ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 26 - ध्यानमग्न योगी का रहस्य!

 

"श्री हरि

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
"नमस्ते दोस्तों! आज के वीडियो में हम श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 6 के श्लोक 26 को समझने वाले हैं, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने ध्यान और आत्मसंयम का मार्ग दिखाया है। अगर आप ध्यानमग्न योगी बनना चाहते हैं, तो यह वीडियो आपके लिए है।

पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6, श्लोक 25 को समझा था, जिसमें मन की स्थिरता और आत्मसंयम का महत्व बताया गया था।

आज के श्लोक में, भगवान श्रीकृष्ण हमें सिखाते हैं कि कैसे हमारा मन इधर-उधर भटकने से रोका जा सकता है और ध्यान की शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। ध्यान और संयम का यह पाठ हर किसी के लिए बेहद उपयोगी है।"

"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 26"

"मनको परमात्माकी तरफ लगानेकी प्रेरणा। (श्लोक-२६)

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ 

उच्चारण की विधि - यतः, यतः, निश्चरति, मनः, चञ्चलम्, अस्थिरम्, ततः, ततः, नियम्य, एतत्, आत्मनि, एव, वशम्, नयेत् ॥ २६ ॥

शब्दार्थ -  एतत् अर्थात् यह, अस्थिरम् अर्थात् स्थिर न रहनेवाला (और), चञ्चलम् अर्थात् चंचल, मनः अर्थात् मन, यतः यतः अर्थात् जिस-जिस (शब्दादि विषयके निमित्तसे संसारमें), निश्चरति अर्थात् विचरता है, ततः ततः अर्थात् उस-उस (विषयसे), नियम्य अर्थात् रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार, आत्मनि अर्थात् परमात्मामें, एव अर्थात् ही, वशम् अर्थात् निरुद्ध, नयेत् अर्थात् करे।

अर्थ - यह स्थिर न रहनेवाला और चञ्चल मन जिस-जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसारमें विचरता है, उस-उस विषयसे रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मामें ही निरुद्ध करे ॥ २६ ॥"
"व्याख्या- 'यतो यतो निश्चरति ..... आत्मन्येव वशं नयेत्'- साधकने जो ध्येय बनाया है, उसमें यह मन टिकता नहीं, ठहरता नहीं। अतः इसको अस्थिर कहा गया है। यह मन तरह-तरहके सांसारिक भोगोंका, पदार्थोंका चिन्तन करता है। अतः इसको 'चंचल' कहा गया है।

तात्पर्य है कि यह मन न तो परमात्मामें स्थिर होता है और न संसारको ही छोड़ता है। इसलिये साधकको चाहिये कि यह मन जहाँ-जहाँ जाय, जिस-जिस कारणसे जाय, जैसे- जैसे जाय और जब-जब जाय, इसको वहाँ-वहाँसे, उस-उस कारणसे वैसे-वैसे और तब-तब हटाकर परमात्मामें लगाये। इस अस्थिर और चंचल मनका नियमन करनेमें सावधानी रखे, ढिलाई न करे।

मनको परमात्मामें लगानेका तात्पर्य है कि जब यह पता लगे कि मन पदार्थोंका चिन्तन कर रहा है, तभी ऐसा विचार करे कि चिन्तनकी वृत्ति और उसके विषयका आधार और प्रकाशक परमात्मा ही हैं। यही परमात्मामें मन लगाना है।

परमात्मामें मन लगानेकी युक्तियाँ

(१) मन जिस किसी इन्द्रियके विषयमें, जिस किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदिमें चला जाय अर्थात् उसका चिन्तन करने लग जाय, उसी समय उस विषय आदिसे मनको हटाकर अपने ध्येय - परमात्मामें लगाये। फिर चला जाय तो फिर लाकर परमात्मामें लगाये। इस प्रकार मनको बार-बार अपने ध्येयमें लगाता रहे।"
"(२) जहाँ-जहाँ मन जाय, वहाँ-वहाँ ही परमात्माको देखे। जैसे गंगाजी याद आ जायँ, तो गंगाजीके रूपमें परमात्मा ही हैं, गाय याद आ जाय, तो गायरूपसे परमात्मा ही हैं- इस तरह मनको परमात्मामें लगाये। दूसरी दृष्टिसे, गंगाजी आदिमें सत्तारूपसे परमात्मा-ही-परमात्मा हैं; क्योंकि इनसे पहले भी परमात्मा ही थे, इनके मिटनेपर भी परमात्मा ही रहेंगे और इनके रहते हुए भी परमात्मा ही हैं- इस तरह मनको परमात्मामें लगाये।

(३) साधक जब परमात्मामें मन लगानेका अभ्यास करता है, तब संसारकी बातें याद आती हैं। इससे साधक घबरा जाता है कि जब मैं संसारका काम करता हूँ, तब इतनी बातें याद नहीं आतीं, इतना चिन्तन नहीं होता; परन्तु जब परमात्मामें मन लगानेका अभ्यास करता हूँ, तब मनमें तरह- तरहकी बातें याद आने लगती हैं! पर ऐसा समझकर साधकको घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि जब साधकका उद्देश्य परमात्माका बन गया, तो अब संसारके चिन्तनके रूपमें भीतरसे कूड़ा-कचरा निकल रहा है, भीतरसे सफाई हो रही है। तात्पर्य है कि सांसारिक कार्य करते समय भीतर जमा हुए पुराने संस्कारोंको बाहर निकलनेका मौका नहीं मिलता। इसलिये सांसारिक कार्य छोड़कर एकान्तमें बैठनेसे उनको बाहर निकलनेका मौका मिलता है और वे बाहर निकलने लगते हैं।"
"(४) साधकको भगवान् का चिन्तन करनेमें कठिनता इसलिये पड़ती है कि वह अपनेको संसारका मानकर भगवान् का चिन्तन करता है। अतः संसारका चिन्तन स्वतः होता है और भगवान् का चिन्तन करना पड़ता है, फिर भी चिन्तन होता नहीं। इसलिये साधकको चाहिये कि वह भगवान् का होकर भगवान् का चिन्तन करे। तात्पर्य है कि 'मैं तो केवल भगवान् का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं; मैं शरीर-संसारका नहीं हूँ और शरीर-संसार मेरे नहीं हैं'- इस तरह भगवान् के साथ सम्बन्ध होनेसे भगवान् का चिन्तन स्वाभाविक ही होने लगेगा, चिन्तन करना नहीं पड़ेगा।

(५) ध्यान करते समय साधकको यह खयाल रखना चाहिये कि मनमें कोई कार्य जमा न रहे अर्थात् 'अमुक कार्य करना है, अमुक स्थानपर जाना है, अमुक व्यक्तिसे मिलना है, अमुक व्यक्ति मिलनेके लिये आनेवाला है, तो उसके साथ बातचीत भी करनी है' आदि कार्य जमा न रखे।

इन कार्योंके संकल्प ध्यानको लगने नहीं देते। अतः ध्यानमें शान्तचित्त होकर बैठना चाहिये।

(६) ध्यान करते समय कभी संकल्प-विकल्प आ जायें, तो 'अड़ंग बड़ंग स्वाहा' - ऐसा कहकर उनको दूर कर दे अर्थात् 'स्वाहा' कहकर संकल्प-विकल्प (अड़ंग-बड़ंग) की आहुति दे दे।

(७) सामने देखते हुए पलकोंको कुछ देर बार-बार शीघ्रतासे झपकाये और फिर नेत्र बंद कर ले। पलकें झपकानेसे जैसे बाहरका दृश्य कटता है, ऐसे ही भीतरके संकल्प-विकल्प भी कट जाते हैं।"
"(८) पहले नासिकासे श्वासको दो-तीन बार जोरसे बाहर निकाले और फिर अन्तमें जोरसे (फुंकारके साथ) पूरे श्वासको बाहर निकालकर बाहर ही रोक दे। जितनी देर श्वास रोक सके, उतनी देर रोककर फिर धीरे-धीरे श्वास लेते हुए स्वाभाविक श्वास लेनेकी स्थितिमें आ जाय। इससे सभी संकल्प-विकल्प मिट जाते हैं।

परिशिष्ट भाव - यदि पूर्वश्लोकके अनुसार चुप-साधन न कर सके तो मन जहाँ-जहाँ जाय, वहाँ-वहाँसे हटाकर उसको एक परमात्मामें लगाये। मनको परमात्मामें लगानेका एक बहुत श्रेष्ठ साधन है कि मन जहाँ-जहाँ जाय, वहाँ-वहाँ परमात्माको ही देखे अथवा मनमें जो-जो चिन्तन आये, उसको परमात्माका ही स्वरूप समझे।

एक मार्मिक बात है कि जबतक साधक एक परमात्माकी सत्ताके सिवाय दूसरी सत्ता मानेगा, तबतक उसका मन सर्वथा निरुद्ध नहीं हो सकता। कारण कि जबतक अपनेमें दूसरी सत्ताकी मान्यता है, तबतक रागका सर्वथा नाश नहीं हो सकता और रागका सर्वथा नाश हुए बिना मन सर्वथा निर्विषय नहीं हो सकता। रागके रहते हुए मनका सीमित निरोध होता है, जिससे लौकिक सिद्धियोंकी प्राप्ति होती है, वास्तविक तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती। दूसरी सत्ताकी मान्यता रहते हुए जो मन निरुद्ध होता है, उसमें व्युत्थान होता है अर्थात् उसमें समाधि और व्युत्थान- ये दो अवस्थाएँ होती हैं। कारण कि दूसरी सत्ता माने बिना दो अवस्थाएँ सम्भव ही नहीं हैं। अतः मनका सर्वथा निरोध दूसरी सत्ता न माननेसे ही होगा।

सम्बन्ध-चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें जिस ध्यानयोगीकी उपरतिका वर्णन किया गया, आगेके दो श्लोकोंमें उसकी अवस्थाका वर्णन करते हुए उसके साधनका फल बताते हैं।"

"कल के वीडियो में हम अध्याय 6, श्लोक 27 पर चर्चा करेंगे, जहां भगवान श्रीकृष्ण ध्यान के फलस्वरूप मिलने वाली शांति और आनंद का वर्णन करते हैं।

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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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