ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 20 - ध्यान और साधना का महत्व
"नमस्कार दोस्तों! आपका स्वागत है गीता ज्ञान की इस विशेष श्रृंखला में। आज हम गहराई से समझेंगे अध्याय 6 के श्लोक 20 को। ध्यान और साधना के माध्यम से आत्मा की शांति और भगवान से जुड़ने के रहस्य को जानने के लिए हमारे साथ अंत तक बने रहें।
पिछले एपिसोड में हमने श्लोक 19 में ध्यान की स्थिरता और मन की एकाग्रता के महत्व को समझा। हमने जाना कि कैसे ध्यान की प्रक्रिया आत्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।
आज हम अध्याय 6 के श्लोक 20 का अध्ययन करेंगे, जहाँ श्रीकृष्ण ध्यान की गहन अवस्था और आत्मा के साथ एकत्व की अनुभूति का वर्णन करते हैं।"
"हम लेके आये है आपके लिये एक खास Offer. अधिक जानकारी के लिये बने रहे हमारे साथ।
श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 20"
"ध्यानयोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण ।
(श्लोक-२०)
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया। यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
उच्चारण की विधि - यत्र, उपरमते, चित्तम्, निरुद्धम्, योगसेवया, यत्र, च, एव, आत्मना, आत्मानम्, पश्यन्, आत्मनि, तुष्यति ॥ २० ॥
शब्दार्थ - योगसेवया अर्थात् योगके अभ्याससे, निरुद्धम् अर्थात् निरुद्ध, चित्तम् अर्थात् चित्त, यत्र अर्थात् जिसअर्थात् और, यत्र अर्थात् अवस्थामें, उपरमते अर्थात् उपराम हो जाता है, च अर्थात् जिस अवस्थामें (परमात्माके ध्यानसे शुद्ध हुई), आत्मना अर्थात् सूक्ष्म बुद्धिद्वारा, आत्मानम् अर्थात् परमात्माको, पश्यन् अर्थात् साक्षात् करता हुआ, आत्मनि अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मामें, एव अर्थात् ही, तुष्यति अर्थात् संतुष्ट रहता है।
अर्थ - योगके अभ्याससे निरुद्ध चित्त जिस अवस्थामें उपराम हो जाता है और जिस अवस्थामें परमात्माके ध्यानसे शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा परमात्माको साक्षात् करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही सन्तुष्ट रहता है ॥ २० ॥"
"व्याख्या- 'यत्रोपरमते चित्तं पश्यन्नात्मनि तुष्यति' - ध्यानयोगमें पहले 'मनको केवल स्वरूपमें ही लगाना है' यह धारणा होती है। ऐसी धारणा होनेके बाद स्वरूपके सिवाय दूसरी कोई वृत्ति पैदा हो भी जाय, तो उसकी उपेक्षा करके उसे हटा देने और चित्तको केवल स्वरूपमें ही लगानेसे जब मनका प्रवाह केवल स्वरूपमें ही लग जाता है, तब उसको ध्यान कहते हैं। ध्यानके समय ध्याता, ध्यान और ध्येय - यह त्रिपुटी रहती है अर्थात् साधक ध्यानके समय अपनेको ध्याता (ध्यान करनेवाला) मानता है, स्वरूपमें तद्रूप होनेवाली वृत्तिको ध्यान मानता है और साध्यरूप स्वरूपको ध्येय मानता है। तात्पर्य है कि जबतक इन तीनोंका अलग-अलग ज्ञान रहता है, तबतक वह 'ध्यान' कहलाता है। ध्यानमें ध्येयकी मुख्यता होनेके कारण साधक पहले अपनेमें ध्यातापना भूल जाता है। फिर ध्यानकी वृत्ति भी भूल जाता है। अन्तमें केवल ध्येय ही जाग्रत् रहता है। इसको 'समाधि' कहते हैं। यह 'संप्रज्ञात-समाधि' है, जो चित्तकी एकाग्र अवस्थामें होती है। इस समाधिके दीर्घकालके अभ्याससे फिर 'असंप्रज्ञात-समाधि' होती है। इन दोनों समाधियोंमें भेद यह है कि जबतक ध्येय, ध्येयका नाम और नाम नामीका सम्बन्ध - ये तीनों चीजें रहती हैं, तबतक वह 'संप्रज्ञात समाधि' होती है। इसीको चित्तकी 'एकाग्र' अवस्था कहते हैं। परन्तु जब नामकी स्मृति न रहकर केवल नामी (ध्येय) रह जाता है, तब वह 'असंप्रज्ञात-समाधि' होती है। इसीको चित्तकी 'निरुद्ध' अवस्था कहते हैं।
निरुद्ध अवस्थाकी समाधि दो तरहकी होती है- सबीज और निर्बीज। जिसमें संसारकी सूक्ष्म वासना रहती है, वह 'सबीज समाधि' कहलाती है। "
"सूक्ष्म वासनाके कारण सबीज समाधिमें सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ये सिद्धियाँ सांसारिक दृष्टिसे तो ऐश्वर्य हैं, पर पारमार्थिक दृष्टिसे (चेतन-तत्त्वकी प्राप्तिमें) विघ्न हैं। ध्यानयोगी जब इन सिद्धियोंको निस्तत्त्व समझकर इनसे उपराम हो जाता है, तब उसकी 'निर्बीज समाधि' होती है, जिसका यहाँ (इस श्लोकमें) 'निरुद्धम्' पदसे संकेत किया गया है।
ध्यानमें संसारके सम्बन्धसे विमुख होनेपर एक शान्ति, एक सुख मिलता है, जो कि संसारका सम्बन्ध रहनेपर कभी नहीं मिलता। संप्रज्ञात समाधिमें उससे भी विलक्षण सुखका अनुभव होता है। इस संप्रज्ञात समाधिसे भी असंप्रज्ञात- समाधिमें विलक्षण सुख होता है। जब साधक निर्बीज समाधिमें पहुँचता है, तब उसमें बहुत ही विलक्षण सुख, आनन्द होता है। योगका अभ्यास करते-करते चित्त निरुद्ध- अवस्था - निर्बीज समाधिसे भी उपराम हो जाता है अर्थात् योगी उस निर्बीज समाधिका भी सुख नहीं लेता, उसके सुखका भोक्ता नहीं बनता। उस समय वह अपने स्वरूपमें अपने-आपका अनुभव करता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट होता है।
'उपरमते' पदका तात्पर्य है कि चित्तका संसारसे तो प्रयोजन रहा नहीं और स्वरूपको पकड़ सकता नहीं। कारण कि चित्त प्रकृतिका कार्य होनेसे जड है और स्वरूप चेतन है। जड चित्त चेतन स्वरूपको कैसे पकड़ सकता है ? नहीं पकड़ सकता। इसलिये वह उपराम हो जाता है। चित्तके उपराम होनेपर योगीका चित्तसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।"
"तुष्यति' कहनेका तात्पर्य है कि उसके सन्तोषका दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी कारण नहीं रहता। केवल अपना स्वरूप ही उसके सन्तोषका कारण रहता है।
इस श्लोकका सार यह है कि अपने द्वारा अपनेमें ही अपने स्वरूपकी अनुभूति होती है। वह तत्त्व अपने भीतर ज्यों-का-त्यों है। केवल संसारसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण चित्तकी वृत्तियाँ संसारमें लगती हैं, जिससे उस तत्त्वकी अनुभूति नहीं होती। जब ध्यानयोगके द्वारा चित्त संसारसे उपराम हो जाता है, तब योगीका चित्तसे तथा संसारसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही उसको अपने-आपमें ही अपने स्वरूपकी अनुभूति हो जाती है।
विशेष बात
जिस तत्त्वकी प्राप्ति ध्यानयोगसे होती है, उसी तत्त्वकी प्राप्ति कर्मयोगसे होती है। परन्तु इन दोनों साधनोंमें थोड़ा अन्तर है। ध्यानयोगमें जब साधकका चित्त समाधिके सुखसे भी उपराम हो जाता है, तब वह अपने-आपसे अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है। कर्मयोगमें जब साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग कर देता है, तब वह अपने- आपसे अपने-आपमें सन्तुष्ट होता है (गीता-दूसरे अध्यायका पचपनवाँ श्लोक) ।
ध्यानयोगमें अपने स्वरूपमें मन लगनेसे जब मन स्वरूपमें तदाकार हो जाता है, तब समाधि लगती है। उस समाधिसे भी जब मन उपराम हो जाता है, तब योगीका चित्तसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।
कर्मयोगमें मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि पदार्थोंका और सम्पूर्ण क्रियाओंका प्रवाह केवल दूसरोंके हितकी तरफ हो जाता है, तब मनोगत सम्पूर्ण कामनाएँ छूट जाती हैं। कामनाओंका त्याग होते ही मनसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।"
"परिशिष्ट भाव - मन आत्मामें नहीं लगता, प्रत्युत उपराम हो जाता है। कारण कि मनकी जाति अलग है और आत्माकी जाति अलग है। मन अपरा प्रकृति (जड़) है और आत्मा परा प्रकृति (चेतन) है। इसलिये आत्मा ही आत्मामें लगती है- 'आत्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।'
अपने-आपमें अपने-आपको देखनेका तात्पर्य है कि आत्मतत्त्व परसंवेद्य नहीं है, प्रत्युत स्वसंवेद्य है। मनसे जो चिन्तन किया जाता है, वह मनके विषय (अनात्मा) का ही चिन्तन होता है, परमात्माका नहीं। बुद्धिसे जो निश्चय किया जाता है, वह बुद्धिके विषयका ही निश्चय होता है, परमात्माका नहीं। वाणीसे जो वर्णन किया जाता है, वह वाणीके विषयका ही वर्णन होता है, परमात्माका नहीं। तात्पर्य है कि मन-बुद्धि-वाणीसे प्रकृतिके कार्य-(अनात्मा) का ही चिन्तन, निश्चय तथा वर्णन किया जाता है। परन्तु परमात्माकी प्राप्ति मन-बुद्धि-वाणीसे सर्वथा विमुख (सम्बन्ध-विच्छेद) होनेपर ही होती है।*
* यदि एक परमात्मप्राप्तिका ही ध्येय हो तो मन-बुद्धि-वाणीसे चिन्तन, निश्चय तथा वर्णन करना भी अनुचित नहीं है, प्रत्युत वह भी साधनरूप हो जाता है। परन्तु साधक उसमें ही सन्तोष कर ले, पूर्णता मान ले तो वह बाधक हो जाता है।
यहाँ जिस तत्त्वकी प्राप्ति ध्यानयोगसे बतायी गयी है, उसी तत्त्वकी प्राप्ति दूसरे अध्यायके पचपनवें श्लोकमें कर्मयोगसे भी बतायी गयी है। अन्तर इतना है कि ध्यानयोग तो करणसापेक्ष है, पर कर्मयोग करणनिरपेक्ष साधन है। करणसापेक्ष साधनमें जड़तासे सम्बन्ध विच्छेद देरीसे होता है और इसमें योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती है।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें कहा गया कि ध्यानयोगी अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तोषका अनुभव करता है। अब उसके बाद क्या होता है-इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
कल के एपिसोड में हम चर्चा करेंगे श्लोक 21 पर, जो ध्यान की स्थायी अवस्था और आत्मा की असीम शांति के बारे में है।
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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