ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 22 - आत्मा की संतुष्टि और शांति का रहस्य

 

"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||"

"नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका हमारी भगवद गीता श्रृंखला में। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 6, श्लोक 22 की, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण आत्मा की अद्भुत शांति और स्थिरता का ज्ञान देते हैं। जुड़े रहें इस आत्मज्ञान के सफर में।


पिछले वीडियो में हमने अध्याय 6, श्लोक 21 के माध्यम से समझा कि सच्चा योगी वही है, जो बाहरी भोगों से स्वतंत्र होकर आत्मा में संतोष पाता है।


आज के श्लोक में हम जानेंगे कि कैसे यह संतोष और शांति हमारे जीवन को पूर्णता प्रदान कर सकता है।"


"॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 22"

"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ 


उच्चारण की विधि - यम्, लब्ध्वा, च, अपरम्, लाभम्, मन्यते, न, अधिकम्, ततः, यस्मिन्, स्थितः, न, दुःखेन, गुरुणा, अपि, विचाल्यते ॥ २२ ॥


शब्दार्थ - यम् अर्थात् जिस, लाभम् अर्थात् लाभको, लब्ध्वा अर्थात् प्राप्त होकर, ततः अर्थात् उससे, अधिकम् अर्थात् अधिक, अपरम् अर्थात् दूसरा (कुछ भी लाभ), न मन्यते अर्थात् नहीं मानता, च अर्थात् और (परमात्मप्राप्तिरूप), यस्मिन् अर्थात् जिस अवस्थामें, स्थितः अर्थात् स्थित (योगी), गुरुणा अर्थात् बड़े भारी, दुःखेन अर्थात् दुःखसे, अपि अर्थात् भी, न विचाल्यते अर्थात् चलायमान नहीं होता।


अर्थ - परमात्माकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता ॥ २२ ॥"

"व्याख्या- 'यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ' - मनुष्यको जो सुख प्राप्त है, उससे अधिक सुख दीखता है तो वह उसके लोभमें आकर विचलित हो जाता है। जैसे, किसीको एक घंटेके सौ रुपये मिलते हैं। अगर  उतने ही समयमें दूसरी जगह हजार रुपये मिलते हों, तो वह सौ रुपयोंकी स्थितिसे विचलित हो जायगा और हजार रुपयोंकी स्थितिमें चला जायगा। निद्रा, आलस्य और प्रमादका तामस सुख प्राप्त होनेपर भी जब विषयजन्य सुख ज्यादा अच्छा लगता है, उसमें अधिक सुख मालूम देता है, तब मनुष्य तामस सुखको छोड़कर विषयजन्य सुखकी तरफ लपककर चला जाता है। ऐसे ही जब वह विषयजन्य सुखसे ऊँचा उठता है, तब वह सात्त्विक सुखके लिये विचलित हो जाता है और जब सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठता है, तब वह आत्यन्तिक सुखके लिये विचलित हो जाता है। परन्तु जब आत्यन्तिक सुख प्राप्त हो जाता है, तो फिर वह उससे विचलित नहीं होता; क्योंकि आत्यन्तिक सुखसे बढ़कर दूसरा कोई सुख, कोई लाभ है ही नहीं। आत्यन्तिक सुखमें सुखकी हद हो जाती है। ध्यानयोगीको जब ऐसा सुख मिल जाता है, तो फिर वह इस सुखसे विचलित हो ही कैसे सकता है ?


'यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते' - विचलित होनेका दूसरा कारण है कि लाभ तो अधिक होता हो, पर साथमें महान् दुःख हो, तो मनुष्य उस लाभसे विचलित हो जाता है। जैसे, हजार रुपये मिलते हों, पर साथमें प्राणोंका भी खतरा हो, तो मनुष्य हजार रुपयोंसे विचलित हो जाता है। "

"ऐसे ही मनुष्य जिस किसी स्थितिमें स्थित होता है, वहाँ कोई भयंकर आफत आ जाती है, तो  मनुष्य उस स्थितिको छोड़ देता है। परन्तु यहाँ भगवान् कहते हैं कि आत्यन्तिक सुखमें स्थित होनेपर योगी बड़े-से- बड़े दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता। जैसे, किसी कारणसे उसके शरीरको फाँसी दे दी जाय, शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायँ, आपसमें भिड़ते दो पहाड़ोंके बीचमें शरीर दबकर पिस जाय, जीते-जी शरीरकी चमड़ी उतारी जाय, शरीरमें तरह-तरहके छेद किये जायँ, उबलते हुए तेलमें शरीरको डाला जाय - इस तरहके गुरुतर, महान् भयंकर दुःखोंके एक साथ आनेपर भी वह विचलित नहीं होता।


वह विचलित क्यों नहीं किया जा सकता ? कारण कि जितने भी दुःख आते हैं, वे सभी प्रकृतिके राज्यमें अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिमें ही आते हैं, जब कि आत्यन्तिक सुख, स्वरूप-बोध प्रकृतिसे अतीत तत्त्व है। परन्तु जब पुरुष प्रकृतिस्थ हो जाता है अर्थात् शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह प्रकृतिजन्य अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिमें अपनेको सुखी-दुःखी मानने लग जाता है (गीता-तेरहवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक) । जब वह प्रकृतिसे सम्बन्ध- विच्छेद करके अपने स्वरूपभूत सुखका अनुभव कर लेता है, उसमें स्थित हो जाता है, तो फिर यह प्राकृतिक दुःख वहाँतक पहुँच ही नहीं सकता, उसका स्पर्श ही नहीं कर सकता। इसलिये शरीरमें कितनी ही आफत आनेपर भी वह अपनी स्थितिसे विचलित नहीं किया जा सकता।"

"परिशिष्ट भाव - यह श्लोक सभी साधनोंकी कसौटी है। कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि किसी भी साधनसे यह कसौटी प्राप्त होनी चाहिये। अपनी स्थिति समझनेके लिये यह श्लोक साधकके लिये बहुत उपयोगी है। जीवमात्रका ध्येय यही रहता है कि मेरा दुःख मिट जाय और सुख मिल जाय। अतः इस श्लोकमें वर्णित स्थिति साधकमात्रको प्राप्त करनी चाहिये, अन्यथा उसकी साधना पूर्ण नहीं हुई। साधक बीचमें अटक न जाय, अपनी अधूरी स्थितिको ही पूर्ण न मान ले, इसके लिये उसको यह श्लोक सामने रखना चाहिये।


जिसमें लाभका तो अन्त नहीं और दुःखका लेश भी नहीं - ऐसा दुर्लभ पद मनुष्यमात्रको मिल सकता है! परन्तु वह भोग और संग्रहमें लगकर कितना अनर्थ कर लेता है, जिसका कोई पारावार नहीं !


सम्बन्ध-जिस सुखकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक लाभकी सम्भावना नहीं रहती और जिसमें स्थित होनेपर बड़ा भारी दुःख भी विचलित नहीं करता, ऐसे सुखकी प्राप्तिके लिये आगेके श्लोकमें प्रेरणा करते हैं।"

कल के श्लोक 23 में हम ध्यान की शक्ति और मानसिक एकाग्रता के बारे में चर्चा करेंगे।

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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