ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 6 श्लोक 18 - आत्मसंयम और ध्यान की महिमा
"नमस्कार मित्रों! स्वागत है आपका श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 6 के अद्भुत ज्ञान में, जहाँ हम श्लोक 18 का गहराई से अध्ययन करेंगे। यह श्लोक हमें सिखाता है कि एक योगी का ध्यान और आत्मसंयम कैसे उसके जीवन को परमात्मा के साथ जोड़ सकता है। आइए इस दिव्य ज्ञान में डूबें।
पिछले वीडियो में हमने श्लोक 17 में सीखा कि योगी के लिए संतुलित जीवन कितना महत्वपूर्ण है। हमने देखा कि भोजन, विश्राम और कार्य में संतुलन ध्यान में सफलता का आधार है।
आज हम श्लोक 18 की चर्चा करेंगे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण हमें सिखा रहे हैं कि ध्यान और आत्मसंयम कैसे हमें आत्मा की शुद्धता और परमात्मा की अनुभूति तक पहुँचाता है।"
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श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
"भगवतगीता अध्याय 6 श्लोक 18"
"ध्यानयोगके अन्तिम स्थितिको प्राप्त हुए पुरुषोंके लक्षण ।
(श्लोक-१८)
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
उच्चारण की विधि - यदा, विनियतम्, चित्तम्, आत्मनि, एव, अवतिष्ठते, निःस्पृहः, सर्वकामेभ्यः, युक्तः, इति, उच्यते, तदा ॥ १८ ॥
शब्दार्थ - विनियतम् अर्थात् अत्यन्त वशमें किया हुआ, चित्तम् अर्थात् चित्त, यदा अर्थात् जिस कालमें, आत्मनि अर्थात् परमात्मामें, एव अर्थात् ही, अवतिष्ठते अर्थात् भलीभाँति स्थित हो जाता है, तदा अर्थात् उस कालमें, सर्वकामेभ्यः अर्थात् सम्पूर्ण भोगोंसे, निःस्पृहः अर्थात् स्पृहारहित पुरुष, युक्तः अर्थात् योगयुक्त है, इति अर्थात् ऐसा, उच्यते अर्थात् कहा जाता है।
अर्थ - अत्यन्त वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें परमात्मामें ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस कालमें सम्पूर्ण भोगोंसे स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है ॥ १८ ॥"
"व्याख्या [इस अध्यायके दसवेंसे तेरहवें श्लोकतक सभी ध्यानयोगी साधकोंके लिये बिछाने और बैठनेवाले आसनोंकी विधि बतायी। चौदहवें और पंद्रहवें श्लोकमें सगुण-साकारके ध्यानका फलसहित वर्णन किया। फिर सोलहवें-सत्रहवें श्लोकोंमें सभी साधकोंके लिये उपयोगी नियम बताये। अब इस (अठारहवें) श्लोकसे लेकर तेईसवें श्लोकतक स्वरूपके ध्यानका फलसहित वर्णन करते हैं।]
'यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते' - अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ चित्त* अर्थात् संसारके चिन्तनसे रहित चित्त जब अपने स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित हो जाता है।
* (क) चित्तकी पाँच अवस्थाएँ मानी गयी हैं- मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। इनमें 'मूढ़' और 'क्षिप्त' वृत्तिवाला पुरुष योगका अधिकारी होता ही नहीं। चित्त कभी स्वरूपमें लगता है और कभी नहीं लगता ऐसा 'विक्षिप्त' वृत्तिवाला पुरुष योगका अधिकारी होता है। जब चित्तवृत्ति 'एकाग्र' हो जाती है, तब सविकल्प समाधि होती है। एकाग्रवृत्तिके बाद जब चित्तकी 'निरुद्ध' अवस्था होती है, तब निर्विकल्प समाधि होती है। इस निर्विकल्प समाधिको ही 'योग' कहा गया है।
यहाँ भगवान् ने 'विनियतं चित्तम्' पदोंसे एकाग्रवृत्ति अर्थात् सविकल्प समाधिका संकेत किया है।
(ख) इसी अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें जिसको 'नियतमानसः' कहा गया है, उसकी अवस्थाका वर्णन यहाँ किया गया है।"
"तात्पर्य है कि जब यह सब कुछ नहीं था, तब भी जो था और सब कुछ नहीं रहेगा, तब भी जो रहेगा तथा सबके उत्पन्न होनेके पहले भी जो था, सबका लय होनेके बाद भी जो रहेगा और अभी भी जो ज्यों-का-त्यों है, उस अपने स्वरूपमें चित्त स्थित हो जाता है। अपने स्वरूपमें जो रस है, आनन्द है, वह इस मनको कहीं भी और कभी भी नहीं मिला है। अतः वह रस, आनन्द मिलते ही मन उसमें तल्लीन हो जाता है।
'निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा' - और जब वह प्राप्त-अप्राप्त, दृष्ट-अदृष्ट, ऐहलौकिक-पारलौकिक, श्रुत-अश्रुत सम्पूर्ण पदार्थोंसे, भोगोंसे निःस्पृह हो जाता है अर्थात् उसको किसी भी पदार्थकी, भोगकी किंचिन्मात्र भी परवाह नहीं रहती, उस समय वह 'योगी' कहा जाता है।
यहाँ 'यदा' और 'तदा' पद देनेका तात्पर्य है कि वह इतने दिनोंमें, इतने महीनोंमें, इतने वर्षोंमें योगी होगा- ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत जिस क्षण वशमें किया हुआ चित्त स्वरूपमें स्थित हो जायगा और सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जायगा, उसी क्षण वह योगी हो जायगा।
विशेष बात
इस श्लोकमें दो खास बातें बतायी हैं- एक तो चित्त स्वरूपमें स्थित हो जाय और दूसरी, सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाय। तात्पर्य है कि स्वरूपमें लगते-लगते जब मन स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है, तो फिर मनमें किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिका चिन्तन नहीं होता, प्रत्युत मन स्वरूपमें ही तल्लीन हो जाता है। "
"इस प्रकार स्वरूपमें ही मन लगा रहनेसे ध्यानयोगी वासना, कामना, आशा, तृष्णा आदिसे सर्वथा रहित हो जाता है। इतना ही नहीं, वह जीवन-निर्वाहके लिये उपयोगी पदार्थोंकी आवश्यकतासे भी निःस्पृह हो जाता है। उसके मनमें किसी भी वस्तु आदिकी किंचिन्मात्र भी स्पृहा नहीं रहती, तब वह असली योगी होता है।
इसी अवस्थाका संकेत पहले चौथे श्लोकमें कर्मयोगीके लिये किया गया है कि 'जिस कालमें इन्द्रियोंके अर्थों (भोगों) में और क्रियाओंमें आसक्ति नहीं रहती तथा सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग कर देता है, तब वह योगारूढ़ कहा जाता है (छठे अध्यायका चौथा श्लोक)। वहाँके और यहाँके प्रसंगमें अन्तर इतना ही है कि वहाँ कर्मयोगी दूसरोंकी सेवाके लिये ही कर्म करता है तो उसका क्रियाओं और पदार्थोंसे सर्वथा राग हट जाता है, तब वह योगारूढ़ हो जाता है और यहाँ ध्यानयोगी चित्तको स्वरूपमें लगाता है तो उसका चित्त केवल स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है, तब वह क्रियाओं और पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है। तात्पर्य है कि कर्मयोगीकी कामनाएँ पहले मिटती हैं, तब वह योगारूढ़ होता है और ध्यानयोगीका चित्त पहले अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, तब उसकी कामनाएँ मिटती हैं। कर्मयोगीका मन संसारकी सेवामें लग जाता है और स्वयं स्वरूपमें स्थित हो जाता है; और ध्यानयोगी स्वयं मनके साथ स्वरूपमें स्थित हो जाता है।
सम्बन्ध-स्वरूपमें स्थिर हुए चित्तकी क्या स्थिति होती है- इसको आगेके श्लोकमें दीपकके दृष्टान्तसे स्पष्ट बताते हैं।"
कल के वीडियो में हम श्लोक 19 की चर्चा करेंगे, जिसमें योगी के चित्त की स्थिरता और उसकी अद्भुत महिमा के बारे में बताया गया है।
"दोस्तों, आज का श्लोक आपको कैसा लगा? क्या आप भी ये मानते हैं कि भगवद्गीता सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक पूरा नक्शा है? अगर हां, तो इस वीडियो को लाइक और शेयर करके अपनी सहमति ज़रूर बताएं!
याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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