्राप्त होता है।


अर्थ - क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शान्त है, जो पापसे रहित है और जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके साथ एकीभाव हुए योगीको उत्तम आनन्द प्राप्त होता है ॥ २७ ॥"

"व्याख्या - 'प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् । उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् '- जिसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये हैं अर्थात् तमोगुण और तमोगुणकी अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह (गीता-चौदहवें अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)- ये वृत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं, ऐसे योगीको यहाँ 'अकल्मषम्' कहा गया है।  


जिसका रजोगुण और रजोगुणकी लोभ, प्रवृत्ति, नये-नये कर्मोंमें लगना, अशान्ति और स्पृहा (गीता - चौदहवें अध्यायका बारहवाँ श्लोक) - ये वृत्तियाँ शान्त हो गयी हैं, ऐसे योगीको यहाँ 'शान्तरजसम्' बताया गया है।


तमोगुण, रजोगुण तथा उनकी वृत्तियाँ शान्त होनेसे जिसका मन स्वाभाविक शान्त हो गया है अर्थात् जिसकी मात्र प्राकृत पदार्थोंसे तथा संकल्प-विकल्पोंसे भी उपरति हो गयी है, ऐसे स्वाभाविक शान्त मनवाले योगीको यहाँ 'प्रशान्तमनसम्' कहा गया है।


'प्रशान्त' कहनेका तात्पर्य है कि ध्यानयोगी जबतक मनको अपना मानता है, तबतक मन अभ्याससे शान्त तो हो सकता है, पर प्रशान्त अर्थात् सर्वथा शान्त नहीं हो सकता। "

"परन्तु जब ध्यानयोगी मनसे भी उपराम हो जाता है अर्थात् मनको भी अपना नहीं मानता, मनसे भी सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, तब मनमें राग-द्वेष न होनेसे उसका मन स्वाभाविक ही शान्त हो जाता है।


पचीसवें श्लोकमें जिसकी उपरामताका वर्णन किया गया है, वही (उपराम होनेसे) पापरहित, शान्त रजोगुणवाला और प्रशान्त मनवाला हुआ है। अतः उस योगीके लिये यहाँ 'एनम्' पद आया है। ऐसे ब्रह्मस्वरूप ध्यानयोगीको स्वाभाविक ही उत्तम सुख अर्थात् सात्त्विक सुख प्राप्त होता है। 


पहले तेईसवें श्लोकके उत्तरार्धमें जिस योगका निश्चयपूर्वक अभ्यास करनेकी आज्ञा दी गयी थी- 'स निश्चयेन योक्तव्यः' उस योगका अभ्यास करनेवाले योगीको निश्चित ही उत्तम सुखकी प्राप्ति हो जायगी, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है। इस निःसन्दिग्धताको बतानेके लिये यहाँ 'हि' पदका प्रयोग हुआ है।


'सुखमुपैति' कहनेका तात्पर्य है कि जो योगी सबसे उपराम हो गया है, उसको उत्तम सुखकी खोज नहीं करनी पड़ती, उस सुखकी प्राप्तिके लिये उद्योग, परिश्रम आदि नहीं करने पड़ते, प्रत्युत वह उत्तम सुख उसको स्वतः- स्वाभाविक ही प्राप्त हो जाता है।"

"कल के वीडियो में हम चर्चा करेंगे अध्याय 6 के श्लोक 28 की, जहां भगवान ध्यान और योग की गहराइयों को और विस्तार से समझाएंगे।


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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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