ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 17 - आत्मज्ञान का प्रकाश | भगवद गीता से प्रेरणा

 

"नमस्कार दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर, जहाँ हम हर दिन भगवद गीता के श्लोकों का ज्ञान साझा करते हैं। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 5 के श्लोक 17 की। आत्मज्ञान से कैसे हमारे जीवन में प्रकाश फैलता है, यही आज की मुख्य बात होगी। 


पिछले वीडियो में हमने श्लोक 15 और 16 पर चर्चा की थी, जहाँ कर्म और ज्ञान के समन्वय की बात की गई। अगर आपने वह वीडियो मिस किया है, तो जाकर ज़रूर देखें।


आज के श्लोक 17 में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मज्ञान को समझाने पर जोर दिया है। उन्होंने कहा कि जिनका मन सत्य में स्थिर है, वे ही परमात्मा को जानते हैं। उनके जीवन का हर क्षण ज्ञान से भरा होता है।"


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श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 17"

"ज्ञानयोगके एकान्त साधनका कथन ।


(श्लोक-१७)


तद्बुद्धयस्तदात्मानस्-तन्निष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥


उच्चारण की विधि - तद्बुद्धयः, तदात्मानः, तन्निष्ठाः, तत्परायणाः, गच्छन्ति, अपुनरावृत्तिम्, ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ १७ ॥


तदात्मानः अर्थात् जिनका मन तद्रूप हो रहा है, तद्बुद्धयः अर्थात् जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है (और), तन्निष्ठाः अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही जिनकी निरन्तर एकीभावसे स्थिति है, (ऐसे), तत्परायणाः अर्थात् तत्परायण पुरुष, ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः अर्थात् ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर, अपुनरावृत्तिम् अर्थात् अपुनरावृत्तिको अर्थात् परम गतिको, गच्छन्ति अर्थात् प्राप्त होते हैं।


अर्थ - जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही जिनकी निरन्तर एकीभावसे स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्तिको अर्थात् परमगतिको प्राप्त होते हैं ॥ १७ ॥"

"व्याख्या [परमात्मतत्त्वका अनुभव करनेके लिये दो प्रकारके साधन हैं- एक तो विवेकके द्वारा असत् का त्याग करनेपर सत् में स्वरूप-स्थिति स्वतः हो जाती है और दूसरा, सत् का चिन्तन करते-करते सत् की प्राप्ति हो जाती है। चिन्तनसे सत् की ही प्राप्ति होती है। असत् की प्राप्ति कर्मोंसे होती है, चिन्तनसे नहीं। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु कर्मसे मिलती है और नित्य परिपूर्ण तत्त्व चिन्तनसे मिलता है। चिन्तनसे परमात्मा कैसे प्राप्त होते हैं- इसकी विधि इस श्लोकमें बताते हैं।]


'तद्बुद्धयः ' - निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम 'बुद्धि' है। साधक पहले बुद्धिसे यह निश्चय करे कि सर्वत्र एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है। संसारके उत्पन्न होनेसे पहले भी परमात्मा थे और संसारके नष्ट होनेके बाद भी परमात्मा रहेंगे। बीचमें भी संसारका जो प्रवाह चल रहा है, उसमें भी परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं। इस प्रकार परमात्माकी सत्ता (होनेपन) में अटल निश्चय होना ही 'तद्बुद्धयः' पदका तात्पर्य है।


'तदात्मानः ' - यहाँ 'आत्मा' शब्द मनका वाचक है। जब बुद्धिमें एक परमात्मतत्त्वका निश्चय हो जाता है, तब मनसे स्वतः-स्वाभाविक परमात्माका ही चिन्तन होने लगता है। सब क्रियाएँ करते समय यह चिन्तन अखण्ड रहता है कि सत्तारूपसे सब जगह एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है। चिन्तनमें संसारकी सत्ता आती ही नहीं।"

"तन्निष्ठाः'- जब साधकके मन और बुद्धि परमात्मामें लग जाते हैं, तब वह हर समय परमात्मामें अपनी (स्वयंकी) स्वतः-स्वाभाविक स्थितिका अनुभव करता है। जबतक मन-बुद्धि परमात्मामें नहीं लगते अर्थात् मनसे परमात्माका चिन्तन और बुद्धिसे परमात्माका निश्चय नहीं होता, तबतक परमात्मामें अपनी स्वाभाविक स्थिति होते हुए भी उसका अनुभव नहीं होता।


'तत्परायणाः '- परमात्मासे अलग अपनी सत्ता न रहना ही परमात्माके परायण होना है। परमात्मामें अपनी स्थितिका अनुभव करनेसे अपनी सत्ता परमात्माकी सत्तामें लीन हो जाती है और स्वयं परमात्मस्वरूप हो जाता है।


जबतक साधक और साधनकी एकता नहीं होती, तबतक साधन छूटता रहता है, अखण्ड नहीं रहता। जब साधकपन अर्थात् अहंभाव मिट जाता है, तब साधन साध्यरूप ही हो जाता है; क्योंकि वास्तवमें साधन और साध्य - दोनोंमें नित्य एकता है।


'ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ' - ज्ञान अर्थात् सत्-असत् के विवेककी वास्तविक जागृति होनेपर असत् की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। असत् के सम्बन्धसे ही पाप-पुण्यरूप कल्मष होता है, जिनसे मनुष्य बँधता है। असत् से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर पाप-पुण्य मिट जाते हैं। 'गच्छन्त्यपुनरावृत्तिम्' - असत् का संग ही पुनरावृत्ति (पुनर्जन्म-) का कारण है-'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता १३।२१)। असत् का संग सर्वथा मिटनेपर पुनरावृत्तिका प्रश्न ही पैदा नहीं होता। "

"जो वस्तु एकदेशीय होती है, उसीका आना-जाना होता है। जो वस्तु सर्वत्र परिपूर्ण है, वह कहाँसे आये और कहाँ जाय ? परमात्मा सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, परिस्थिति आदिमें एकरस परिपूर्ण रहते हैं।  उनका कहीं आना-जाना नहीं होता। इसलिये जो महापुरुष परमात्मस्वरूप ही हो जाते हैं, उनका भी कहीं आना-जाना नहीं होता। श्रुति कहती है-


'न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति' (बृहदारण्यक० ४।४।६)


'उसके प्राणोंका उत्क्रमण नहीं होता; वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्मको प्राप्त होता है।'


उसके कहलानेवाले शरीरको लेकर ही यह कहा जाता है कि उसका पुनर्जन्म नहीं होता। वास्तवमें यहाँ 'गच्छन्ति' पदका तात्पर्य है-वास्तविक बोध होना, जिसके होते ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।


परिशिष्ट भाव- अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकताकी भावना मिटनेपर एक परमात्माके सिवाय अन्य किसीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती और साधक परमात्मस्वरूप ही हो जाता है, जो कि वास्तवमें स्वतः सिद्ध है। अतः उसके पुनः संसार-बन्धनमें आनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता- 'सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च' (गीता १४।२)।


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें वर्णित साधनद्वारा सिद्ध हुए महापुरुषका ज्ञान व्यवहारकालमें कैसा रहता है- इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।"

कल हम चर्चा करेंगे अध्याय 5 के श्लोक 18 की, जहाँ ज्ञान की समानता और ब्रह्मदृष्टि की बात होगी। तो जुड़े रहें।

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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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