ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 21 - आत्मज्ञान का रहस्य


 "हर कोई चाहता है जीवन में शांति, लेकिन इसका असली स्रोत क्या है? श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो बताया, वही हमें आत्मज्ञान और शांति तक पहुंचा सकता है। चलिए, आज के श्लोक 21 को समझते हैं और इसके गहरे अर्थ में डूबते हैं।


पिछले वीडियो में हमने श्लोक 20 के माध्यम से योग की गहराई और आत्मज्ञान की यात्रा की शुरुआत की थी। आज हम इस यात्रा को और आगे बढ़ाएंगे।


श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्चा सुख और शांति कहां से मिलते हैं। आइए, श्लोक 21 की व्याख्या करें और जानें कि यह हमारे जीवन में कैसे प्रासंगिक है।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 21"

"(श्लोक-२१)


सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥


उच्चारण की विधि - सुखम्, आत्यन्तिकम्, यत्, तत्, बुद्धिग्राह्यम्, अतीन्द्रियम्, वेत्ति, यत्र, न, च, एव, अयम्, स्थितः, चलति, तत्त्वतः ॥ २१॥


शब्दार्थ - अतीन्द्रियम् अर्थात् इन्द्रियोंसे अतीत, बुद्धिग्राह्यम् अर्थात् केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य, यत् अर्थात् जो, आत्यन्तिकम् अर्थात् अनन्त, सुखम् अर्थात् आनन्द है, तत् अर्थात् उसको, यत्र अर्थात् जिस अवस्थामें, वेत्ति अर्थात् अनुभव करता है, च अर्थात् और, यत्र अर्थात् जिस अवस्थामें, स्थितः अर्थात् स्थित, अयम् अर्थात् यह (योगी), तत्त्वतः अर्थात् परमात्माके स्वरूपसे, न एव चलति अर्थात् विचलित होता ही नहीं।


अर्थ - इन्द्रियोंसे अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो अनन्त आनन्द है; उसको जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस अवस्थामें स्थित यह योगी परमात्माके स्वरूपसे विचलित होता ही नहीं ॥ २१॥"

"व्याख्या 'सुखमात्यन्तिकं यत्' - ध्यानयोगी अपने द्वारा अपने-आपमें जिस सुखका अनुभव करता है, प्राकृत संसारमें उस सुखसे बढ़कर दूसरा कोई सुख हो ही नहीं सकता और होना सम्भव ही नहीं है। कारण कि यह सुख तीनों गुणोंसे अतीत और स्वतः सिद्ध है। यह सम्पूर्ण सुखोंकी आखिरी हद है- 'सा काष्ठा सा परा गतिः'। इसी सुखको अक्षय सुख (पाँचवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक), अत्यन्त सुख (छठे अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक) और ऐकान्तिक सुख (चौदहवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक) कहा गया है।


इस सुखको यहाँ 'आत्यन्तिक' कहनेका तात्पर्य है कि यह सुख सात्त्विक सुखसे विलक्षण है। कारण कि सात्त्विक सुख तो परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे उत्पन्न होता है (गीता-अठारहवें अध्यायका सैंतीसवाँ श्लोक); परन्तु यह आत्यन्तिक सुख उत्पन्न नहीं होता, प्रत्युत यह स्वतःसिद्ध अनुत्पन्न सुख है।


'अतीन्द्रियम्' - इस सुखको इन्द्रियोंसे अतीत बतानेका तात्पर्य है कि यह सुख राजस सुखसे विलक्षण है। राजस सुख सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, परिस्थिति आदिके सम्बन्धसे पैदा होता है और इन्द्रियोंद्वारा भोगा जाता है। वस्तु, व्यक्ति आदिका प्राप्त होना हमारे हाथकी बात नहीं है और प्राप्त होनेपर उस सुखका भोग उस विषय (वस्तु, व्यक्ति आदि) के ही अधीन होता है। अतः राजस सुखमें पराधीनता है। परन्तु आत्यन्तिक सुखमें पराधीनता नहीं है। कारण कि आत्यन्तिक सुख इन्द्रियोंका विषय नहीं है। "

"इन्द्रियोंकी तो बात ही क्या है, वहाँ मनकी भी पहुँच नहीं है। यह सुख तो स्वयंके द्वारा ही अनुभवमें आता है। अतः इस सुखको अतीन्द्रिय कहा है। 


'बुद्धिग्राह्यम्' - इस सुखको बुद्धिग्राह्य बतानेका तात्पर्य है कि यह सुख तामस सुखसे विलक्षण है। तामस सुख निद्रा, आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न होता है। गाढ़ निद्रा- (सुषुप्ति) में सुख तो मिलता है, पर उसमें बुद्धि लीन हो जाती है। आलस्य और प्रमादमें भी सुख होता है, पर उसमें बुद्धि ठीक-ठीक जाग्रत् नहीं रहती तथा विवेकशक्ति भी लुप्त हो जाती है। परन्तु इस आत्यन्तिक सुखमें बुद्धि लीन नहीं होती और विवेकशक्ति भी ठीक जाग्रत् रहती है। पर इस आत्यन्तिक सुखको बुद्धि पकड़ नहीं सकती; क्योंकि प्रकृतिका कार्य बुद्धि प्रकृतिसे अतीत स्वरूपभूत सुखको पकड़ ही कैसे सकती है ? यहाँ सुखको आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य बतानेका तात्पर्य है कि यह सुख सात्त्विक, राजस और तामस सुखसे विलक्षण अर्थात् गुणातीत स्वरूपभूत है।


'वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ' - ध्यानयोगी अपने द्वारा ही अपने-आपके सुखका अनुभव करता है और इस सुखमें स्थित हुआ वह कभी किंचिन्मात्र भी विचलित नहीं होता अर्थात् इस सुखकी अखण्डता निरन्तर स्वतः बनी रहती है। जैसे, मुगलो ने धोखेसे शिवाजीके पुत्र संभाजीको कैद कर लिया और उनसे उनका धर्म स्वीकार करनेके लिये कहा। परन्तु जब संभाजीने उसको स्वीकार नहीं किया, तब मुगलो ने उनकी आँखें निकाल लीं, उनकी चमड़ी खींच ली, तो भी वे अपने हिन्दूधर्मसे किंचिन्मात्र भी विचलित नहीं हुए। "

"तात्पर्य यह निकला कि मनुष्य जबतक अपनी मान्यताको स्वयं नहीं छोड़ता, तबतक उसको दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। जब अपनी मान्यताको भी कोई छुड़ा नहीं सकता, तो फिर जिसको वास्तविक सुख प्राप्त हो गया है, उस सुखको कोई कैसे छुड़ा सकता है और वह स्वयं भी उस सुखसे कैसे विचलित हो सकता है ? नहीं हो सकता।


मनुष्य उस वास्तविक सुखसे, ज्ञानसे, आनन्दसे कभी चलायमान नहीं होता- इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य सात्त्विक सुखसे भी चलायमान होता है; उसका समाधिसे भी व्युत्थान होता है। परन्तु आत्यन्तिक सुखसे अर्थात् तत्त्वसे वह कभी विचलित और व्युत्थित नहीं होता; क्योंकि उसमें उसकी दूरी, भेद, भिन्नता मिट गयी और अब केवल वह- ही-वह रह गया। अब वह विचलित और व्युत्थित कैसे हो ? विचलित और व्युत्थित तभी होता है, जब जडताका किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध रहता है। जबतक जडताका सम्बन्ध रहता है, तबतक वह एकरस नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति सदा ही क्रियाशील रहती है।


परिशिष्ट भाव - स्वरूपका अनुभव होनेपर ध्यानयोगीको उस अविनाशी, अखण्ड सुखकी अनुभूति हो जाती है, जो 'आत्यन्तिक' अर्थात् सात्त्विक सुखसे विलक्षण, 'अतीन्द्रिय' अर्थात् राजस सुखसे विलक्षण और 'बुद्धिग्राह्य' अर्थात् तामस सुखसे विलक्षण है। अविनाशी सुखको 'बुद्धिग्राह्य' कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि वह बुद्धिकी पकड़में आनेवाला है। कारण कि बुद्धि तो प्रकृतिका कार्य है, फिर वह प्रकृतिसे अतीत सुखको कैसे पकड़ सकती है? "

"इसलिये अविनाशी सुखको बुद्धिग्राह्य कहनेका तात्पर्य उस सुखको तामस सुखसे विलक्षण बतानेमें ही है। निद्रा, आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न होनेवाला सुख तामस होता है (गीता - अठारहवें अध्यायका उनतालीसवाँ श्लोक)।  गाढ़ निद्रा (सुषुप्ति) में बुद्धि अविद्यामें लीन हो जाती है और आलस्य तथा प्रमादमें बुद्धि पूरी तरह जाग्रत् नहीं रहती। परन्तु स्वतः सिद्ध अविनाशी सुखमें बुद्धि अविद्यामें लीन नहीं होती, प्रत्युत पूरी तरह जाग्रत् रहती है- 'ज्ञानदीपिते' (गीता ४। २७)। अतः बुद्धिकी जागृतिकी दृष्टिसे ही उसको 'बुद्धिग्राह्य' कहा गया है। वास्तवमें बुद्धि वहाँतक पहुँचती ही नहीं।


जैसे दर्पणमें सूर्य नहीं आता, प्रत्युत सूर्यका बिम्ब आता है, ऐसे ही बुद्धिमें वह अविनाशी सुख नहीं आता, प्रत्युत उस सुखका बिम्ब आभास आता है, इसलिये भी उसको 'बुद्धिग्राह्य' कहा गया है।


तात्पर्य यह हुआ कि स्वयंका अखण्ड सुख सात्त्विक, राजस और तामस सुखसे भी अत्यन्त विलक्षण अर्थात् गुणातीत है। उसको बुद्धिग्राह्य कहनेपर भी वास्तवमें वह बुद्धिसे सर्वथा अतीत है।


बुद्धियुक्त (प्रकृतिसे मिला हुआ) चेतन ही बुद्धिग्राह्य है, शुद्ध चेतन नहीं। वास्तवमें स्वयं प्रकृतिसे मिल सकता ही नहीं, पर वह अपनेको मिला हुआ मान लेता है- 'ययेदं धार्यते जगत्' (गीता ७।५)।


सम्बन्ध - ध्यानयोगी तत्त्वसे चलायमान क्यों नहीं होता-इसका कारण आगेके श्लोकमें बताते हैं।"

कल के वीडियो में हम श्लोक 22 पर चर्चा करेंगे, जिसमें श्रीकृष्ण सच्ची संतुष्टि और योग के परिणाम का वर्णन करते हैं।

"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!


याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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