ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 6 से 7 - कर्मयोग का मार्ग और आत्मा की शुद्धि का महत्व
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या त्याग के बिना आत्मा की शुद्धि संभव है? और क्यों श्रीकृष्ण कहते हैं कि केवल कर्मयोग के माध्यम से ही शांति और मुक्ति मिल सकती है? आज इन सवालों के जवाब जानिए।
पिछले श्लोक में हमने सीखा कि कर्मयोग और संन्यास में कोई भेद नहीं है। श्रीकृष्ण ने बताया कि इन दोनों का उद्देश्य एक ही है – आत्मा की शुद्धि।
"श्लोक 6:
'संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥'
अर्थ:
हे महाबाहो (अर्जुन), बिना योग के संन्यास को प्राप्त करना कठिन है। योगयुक्त व्यक्ति शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त करता है।
श्लोक 7:
'योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥'
अर्थ:
योगयुक्त, विशुद्ध आत्मा, आत्म-नियंत्रण प्राप्त व्यक्ति, और जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है, वह सभी प्राणियों में आत्मा को देखता है और कर्म करते हुए भी बंधनों से मुक्त रहता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि बिना योग के संन्यास कठिन है। योग के माध्यम से आत्मा की शुद्धि और इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर कोई व्यक्ति ब्रह्म को जान सकता है।"
"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 6 से 7"
"कर्मयोगके बिना सांख्ययोगके साधनमें कठिनताका कथन ।
(श्लोक-६)
सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः । योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।।
उच्चारण की विधि - सन्न्यासः, तु, महाबाहो, दुःखम्, आप्तुम्, अयोगतः, योगयुक्तः, मुनिः, ब्रह्म, नचिरेण, अधिगच्छति ॥ ६ ॥
तु अर्थात् परंतु, महाबाहो अर्थात् हे अर्जुन, अयोगतः अर्थात् कर्मयोगके बिना, सन्न्यासः अर्थात् संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनका त्याग, आप्तुम् अर्थात् प्राप्त होना, दुःखम् अर्थात् कठिन है (और), मुनिः अर्थात् भगवत्स्वरूपको मनन करनेवाला, योगयुक्तः अर्थात् कर्मयोगी, ब्रह्म अर्थात् परब्रह्म परमात्माको, नचिरेण अर्थात् शीघ्र ही, अधिगच्छति अर्थात् प्राप्त हो जाता है।
अर्थ - परन्तु हे अर्जुन ! कर्मयोगके बिना संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनका त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूपको मनन करनेवाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्माको शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ॥ ६ ॥"
"व्याख्या-'सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः '- सांख्ययोगकी सफलताके लिये कर्मयोगका साधन करना आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना सांख्ययोगकी सिद्धि कठिनतासे होती है। परन्तु कर्मयोगकी सिद्धिके लिये सांख्ययोगका साधन करनेकी आवश्यकता नहीं है। यही भाव यहाँ 'तु' पदसे प्रकट किया गया है। सांख्ययोगीका लक्ष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव करना होता है। परन्तु राग रहते हुए इस साधनके द्वारा परमात्मतत्त्वके अनुभवकी तो बात ही क्या है, इस साधनका समझमें आना भी कठिन है!
राग मिटानेका सुगम उपाय है- कर्मयोगका अनुष्ठान करना। कर्मयोगमें प्रत्येक क्रिया दूसरोंके हितके लिये ही की जाती है। दूसरोंके हितका भाव होनेसे अपना राग स्वतः मिटता है। इसलिये कर्मयोगके आचरणद्वारा राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करना सुगम पड़ता है। कर्मयोगका साधन किये बिना सांख्ययोगका सिद्ध होना कठिन है।
'योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति' - अपने निष्कामभावका और दूसरोंके हितका मनन करनेवाले कर्मयोगीको यहाँ 'मुनिः' कहा गया है।
कर्मयोगी छोटी या बड़ी प्रत्येक क्रियाको करते समय यह देखता रहता है कि मेरा भाव निष्काम है या सकाम ? सकामभाव आते ही वह उसे मिटा देता है; क्योंकि सकामभाव आते ही वह क्रिया अपनी और अपने लिये हो जाती है।
दूसरोंका हित कैसे हो? इस प्रकार मनन करनेसे रागका त्याग सुगमतासे होता है।
उपर्युक्त पदोंसे भगवान् कर्मयोगकी विशेषता बता रहे हैं कि कर्मयोगी शीघ्र ही परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है। "
"परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें विलम्बका कारण है- संसारका राग। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करते रहनेसे कर्मयोगीके रागका सर्वथा अभाव हो जाता है और रागका सर्वथा अभाव होनेपर स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वकी अनुभूति हो जाती है। इसी आशयको भगवान् ने चौथे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें 'तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति' पदोंसे बताया है कि योगसंसिद्ध होते ही अपने-आप तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति अवश्यमेव हो जाती है। इस साधनमें अन्य साधनकी अपेक्षा नहीं है। इसकी सिद्धिमें कठिनाई और विलम्ब भी नहीं है।
दूसरा कारण यह है कि देहधारी - देहाभिमानी मनुष्य सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग नहीं कर सकता, पर जो कर्मफलका त्यागी है, वह त्यागी कहलाता है (अठारहवें अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक)। इससे यह ध्वनि निकलती है कि देहधारी कर्मोंका त्याग तो नहीं कर सकता, पर कर्मफलका-फलेच्छाका त्याग तो कर ही सकता है। इसलिये कर्मयोगमें सुगमता है।
कर्मयोगकी महिमामें भगवान् कहते हैं कि कर्मयोगीको तत्काल ही शान्ति प्राप्त हो जाती है- 'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' (गीता १२। १२)। वह संसारबन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है- 'सुखं बन्धात्प्रमुच्यते' (गीता ५। ३)। अतः कर्मयोगका साधन सुगम, शीघ्र सिद्धिदायक और किसी अन्य साधनके बिना परमात्मप्राप्ति करानेवाला स्वतन्त्र साधन है।
सम्बन्ध - अब भगवान् कर्मयोगीके लक्षणोंका वर्णन करते हैं।"
"कर्मयोगीकी निर्लिप्तताका प्रतिपादन ।
(श्लोक-७)
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥
उच्चारण की विधि - योगयुक्तः, विशुद्धात्मा, विजितात्मा, जितेन्द्रियः, सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्, अपि, न, लिप्यते ॥ ७ ॥
विजितात्मा अर्थात् जिसका मन अपने वशमें है, जितेन्द्रियः अर्थात् जो जितेन्द्रिय (एवम्), विशुद्धात्मा अर्थात् विशुद्ध अन्तःकरणवाला है (और), सर्वभूतात्म-भूतात्मा अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है (ऐसा), योगयुक्तः अर्थात् कर्मयोगी (कर्म), कुर्वन् अर्थात् करता हुआ, अपि अर्थात् भी, न लिप्यते अर्थात् लिप्त नहीं होता।
अर्थ - जिसका मन अपने वशमें है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरणवाला है और सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता ॥ ७ ॥"
"व्याख्या 'जितेन्द्रियः' इन्द्रियाँ वशमें होनेका तात्पर्य है-
इन्द्रियोंका राग-द्वेषसे रहित होना। राग-द्वेषसे रहित होनेपर इन्द्रियोंमें मनको विचलित करनेकी शक्ति नहीं रहती।
१-श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः । न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः ॥
(मनुस्मृति २।९८)
'जो पुरुष सुनकर, छूकर, देखकर, खाकर और सूंघकर न तो प्रसन्न होता है और न खिन्न होता है, उसे ही जितेन्द्रिय जानना चाहिये।'
साधक उनको अपने मनके अनुकूल चाहे जहाँ लगा सकता है। कर्मयोगके साधकके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना आवश्यक है। इसीलिये भगवान् कर्मयोगके प्रकरणमें इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात विशेषरूपसे कहते हैं; जैसे- 'यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य' (३।७); 'तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य' (३। ४१)। कर्मयोगीका कर्मोंके साथ अधिक सम्बन्ध रहता है; इसलिये इन्द्रियाँ वशमें न होनेसे उसके विचलित होनेकी सम्भावना रहती है। कर्मयोगके साधनमें दूसरोंके हितके लिये सेवारूपसे कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है, जिसके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना बहुत जरूरी है। इन्द्रियाँ वशमें हुए बिना कर्मयोगका साधन होना कठिन है।
'विशुद्धात्मा' - अन्तःकरणकी मलिनतामें हेतु है-सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व। जहाँ पदार्थोंका महत्त्व रहता है, वहीं उनकी कामनाएँ रहती हैं। साधक निष्काम तभी होता है, जब उसके अन्तःकरणमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व नहीं रहता। जबतक पदार्थोंका महत्त्व है, तबतक वह निष्काम नहीं हो सकता।"
"एक परमात्मप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य होनेसे अन्तःकरणकी जितनी जल्दी और जैसी शुद्धि होती है, उतनी जल्दी और वैसी शुद्धि दूसरे किसी अनुष्ठानसे नहीं होती। इसलिये कर्मयोगमें एक उद्देश्य होनेकी जितनी महिमा है, उतनी किसीकी नहीं।
'विजितात्मा' - कर्मयोगमें शरीरके सुख-आरामका त्याग करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। अगर शरीरसे आलस्य-प्रमाद होगा, तो कर्मयोगका अनुष्ठान नहीं हो पायेगा। अतः यहाँ भगवान् ने शरीरको वशमें करनेकी बात कही है।
'सर्वभूतात्मभूतात्मा' - कर्मयोगीको सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ अपनी एकताका अनुभव हो जाता है।
२-चाहे अपने शरीरसे असंग हो जायँ, चाहे अपने शरीर-जैसे सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंसे एकता मान लें- दोनोंका परिणाम एक ही होगा। ज्ञानयोगी अपने शरीरसे असंग होता है और कर्मयोगी सब शरीरोंके साथ अपने शरीरकी एकता मानता है। एकता माननेसे वह उदार हो जाता है।
जैसे शरीरके किसी एक अंगमें चोट लगनेसे दूसरा अंग उसकी सेवा करनेके लिये सहजभावसे, किसी अभिमानके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः लग जाता है, ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा दूसरोंको सुख पहुँचानेकी चेष्टा सहजभावसे, किसी अभिमान या कामनाके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः होती है। वह सेवा करनेके लिये किसी भी प्राणीको अपनेसे अलग नहीं समझता, सबको अपने ही अंग मानता है।
जैसे अपने शरीरमें भिन्न-भिन्न अवयवोंसे भिन्न-भिन्न व्यवहार होनेपर भी सब अवयवोंके साथ अपनापन समान (एक ही) रहता है,"
"ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा मर्यादाके अनुसार संसारमें यथायोग्य भिन्न-भिन्न व्यवहार होनेपर भी सबके साथ अपनापन समान रहता है। अपना राग मिटानेके लिये 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' होना अर्थात् सब प्राणियोंके साथ अपनी एकता मानना बहुत आवश्यक है। कर्मयोगीका स्वभाव है- उदारता। सर्वभूतात्मभूतात्मा हुए बिना उदारता नहीं आती।
विशेष बात
क्रिया और पदार्थके साथ हम निरन्तर नहीं रह सकते और वे हमारे साथ निरन्तर नहीं रह सकते। कारण यह है कि क्रिया और पदार्थमें निरन्तर परिवर्तन होता है, पर हमारेमें (स्वरूपसे) कभी परिवर्तन नहीं होता। इसलिये क्रिया और पदार्थ निरन्तर हमारा त्याग कर रहे हैं। हम भी इनका त्याग करके ही मुक्ति पा सकते हैं, परमशान्ति पा सकते हैं। इनके साथ रहकर हम मुक्ति, परमशान्ति नहीं पा सकते; क्योंकि इनके साथ रहनेका हमारा स्वभाव नहीं है और हमारे साथ रहनेका इनका स्वभाव नहीं है। इसलिये क्रिया और पदार्थको दूसरोंकी सेवामें लगाना है। दूसरोंकी सेवामें लगाना हमारी महत्ता नहीं है, प्रत्युत वास्तविकता है। जो वास्तविकता होती है, वह सहज होती है अर्थात् उसमें परिश्रम और अभिमान नहीं होता। अवास्तविकतामें ही परिश्रम और अभिमान होता है।
क्रिया और पदार्थ दूसरोंकी सेवामें तभी लग सकते हैं, जब हमारेमें 'उदारता' आ जाय। यहाँ ध्यान देनेकी बात है कि उदारता
हमारा स्वरूप है*।
* उदारता गुण भी है और अपना स्वरूप भी। हमारे पास जो पदार्थ हैं, "
"वे दूसरोंकी सेवामें लग जायँ इस भावसे उन्हें दूसरोंकी सेवामें लगाया जाय, यह उदारता 'गुण' है। हमारे पास जो पदार्थ हैं, वे हमारे हैं ही नहीं-ऐसा समझकर उन्हें दूसरोंकी सेवामें लगाया जाय, यह उदारता हमारा 'स्वरूप' है; क्योंकि इसमें पदार्थोंसे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और स्वरूप ज्यों-का-त्यों रह जाता है।
इसलिये उदारतामें न तो धन खर्च करनेकी आवश्यकता है और न परिश्रम करनेकी आवश्यकता है। आवश्यकता केवल इसी बातकी है कि हम सुखीको देखकर प्रसन्न हो जायँ और दुःखीको देखकर करुणित, दयालु हो जायँ। हृदयमें यह करुणा पैदा हो जाय कि यह सुखी कैसे हो ? सुखीको देखकर ऐसा भाव हो जाय कि सभी सुखी हो जायँ और दुःखीको देखकर ऐसा भाव हो जाय कि कोई दुःखी न रहे।
भगवान् ने भोग और संग्रहको साधनमें बाधक बताया है (गीता- दूसरे अध्यायका चौवालीसवाँ श्लोक)। सुखीको देखकर प्रसन्न होनेसे भोग भोगनेकी इच्छा मिट जाती है; क्योंकि भोग भोगनेमें जो सुख मिलता है, वह सुख हमें दूसरोंको सुखी देखकर विशेषतासे मिल जायगा तो हमें भोग भोगनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी। दुःखीको देखकर दुःखी होनेसे संग्रह करनेकी इच्छा मिट जाती है; क्योंकि अपना दुःख मिटानेके लिये जिन वस्तुओंका हम संग्रह करते हैं और व्यय करते हैं, वे स्वतः दूसरोंका दुःख दूर करनेमें लग जायँगी। जैसे अपनेपर कोई दुःख आनेसे हम उसे दूर करनेकी चेष्टा करते हैं, ऐसे ही दूसरोंको दुःखी देखकर अपनी शक्तिके अनुसार उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा होने लगेगी।"
"प्रसन्नता और करुणामें एक विलक्षण रस है। वह रस क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध विच्छेद करके जीवको परमात्मस्वरूप नित्य रसके साथ अभिन्न करा देता है।
'योगयुक्तः ' - जितेन्द्रिय, विशुद्धात्मा, विजितात्मा और सर्वभूतात्मभूतात्मा-इन चार पूर्वोक्त लक्षणोंसे युक्त जो कर्मयोगी है, उसे ही यहाँ 'योगयुक्तः' कहा गया है।
साधनमें स्वाभाविक प्रवृत्ति न होनेमें कारण है- उद्देश्य और रुचिमें भिन्नता। जबतक अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व है, तबतक उद्देश्य और रुचिका संघर्ष प्रायः मिटता नहीं। उद्देश्य अविनाशी परमात्माका होता है और रुचि प्रायः नाशवान् संसारके प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिकी होती है। उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो जानेपर साधन स्वतः तेजीसे होने लगता है। यहाँ 'योगयुक्तः' पद ऐसे कर्मयोगीके लिये आया है, जिसका उद्देश्य और रुचि अभिन्न हो गयी है अर्थात् उद्देश्य और रुचि - दोनों एक परमात्मामें ही हो गये हैं।
उत्पन्न और नष्ट होनेवाला फल किंचिन्मात्र भी न चाहें, तभी कर्मयोग होता है। फल और उद्देश्य दोनों भिन्न-भिन्न होते हैं। कर्मयोगीमें फलकी इच्छा तो नहीं होती, पर उद्देश्य अवश्य होता है। कर्मयोगीका उद्देश्य वही होता है, जो सबको मिल सकता है और सदा साथ रहता है। जो किसीको मिलता है, किसीको नहीं मिलता और कभी रहता है, कभी नहीं रहता, वह उसका उद्देश्य नहीं होता
है। इस दृष्टिसे उद्देश्य सदा परमात्मतत्त्वका ही होता है। परमात्मतत्त्व किसी कर्म, अभ्यास आदिका फल नहीं है। "
"फल उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होता है, पर परमात्मा नित्य रहते हैं। उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुको कर्मयोगी चाहता ही नहीं; क्योंकि उसकी चाहना ही परमात्मप्राप्तिमें बाधक है। एकमात्र परमात्माका ही उद्देश्य होनेसे कर्मयोगीको 'योगयुक्त' कहा गया है। यहाँ जिसे 'योगयुक्तः' कहा गया है, उसे ही छठे अध्यायके चौथे श्लोकमें 'योगारूढः' कहा गया है।
'कुर्वन्नपि न लिप्यते'- कर्मयोगी कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता। कर्मोंके बन्धनमें हेतु हैं- कर्मोंके प्रति ममता, कर्मोंके फलकी इच्छा, कर्मजन्य सुखकी इच्छा तथा उसका भोग और कर्तृत्वाभिमान * ।
* दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें कर्मयोगके स्वरूपका विवेचन करते हुए भगवान् ने 'मा कर्मफलहेतुर्भूः' पदोंसे कर्मोंके प्रति ममता, कर्मजन्य सुखकी इच्छा तथा उसका भोग और कर्तृत्वाभिमान मिटानेके लिये कहा है तथा 'मा फलेषु कदाचन' पदोंसे कर्मोंके फलकी इच्छा मिटानेके लिये कहा है।
सारांशमें कर्मोंसे कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छा ही बन्धनमें कारण है। किंचिन्मात्र भी पानेकी इच्छा न होनेके कारण कर्मयोगी कर्म करते हुए भी उनसे बँधता नहीं अर्थात् उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं।
सांख्ययोगी तो 'गुणा गुणेषु वर्तन्ते' (गीता ३। २८) 'गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं'- ऐसा मानकर कर्मोंसे नहीं बँधता, पर कर्मयोगी परहितके लिये कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता। केवल दूसरोंके लिये कर्म किये जानेसे उसके कर्म भी 'गुणा गुणेषु वर्तन्ते' की तरह ही हो जाते हैं।"
"यहाँ 'अपि' पदमें एक भाव यह भी है कि कर्मयोगी कर्म करते समय तो निर्लिप्त है ही, कर्म न करते समय भी वह निर्लिप्त है (गीता-चौथे अध्यायका अठारहवाँ श्लोक)। उसका कर्म करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता (गीता- तीसरे अध्यायका अठारहवाँ श्लोक)। वह सदा ही निर्लिप्त रहता है।
तात्पर्य है कि सांख्ययोगी जडताका त्याग करके चिन्मयताके साथ अपनी एकता मानता है और कर्मयोगी अपने कहलानेवाले शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदिकी संसारके साथ एकता मानता है अर्थात् पदार्थ, शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदिको और उनकी क्रियाओंको अपनी नहीं मानता; किन्तु उनको संसारकी और संसारके लिये ही मानता है। कर्मयोगी जब पदार्थ, मन, बुद्धि आदिको और उनकी क्रियाओंको केवल संसारकी ही मानता है, तो फिर उनके द्वारा किसीका हित हो गया, किसीको सुख पहुँचा, किसीका उपकार हो गया तो वह 'मैंने किया' 'मेरे द्वारा ऐसा हुआ' - ऐसा कैसे मान सकता है ? नहीं मान सकता। इसलिये वह कर्म करता हुआ भी कर्ता नहीं होता अर्थात् कर्मोंसे लिप्त नहीं होता।
परिशिष्ट भाव - शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरणसे सम्बन्ध-
विच्छेद होनेके कारण जब कर्मयोगीको सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ अपनी एकताका अनुभव हो जाता है, तब कर्म करते हुए भी उसमें कर्तापन नहीं रहता। कर्तापन न रहनेसे उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते (गीता - अठारहवें अध्यायका सत्रहवाँ श्लोक)।
सम्बन्ध-कर्मोंके होनेके विषयमें कर्मयोगीकी बात कहकर अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें सांख्ययोगके साधनकी बात कहते हैं।"
कल हम जानेंगे कि कैसे ज्ञानी व्यक्ति संसार के कार्यों में लिप्त रहते हुए भी उनसे प्रभावित नहीं होता।
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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