ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 24 - मानसिक शांति का मार्ग
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"
"नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आपका हमारे चैनल पर!
आज हम भगवद गीता के अध्याय 6 के श्लोक 24 पर चर्चा करेंगे। ध्यान और मानसिक शांति का मार्ग जानने के लिए इस वीडियो को अंत तक देखें। चलिए शुरू करते हैं!
पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6 के श्लोक 23 पर चर्चा की थी, जहां इच्छाओं पर विजय और आत्मनियंत्रण का महत्व बताया गया।
आज के श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को ध्यान और योग की प्रक्रिया में गहराई से प्रवेश करने का निर्देश देते हैं। यह श्लोक मानसिक शांति और ध्यान का सही मार्गदर्शन प्रदान करता है।"
"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 24"
"अभेदरूपसे परमात्माके ध्यानकी विधि ।
(श्लोक-२४)
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्-त्यक्त्वा सर्वानशेषतः । मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
उच्चारण की विधि - - सङ्कल्पप्रभवान्, कामान्, त्यक्त्वा, सर्वान्, अशेषतः, मनसा, एव, इन्द्रियग्रामम्, विनियम्य, समन्ततः ॥ २४ ॥
शब्दार्थ - सङ्कल्पप्रभवान् अर्थात् संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली, सर्वान् अर्थात् सम्पूर्ण, कामान् अर्थात् कामनाओंको, अशेषतः अर्थात् निःशेषरूपसे, त्यक्त्वा अर्थात् त्यागकर (और), मनसा अर्थात् मनके द्वारा, इन्द्रियग्रामम् अर्थात् इन्द्रियोंके समुदायको, समन्ततः एव अर्थात् सभी ओरसे, विनियम्य अर्थात् भलीभाँति रोककर।
अर्थ - संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंको निःशेषरूपसे त्यागकर और मनके द्वारा इन्द्रियोंके समुदायको सभी ओरसे भलीभाँति रोककर-॥ २४॥"
"व्याख्या [जो स्थिति कर्मफलका त्याग करनेवाले कर्मयोगीकी होती है (छठे अध्यायके पहलेसे नवें श्लोकतक), वही स्थिति सगुण-साकार भगवान् का ध्यान करनेवालेकी (छठे अध्यायका चौदहवाँ-पन्द्रहवाँ श्लोक) तथा अपने स्वरूपका ध्यान करनेवाले ध्यानयोगीकी भी होती है (छठे अध्यायके अठारहवेंसे तेईसवें श्लोकतक)। अब निर्गुण-निराकारका ध्यान करनेवालेकी भी वही स्थिति होती है- यह बतानेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण कहते हैं।
'सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ' - सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, देश, काल, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर मनमें जो तरह-तरहकी स्फुरणाएँ होती हैं, उन स्फुरणाओंमेंसे जिस स्फुरणामें प्रियता, सुन्दरता और आवश्यकता दीखती है, वह स्फुरणा 'संकल्प' का रूप धारण कर लेती है। ऐसे ही जिस स्फुरणामें 'ये वस्तु, व्यक्ति आदि बड़े खराब हैं, ये हमारे उपयोगी नहीं हैं'- ऐसा विपरीत भाव पैदा हो जाता है, वह स्फुरणा भी 'संकल्प' बन जाती है। संकल्पसे 'ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं चाहिये'- यह 'कामना' उत्पन्न होती है। इस प्रकार संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।
यहाँ 'कामान्' पद बहुवचनमें आया है, फिर भी इसके साथ 'सर्वान्' पद देनेका तात्पर्य है कि कोई भी और किसी भी तरहकी कामना नहीं रहनी चाहिये।"
"अशेषतः' पदका तात्पर्य है कि कामनाका बीज (सूक्ष्म संस्कार) भी नहीं रहना चाहिये। कारण कि वृक्षके एक बीजसे ही मीलोंतकका जंगल पैदा हो सकता है। अतः बीजरूप कामनाका भी त्याग होना चाहिये।
समन्ततः ' - जिन 'मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य इन्द्रियोंसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-इन विषयोंका अनुभव होता है, भोग होता है, उन इन्द्रियोंके समूहका मनके द्वारा अच्छी तरहसे नियमन कर ले अर्थात् मनसे इन्द्रियोंको उनके अपने-अपने विषयोंसे हटा ले।
'समन्ततः' कहनेका तात्पर्य है कि मनसे शब्द, स्पर्श आदि विषयोंका चिन्तन न हो और सांसारिक मान, बड़ाई, आराम आदिकी तरफ किंचिन्मात्र भी खिंचाव न हो।
तात्पर्य है कि ध्यानयोगीको इन्द्रियों और अन्तःकरणके द्वारा प्राकृत पदार्थोंसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेदका निश्चय कर लेना चाहिये।
परिशिष्ट भाव - पहले स्फुरणा होती है, फिर संकल्प होता है। स्फुरणामें सत्ता, आसक्ति और आग्रह होनेसे वह संकल्प हो जाता है, जो बन्धनकारक होता है। संकल्पसे फिर कामना उत्पन्न होती है। 'स्फुरणा' दर्पणके काँचकी तरह है, जिसमें चित्र पकड़ा नहीं जाता। परन्तु 'संकल्प' कैमरेके काँचकी तरह है, जिसमें चित्र पकड़ा जाता है। साधकको सावधानी रखनी चाहिये कि स्फुरणा तो हो, पर संकल्प न हो।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग एवं इन्द्रियोंका निग्रह करनेके निश्चयकी बात कही। अब कामनाओंका त्याग और इन्द्रियोंका निग्रह कैसे करें- इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
"कल हम श्लोक 25 पर चर्चा करेंगे, जिसमें ध्यान की और भी गहराई से व्याख्या की गई है। इसे मिस न करें!
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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