ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 23 - सच्ची शांति और मुक्ति का मार्ग

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका हमारी भगवद गीता की श्रृंखला में। आज हम अध्याय 6 के श्लोक 23 की चर्चा करेंगे, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि कैसे एक योगी सभी दुखों से परे आत्मिक शांति प्राप्त कर सकता है। जुड़ें हमारे साथ इस गहरे आध्यात्मिक अनुभव में।


पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6, श्लोक 22 के माध्यम से आत्मा की संतुष्टि और स्थायी शांति का रहस्य समझा।


आज के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्ची शांति और मुक्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है। यह ज्ञान आपके जीवन में गहरा आत्मिक संतुलन लाएगा।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 23"

"(श्लोक-२३)


तत्परतापूर्वक ध्यानयोगके अनुष्ठानका कथन


तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्जितम्। स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥


उच्चारण की विधि - तम्, विद्यात्, दुःखसंयोगवियोगम्, योगसञ्जितम्, सः, निश्चयेन, योक्तव्यः, योगः, अनिर्विण्णचेतसा ॥ २३ ॥


शब्दार्थ -  - दुःखसंयोगवियोगम् अर्थात् दुःखरूप संसारके संयोगसे रहित है (तथा), योगसञ्जितम् अर्थात् जिसका नाम योग है, तम् अर्थात् उसको, विद्यात् अर्थात् जानना चाहिये, सः अर्थात् वह, योगः अर्थात् योग, अनिर्विण्णचेतसा अर्थात् न उकताये हुए अर्थात् धैर्य और उत्साहयुक्त चित्तसे, निश्चयेन अर्थात् निश्चयपूर्वक, योक्तव्यः अर्थात् करना कर्तव्य है।


अर्थ - जो दुःखरूप संसारके संयोगसे रहित है तथा जिसका नाम योग है; उसको जानना चाहिये। वह योग न उकताये हुए अर्थात् धैर्य और उत्साहयुक्त चित्तसे निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है॥ २३॥"

"व्याख्या-'तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्जितम्'- जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं और होना सम्भव ही नहीं, ऐसे दुःखरूप संसार-शरीरके साथ सम्बन्ध मान लिया, यही 'दुःखसंयोग' है। यह दुःखसंयोग 'योग' नहीं है। अगर यह योग होता अर्थात् संसारके साथ हमारा नित्य-सम्बन्ध होता, तो इस दुःखसंयोगका कभी वियोग (सम्बन्ध विच्छेद) नहीं होता। परन्तु बोध होनेपर इसका वियोग हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि दुःखसंयोग केवल हमारा माना हुआ है, हमारा बनाया हुआ है, स्वाभाविक नहीं है। इससे कितनी ही दृढ़तासे संयोग मान लें और कितने ही लम्बे कालतक संयोग मान लें, तो भी इसका कभी संयोग नहीं हो सकता। अतः हम इस माने हुए आगन्तुक दुःखसंयोगका वियोग कर सकते हैं। इस दुःखसंयोग (शरीर-संसार-) का वियोग करते ही स्वाभाविक 'योग' की प्राप्ति हो जाती है अर्थात् स्वरूपके साथ हमारा जो नित्ययोग है, उसकी हमें अनुभूति हो जाती है। स्वरूपके साथ नित्ययोगको ही यहाँ 'योग' समझना चाहिये।  


यहाँ दुःखरूप संसारके सर्वथा वियोगको 'योग' कहा गया है। इससे यह असर पड़ता है कि अपने स्वरूपके साथ पहले हमारा वियोग था, अब योग हो गया। परन्तु ऐसी बात नहीं है। स्वरूपके साथ हमारा नित्ययोग है। दुःखरूप संसारके संयोगका तो आरम्भ और अन्त होता है तथा संयोगकालमें भी संयोगका आरम्भ और अन्त होता रहता है। "

"परन्तु इस नित्ययोगका कभी आरम्भ और अन्त नहीं होता। 

कारण कि यह योग मन, बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थोंसे नहीं होता, प्रत्युत इनके सम्बन्ध विच्छेदसे होता है। यह नित्ययोग स्वतःसिद्ध है। इसमें सबकी स्वाभाविक स्थिति है। परन्तु अनित्य संसारसे सम्बन्ध मानते रहनेके कारण इस नित्ययोगकी विस्मृति हो गयी है। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्ययोगकी स्मृति हो जाती है। इसीको अर्जुनने अठारहवें अध्यायके तिहत्तरवें श्लोकमें 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा' कहा है। अतः यह योग नया नहीं हुआ है, प्रत्युत जो नित्ययोग है, उसीकी अनुभूति हुई है।


भगवान् ने यहाँ 'योगसञ्जितम्' पद देकर दुःखके संयोगके वियोगका नाम 'योग' बताया है और दूसरे अध्यायमें 'समत्वं योग उच्यते' कहकर समताको ही 'योग' बताया है। यहाँ साध्यरूप समताका वर्णन है और वहाँ (दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें) साधनरूप समताका वर्णन है। ये दोनों बातें तत्त्वतः एक ही हैं; क्योंकि साधनरूप समता ही अन्तमें साध्यरूप समतामें परिणत हो जाती है।


पतंजलि महाराजने चित्तवृत्तियोंके निरोधको 'योग' कहा है - 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' (योगदर्शन १। २) और चित्तवृत्तियोंका निरोध होनेपर द्रष्टाकी स्वरूपमें स्थिति बतायी है- 'तदा द्रष्टः स्वरूपेऽवस्थानम्' (१। ३)। परन्तु यहाँ भगवान् ने 'तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्जितम्' पदोंसे द्रष्टाकी स्वरूपमें स्थितिको ही 'योग' कहा है, जो स्वतः सिद्ध है।"

"यहाँ 'तम्' कहनेका क्या तात्पर्य है? अठारहवें श्लोकमें योगीके लक्षण बताकर उन्नीसवें श्लोकमें दीपकके दृष्टान्तसे उसके अन्तःकरणकी स्थितिका वर्णन किया गया। उस ध्यानयोगीका चित्त जिस अवस्थामें उपराम हो जाता है, उसका संकेत बीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें 'यत्र' पदसे किया और जब उस योगीकी स्थिति परमात्मामें हो जाती है, उसका संकेत श्लोकके उत्तरार्धमें 'यत्र' पदसे किया। इक्कीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें 'यत्' पदसे उस योगीके आत्यन्तिक सुखकी महिमा कही और उत्तरार्धमें 'यत्र' पदसे उसकी अवस्थाका संकेत किया। बाईसवें श्लोकके पूर्वार्धमें 'यम्' पदसे उस योगीके लाभका वर्णन किया और उत्तरार्धमें उसी लाभको 'यस्मिन्' पदसे कहा। इस तरह बीसवें श्लोकसे बाईसवें श्लोकतक छः बार 'यत् शब्दका प्रयोग करके योगीकी जो विलक्षण स्थिति बतायी गयी है, उसीका यहाँ 'तम्' पदसे संकेत करके उसकी महिमा कही गयी है।


* यत्र, यम्, यस्मिन् - ये तीनों 'यत्' शब्दसे ही बने हुए हैं।


'स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ' - जिसमें दुःखोंके संयोगका ही अभाव है, ऐसे योग- (साध्यरूप समता) का उद्देश्य रखकर साधकको न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक ध्यानयोगका अभ्यास करना चाहिये, जिसका इसी अध्यायके अठारहवेंसे बीसवें श्लोकतक वर्णन हुआ है। योगका अनुभव करनेके लिये सबसे पहले साधकको अपनी बुद्धि एक निश्चयवाली बनानी चाहिये अर्थात् 'मेरेको तो योगकी ही प्राप्ति करनी है' ऐसा एक निश्चय करना चाहिये। "

"ऐसा निश्चय करनेपर संसारका कितना ही प्रलोभन आ जाय, कितना ही भयंकर कष्ट आ जाय, तो भी उस निश्चयको नहीं छोड़ना चाहिये।


'अनिर्विण्णचेतसा' का तात्पर्य है कि समय बहुत लग गया, पुरुषार्थ बहुत किया, पर सिद्धि नहीं हुई ! इसकी सिद्धि कब होगी ? कैसे होगी ? - इस तरह कभी उकताये नहीं।


साधकका भाव ऐसा रहे कि चाहे कितने ही वर्ष लग जायँ, कितने ही जन्म लग जायँ, कितने ही भयंकर-से-भयंकर दुःख आ जायँ, तो भी मेरेको तत्त्वको प्राप्त करना ही है। साधकके मनमें स्वतः स्वाभाविक ऐसा विचार आना चाहिये कि मेरे अनेक जन्म हुए, पर वे सब के सब निरर्थक चले गये; उनसे कुछ भी लाभ नहीं हुआ। अनेक बार नरकोंके कष्ट भोगे, पर उनको भोगनेसे भी कुछ नहीं मिला अर्थात् केवल पूर्वके पाप नष्ट हुए, पर परमात्मा नहीं मिले। अब यदि इस जन्मका सारा-का- सारा समय, आयु और पुरुषार्थ परमात्माकी प्राप्तिमें लग जाय, तो कितनी बढ़िया बात है !


परिशिष्ट भाव - सांसारिक संयोगका विभाग अलग है और योगका विभाग अलग है। 'संयोग' उसके साथ होता है, जिसके साथ हम सदा नहीं रह सकते और जो हमारे साथ सदा नहीं रह सकता। 'योग' उसके साथ होता है, जिसके साथ हम सदा रह सकते हैं और जो हमारे साथ सदा रह सकता है। इसलिये संसारमें एक-दूसरेके साथ संयोग होता है और परमात्माके साथ योग होता है। संसारका योग नहीं है और परमात्माका वियोग नहीं है अर्थात् संसार हमें मिला हुआ नहीं है और परमात्मा हमारेसे अलग नहीं है। "

"संसारको मिला हुआ मानना और परमात्माको अलग मानना - यही अज्ञान है, यही मनुष्यकी सबसे बड़ी भूल है। संसारके संयोगका तो वियोग होता ही है, पर परमात्माके योगका कभी वियोग होता ही नहीं।


मनुष्य चाहता है संयोग, पर हो जाता है वियोग, इसलिये संसार दुःखरूप है- 'दुःखालयमशाश्वतम्' (गीता ८। १५)। कुछ चाहना रहनेसे ही दुःखोंका संयोग होता है। कुछ भी चाहना न रहे तो दुःखोंका संयोग नहीं होता, प्रत्युत परमात्माके साथ योग होता है। परमात्माके साथ जीवका योग अर्थात् सम्बन्ध नित्य है। इस स्वतःसिद्ध नित्ययोगका ही नाम 'योग' है। वह नित्ययोग सब देशमें है, सब कालमें है, सब क्रियाओंमें है, सब वस्तुओंमें है, सब व्यक्तियोंमें है, सब अवस्थाओंमें है, सब परिस्थितियोंमें है, सब घटनाओंमें है। तात्पर्य है कि इस नित्ययोगका कभी वियोग हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं। परन्तु असत् (शरीर) के साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेसे इस नित्ययोगका अनुभव नहीं होता। दुःखरूप असत् के साथ माने हुए संयोगका वियोग (सम्बन्ध-विच्छेद) होते ही इस नित्ययोगका अनुभव हो जाता है। यही गीताका मुख्य योग है और इसी योगका अनुभव करनेके लिये गीताने कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि साधनोंका वर्णन किया है। परन्तु इन साधनोंको 'योग' तभी कहा जायगा, जब असत् से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्माके साथ नित्य सम्बन्धका अनुभव होगा।


योगकी परिभाषा भगवान् ने दो प्रकारसे की है- (१) समताका नाम योग है- 'समत्वं योग उच्यते' (२। ४८)।"

"(२) दुःखरूप संसारके संयोगके वियोगका नाम योग है - 'तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्जितम्' (६। २३)।


चाहे समता कह दें, चाहे संसारके संयोगका वियोग कह दें, दोनों एक ही हैं। तात्पर्य है कि समतामें स्थिति होनेपर संसारके संयोगका वियोग हो जायगा और संसारके संयोगका वियोग होनेपर समतामें स्थिति हो जायगी। दोनोंमेंसे कोई एक होनेपर नित्ययोगकी प्राप्ति हो जायगी। परन्तु सूक्ष्मदृष्टिसे देखें तो 'तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्जितम्' पहली स्थिति है और 'समत्वं योग उच्यते' बादकी स्थिति है, जिसमें नैष्ठिकी शान्ति, परमशान्ति अथवा आत्यन्तिक सुखकी प्राप्ति है।


समताकी प्राप्ति भी स्वतः हो रही है और दुःखोंकी निवृत्ति भी स्वतः हो रही है। प्राप्ति उसीकी होती है, जो नित्यप्राप्त है और निवृत्ति उसीकी होती है, जो नित्यनिवृत्त है। नित्यप्राप्तकी प्राप्तिका नाम भी योग है और नित्यनिवृत्तकी निवृत्तिका नाम भी योग है। वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके संयोगसे होनेवाले जितने भी सुख हैं, वे सब दुःखोंके कारण अर्थात् दुःख पैदा करनेवाले हैं (गीता - पाँचवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)। अतः संयोगमें ही दुःख होता है, वियोगमें नहीं। वियोग (संसारसे सम्बन्ध विच्छेद) में जो सुख है, उस सुखका वियोग नहीं होता, क्योंकि वह नित्य है। जब संयोगमें भी वियोग है और वियोगमें भी वियोग है तो वियोग ही नित्य हुआ। इस नित्य वियोगको ही गीता 'योग' कहती है।"

"परमात्मतत्त्व 'है' रूप और संसार 'नहीं' रूप है। एक मार्मिक बात है कि 'है' को देखनेसे शुद्ध 'है' नहीं दीखता, पर 'नहीं' को 'नहीं' रूपसे देखनेपर शुद्ध 'है' दीखता है! कारण कि 'है' को देखनेमें मन-बुद्धि लगायेंगे, वृत्ति लगायेंगे तो 'है' के साथ वृत्तिरूप 'नहीं' भी मिला रहेगा। परन्तु 'नहीं' को 'नहीं' रूपसे देखनेपर वृत्ति भी 'नहीं' में चली जायगी और शुद्ध 'है' शेष रह जायगा; जैसे- कूड़ा-करकट दूर करनेपर उसके साथ झाडूका भी त्याग हो जाता है और मकान शेष रह जाता है। तात्पर्य है कि 'परमात्मा सबमें परिपूर्ण हैं'- इसका मनसे चिन्तन करनेपर, बुद्धिसे निश्चय करनेपर वृत्तिके साथ हमारा सम्बन्ध बना रहेगा। परन्तु 'संसारका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है' - इस प्रकार संसारको अभावरूपसे देखनेपर संसार और वृत्ति-दोनोंसे सम्बन्ध- विच्छेद हो जायगा और भावरूप शुद्ध परमात्मतत्त्व स्वतः शेष रह जायगा।


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकके पूर्वार्धमें भगवान् ने जिस योग (साध्यरूप समता) का वर्णन किया था, उसी योगकी प्राप्तिके लिये अब आगेके श्लोकसे निर्गुण-निराकारके ध्यानका प्रकरण आरम्भ करते हैं।"

कल के श्लोक 24 में हम जानेंगे कि इच्छाओं को त्यागकर योग और ध्यान में कैसे स्थिरता लाई जा सकती है।

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

Comments

Popular posts from this blog

📖 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 8, श्लोक 22 "परम सत्य की प्राप्ति का मार्ग"

📖 श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय 8, श्लोक 27 "ज्ञान और मोक्ष के मार्ग को समझना"

ईश्वर-अर्जुन संवाद: अंतिम क्षण में क्या स्मरण करें? (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 8, श्लोक 6)