शांति और स्थिरता का मार्ग | भगवद गीता: अध्याय 5, श्लोक 13 और 14 | जीवन के रहस्यों का खुलासा
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
नमस्कार दोस्तों! आपका स्वागत है हमारे विशेष भगवद्गीता श्लोक श्रृंखला में। हर दिन, हम आपके साथ एक श्लोक साझा करते हैं, उसका अर्थ समझाते हैं और आपके जीवन में उसे लागू करने के तरीके बताते हैं। आज हम चर्चा करेंगे अध्याय 5 के श्लोक 15 और 16 की।
पिछले वीडियो में हमने अध्याय 5 के श्लोक 13 और 14 पर चर्चा की, जहां भगवान ने कर्म त्याग और आत्मज्ञान का महत्व बताया।
आज हम चर्चा करेंगे श्लोक 15 और 16 की। भगवान कृष्ण बताते हैं कि व्यक्ति अपने कर्मों से बंधता है और ज्ञान ही हमें अज्ञान के अंधकार से मुक्त करता है।
"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 15 से 16"
"परमात्मा किसीके पाप-पुण्यको ग्रहण नहीं करता, इस विषयमें कथन।
(श्लोक-१५)
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥
उच्चारण की विधि - न, आदत्ते, कस्यचित्, पापम्, न, च, एव, सुकृतम्, विभुः, अज्ञानेन, आवृतम्, ज्ञानम्, तेन, मुह्यन्ति, जन्तवः ॥ १५ ॥
विभुः अर्थात् सर्वव्यापी परमेश्वर (भी), न अर्थात् न, कस्यचित् अर्थात् किसीके, पापम् अर्थात् पापकर्मको, च अर्थात् और, न अर्थात् न (किसीके), सुकृतम् अर्थात् शुभकर्मको, एव अर्थात् ही, आदत्ते अर्थात् ग्रहण करता है (किंतु), अज्ञानेन अर्थात् अज्ञानके द्वारा, ज्ञानम् अर्थात् ज्ञान, आवृतम् अर्थात् ढका हुआ है, तेन अर्थात् उसीसे, जन्तवः अर्थात् सब अज्ञानी मनुष्य, मुह्यन्ति अर्थात् मोहित हो रहे हैं।
अर्थ - सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसीके पापकर्मको और न किसीके शुभकर्मको ही ग्रहण करता है; किन्तु अज्ञानके द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उसीसे सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं ॥ १५ ॥"
"व्याख्या- 'नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ' - पूर्वश्लोकमें जिसको 'प्रभुः' पदसे कहा गया है, उसी परमात्माको यहाँ 'विभुः' पदसे कहा गया है।
कर्मफलका भागी होना दो प्रकारसे होता है- जो कर्म करता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है और जो दूसरेसे कर्म करवाता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है। परन्तु परमात्मा न तो किसीके कर्मको करनेवाला है और न कर्म करवानेवाला ही है; अतः वह किसीके भी कर्मका फलभागी नहीं हो सकता।
सूर्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाश देता है और उस प्रकाशके अन्तर्गत मनुष्य पाप और पुण्य-कर्म करते हैं; परन्तु उन कर्मोंसे सूर्यका किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्वसे प्रकृति सत्ता पाती है अर्थात् सम्पूर्ण संसार सत्ता पाता है। उसीकी सत्ता पाकर प्रकृति और उसका कार्य संसार-शरीरादि क्रियाएँ करते हैं। उन शरीरादिसे होनेवाले पाप-पुण्योंका परमात्मतत्त्वसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि भगवान् ने मनुष्यमात्रको स्वतन्त्रता दे रखी है; अतः मनुष्य उन कर्मोंका फलभागी अपनेको भी मान सकता है और भगवान् को भी मान सकता है अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों और कर्मफलोंको भगवान् के अर्पण भी कर सकता है। जो भगवान् की दी हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके कर्मोंका कर्ता और भोक्ता अपनेको मान लेता है, वह बन्धनमें पड़ जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण नहीं करते। परन्तु जो मनुष्य उस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करके कर्म और कर्मफल भगवान् के अर्पण करता है, वह मुक्त हो जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण करते हैं।"
"जैसे सातवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें 'सर्वस्य' पदसे और छब्बीसवें श्लोकमें 'कश्चन' पदसे सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, ऐसे ही यहाँ 'कस्यचित्' पदसे अपनेको कर्ता और भोक्ता मानकर कर्म करनेवाले सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, न कि भक्तोंकी। कारण कि भावग्राही होनेसे भगवान् भक्तोंके द्वारा अर्पण किये हुए पत्र, पुष्प आदि पदार्थोंको और सम्पूर्ण कर्मोंको ग्रहण करते हैं (गीता - नवें अध्यायका छब्बीसवाँ सत्ताईसवाँ श्लोक)।
'अज्ञानेनावृतं ज्ञानम्' - स्वरूपका ज्ञान सभी मनुष्योंमें स्वतःसिद्ध है; किन्तु अज्ञानके द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है। उस अज्ञानके कारण जीव मूढ़ताको प्राप्त हो रहे हैं। अपनेको कर्मोंका कर्ता मानना मूढ़ता है (गीता- तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। भगवान् के द्वारा मनुष्य- मात्रको विवेक दिया हुआ है, जिसके द्वारा इस मूढ़ताका नाश किया जा सकता है। इसलिये इस अध्यायके आठवें श्लोकमें कहा गया है कि सांख्ययोगी कभी भी अपनेको किसी कर्मका कर्ता न माने और तेरहवें श्लोकमें कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मोंके कर्तापनको विवेकपूर्वक मनसे छोड़ दे।
शरीरादि सम्पूर्ण पदार्थोंमें निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। स्वरूपमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। स्वरूपसे अपरिवर्तनशील होनेपर भी अपनेको परिवर्तनशील पदार्थोंसे एक मान लेना अज्ञान है। शरीरादि सब पदार्थ बदल रहे हैं - ऐसा जिसे अनुभव है वह स्वयं कभी नहीं बदलता। इसलिये स्वयंके बदलनेका अनुभव किसीको नहीं होता। अतः मैं बदलनेवाला नहीं हूँ- इस प्रकार परिवर्तनशील पदार्थोंसे अपनी असंगताका अनुभव कर लेनेसे अज्ञान मिट जाता है और तत्त्वज्ञान स्वतः प्रकाशित हो जाता है। "
"कारण कि प्रकृतिके कार्यसे अपना सम्बन्ध मानते रहनेसे ही तत्त्वज्ञान ढका रहता है। 'अज्ञान' शब्दमें जो 'नञ्' समास है, वह ज्ञानके अभावका वाचक नहीं है, प्रत्युत अल्पज्ञान अर्थात् अधूरे ज्ञानका वाचक है। कारण कि ज्ञानका अभाव कभी होता ही नहीं, चाहे उसका अनुभव हो या न हो। इसलिये अधूरे ज्ञानको ही अज्ञान कहा जाता है। इन्द्रियोंका और बुद्धिका ज्ञान ही अधूरा ज्ञान है। इस अधूरे ज्ञानको महत्त्व देनेसे, इसके प्रभावसे प्रभावित होनेसे वास्तविक ज्ञानकी ओर दृष्टि जाती ही नहीं - यही अज्ञानके द्वारा ज्ञानका आवृत होना है।
इन्द्रियोंका ज्ञान सीमित है। इन्द्रियोंके ज्ञानकी अपेक्षा बुद्धिका ज्ञान असीम है। परन्तु बुद्धिका ज्ञान मन और इन्द्रियोंके ज्ञान (जानने और न जानने) को ही प्रकाशित करता है अर्थात् बुद्धि अपने विषय-पदार्थोंको ही प्रकाशित करती है। बुद्धि जिस प्रकृतिका कार्य है और जिस बुद्धिका कारण प्रकृति है, उस प्रकृतिको बुद्धि प्रकाशित नहीं करती। बुद्धि जब प्रकृतिको भी प्रकाशित नहीं कर सकती, तब प्रकृतिसे अतीत जो चेतन-तत्त्व है, उसे कैसे प्रकाशित कर सकती है ! इसलिये बुद्धिका ज्ञान अधूरा ज्ञान है।
'तेन मुह्यन्ति जन्तवः ' - भगवान् ने 'जन्तवः' पद देकर मानो मनुष्योंकी ताड़ना की है कि जो मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व नहीं देते, वे वास्तवमें जन्तु अर्थात् पशु ही हैं; क्योंकि उनके और पशुओंके ज्ञानमें कोई अन्तर नहीं है।
१-आहारनिद्राभयमैथुनानि समानि चैतानि नृणां पशूनाम् । ज्ञानं नराणामधिको विशेषो ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः ॥
(चाणक्यनीति १७। १७)
'आहार, निद्रा, भय और मैथुन-ये मनुष्यों और पशुओंमें समान ही हैं। "
"मनुष्योंमें विशेषता यही है कि उनमें विवेक रहता है। विवेकसे शून्य मनुष्य तो पशुके समान हैं।'
आकृतिमात्रसे कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है, जो अपने विवेकको महत्त्व देता है। इन्द्रियोंके द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं; पर उन भोगोंको भोगना मनुष्य-जीवनका लक्ष्य नहीं है। मनुष्य-जीवनका लक्ष्य सुख-दुःखसे रहित तत्त्वको प्राप्त करना है। जिनको अपने कर्तव्य और अकर्तव्यका ठीक-ठीक ज्ञान है, वे मनुष्य साधक कहलानेयोग्य हैं।
अपनेको कर्मोंका कर्ता मान लेना तथा कर्मफलमें हेतु बनकर सुखी-दुःखी होना ही अज्ञानसे मोहित होना है। पाप- पुण्य हमें करने पड़ते हैं, इनसे हम कैसे छूट सकते हैं? सुखी-दुःखी होना हमारे कर्मोंका फल है, इनसे हम अतीत कैसे हो सकते हैं? - इस प्रकारकी धारणा बना लेना ही अज्ञानसे मोहित होना है।
जीव स्वरूपसे अकर्ता तथा सुख-दुःखसे रहित है। केवल अपनी मूर्खताके कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दुःखी होता है। इस मूढ़ता-(अज्ञान) को ही यहाँ 'तेन' पदसे कहा गया है। इस मूढ़तासे अज्ञानी मनुष्य सुखी-दुःखी हो रहे हैं, इस बातको यहाँ 'तेन मुह्यन्ति जन्तवः' पदोंसे कहा गया है।
परिशिष्ट भाव-जैसे अन्धकारमें सूर्यको ढकनेकी सामर्थ्य नहीं है, ऐसे ही अज्ञानमें ज्ञानको ढकनेकी सामर्थ्य नहीं है। अस्वाभाविकको स्वाभाविक मान लिया- यही अज्ञान है, जिससे मनुष्य मोहित हो जाता है। अतः अज्ञानके द्वारा ज्ञानको ढकनेकी बात केवल मूढ़तावश की गयी मान्यता है, वास्तविकता नहीं है। मनुष्य चाहे तो अपने विवेकको महत्त्व देकर इस मूढ़ताको मिटा सकता है (गीता - पाँचवें अध्यायका सोलहवाँ श्लोक)।"
"वास्तवमें ज्ञान नहीं ढकता, प्रत्युत बुद्धि ही ढकती है। परन्तु मनुष्यको ज्ञान ढका हुआ दीखता है, इसलिये यहाँ 'आवृत' शब्द दिया है। यही बात तीसरे अध्यायके उनतालीसवें श्लोकमें भी 'आवृतं ज्ञानमेतेन' पदोंसे कही गयी है। अज्ञान अभावरूप है, उसकी सत्ता नहीं है। जिसका अभाव है, उससे आवरण नहीं हो सकता। अतः उलटा ज्ञान अर्थात् अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकताका आरोप ही अज्ञान है।
२-अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या । (योगदर्शन २।५)
'अनित्यमें नित्य, अपवित्रमें पवित्र, दुःखमें सुख और अनात्मामें आत्मभावकी अनुभूति अविद्या है।' अगर अस्वाभाविकता मिटकर स्वाभाविकता हो जाय तो सर्वव्यापी परमात्माके साथ एकताका अनुभव हो जायगा। व्यक्तित्व ही पाप-पुण्यको, सुकृत-दुष्कृतको ग्रहण करता है; अतः सर्वव्यापी परमात्माके साथ एकताका अनुभव होनेपर अर्थात् व्यक्तित्व मिटनेपर फिर पाप-पुण्यका ग्रहण नहीं होता।
अज्ञान अर्थात् उलटे ज्ञान (अस्वाभाविकमें स्वाभाविक बुद्धि) के कारण मनुष्य 'जन्तु' हो जाता है- 'तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।' इसी तरह जड़से सम्बन्ध माननेके कारण जीव 'जगत्' (जड़) हो जाता है (गीता - सातवें अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)। जो हमसे घुला-मिला हुआ है, उस परमात्माको तो अपनेसे अलग मान लिया और जो हमसे अलग है, उस शरीरको अपनेसे घुला-मिला मान लिया - यह अज्ञान है।
सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि अज्ञानके द्वारा ज्ञान ढका जानेके कारण सब जीव मोहित हो रहे हैं। अपने विवेकके द्वारा उस अज्ञानका नाश कर देनेपर जिस ज्ञानका उदय होता है, उसकी महिमा आगेके श्लोकमें कहते हैं।"
"सूर्यके दृष्टान्तसे ज्ञानकी महिमा। (श्लोक-१६)
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥
उच्चारण की विधि - ज्ञानेन, तु, तत्, अज्ञानम्, येषाम्, नाशितम्, आत्मनः, तेषाम्, आदित्यवत्, ज्ञानम्, प्रकाशयति, तत्परम् ॥ १६ ॥
तु अर्थात् परंतु, येषाम् अर्थात् जिनका, तत् अर्थात् वह, अज्ञानम् अर्थात् अज्ञान, आत्मनः अर्थात् परमात्माके, ज्ञानेन अर्थात् तत्त्वज्ञानद्वारा, नाशितम् अर्थात् नष्ट कर दिया गया है, तेषाम् अर्थात् उनका (वह), ज्ञानम् अर्थात् ज्ञान, आदित्यवत् अर्थात् सूर्यके सदृश, तत्परम् अर्थात् उस सच्चिदानन्दघन परमात्माको, प्रकाशयति अर्थात् प्रकाशित कर देता है।
अर्थ - परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्माके तत्त्वज्ञानद्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्यके सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्रकाशित कर देता है ॥ १६ ॥"
"व्याख्या- 'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः '- पीछेके श्लोकमें कही बातसे विलक्षण बात बतानेके लिये यहाँ 'तु' पदका प्रयोग किया गया है।
पीछेके श्लोकमें जिसको 'अज्ञानेन' पदसे कहा था, उसको ही यहाँ 'तत् अज्ञानम्' पदसे कहा गया है।
अपनी सत्ताको और शरीरको अलग-अलग मानना 'ज्ञान' है और एक मानना 'अज्ञान' है।
उत्पत्ति-विनाशशील संसारके किसी अंशमें तो हमने अपनेको रख लिया अर्थात् मैं-पन (अहंता) कर लिया और किसी अंशको अपनेमें रख लिया अर्थात् मेरापन (ममता) कर लिया। अपनी सत्ताका तो निरन्तर अनुभव होता है और मैं-मेरापन बदलता हुआ प्रत्यक्ष दीखता है; जैसे - पहले मैं बालक था और खिलौने आदि मेरे थे, अब मैं युवा या वृद्ध हूँ और स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि मेरे हैं। इस प्रकार मैं- मेरेपनके परिवर्तनका ज्ञान हमें है, पर अपनी सत्ताके परिवर्तनका ज्ञान हमें नहीं है- यह ज्ञान अर्थात् विवेक है।
मैं-मेरेपनको जडके साथ न मिलाकर साधक अपने विवेकको महत्त्व दे कि मैं-मेरापन जिससे मिलाता हूँ, वह सब बदलता है; परन्तु मैं-मेरा कहलानेवाला मैं (मेरी सत्ता) वही रहता हूँ। जडका बदलना और अभाव तो समझमें आता है, पर स्वयंका बदलना और अभाव किसीकी समझमें नहीं आता; क्योंकि स्वयंमें किंचित् भी परिवर्तन और अभाव कभी होता ही नहीं इस विवेकके द्वारा मैं-मेरेपनका त्याग कर दे कि शरीर 'मैं' नहीं और बदलनेवाली वस्तु 'मेरी' नहीं। यही विवेकके द्वारा अज्ञानका नाश करना है। परिवर्तनशीलके साथ अपरिवर्तनशीलका सम्बन्ध अज्ञानसे अर्थात् विवेकको महत्त्व न देनेसे है। जिसने विवेकको जाग्रत् करके परिवर्तनशील मैं मेरेपनके सम्बन्धका विच्छेद कर दिया है, उसका वह विवेक सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्रकाशित कर देता है अर्थात् अनुभव करा देता है।"
"तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्' - विवेकके सर्वथा जाग्रत् होनेपर परिवर्तनशीलकी निवृत्ति हो जाती है। परिवर्तनशीलकी निवृत्ति होनेपर अपने स्वरूपका स्वच्छ बोध हो जाता है, जिसके होते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व प्रकाशित हो जाता है अर्थात् उसके साथ अभिन्नताका अनुभव हो जाता है।
यहाँ 'परम्' पद परमात्मतत्त्वके लिये प्रयुक्त हुआ है। दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें तथा तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भी परमात्मतत्त्वके लिये 'परम्' पद आया है।
'प्रकाशयति' पदका तात्पर्य है कि सूर्यका उदय होनेपर नयी वस्तुका निर्माण नहीं होता, प्रत्युत अन्धकारसे ढके जानेके कारण जो वस्तु दिखायी नहीं दे रही थी, वह दीखने लग जाती है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध है, पर अज्ञानके कारण उसका अनुभव नहीं हो रहा था। विवेकके द्वारा अज्ञान मिटते ही उस स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका अनुभव होने लग जाता है।
परिशिष्ट भाव-अज्ञानका नाश विवेकसे ही होता है, उद्योगसे नैनं नहीं - 'यतन्तोऽप्यकृतात्मानो पश्यन्त्यचेतसः' (गीता १५। ११)। कारण कि अज्ञानका नाश क्रियासाध्य, परिश्रमसाध्य नहीं है। परिश्रम करनेसे शरीरके साथ सम्बन्ध बना रहता है; क्योंकि शरीरसे सम्बन्ध जोड़े बिना परिश्रम नहीं होता। दूसरी बात, अज्ञानको हटानेका उद्योग करनेसे अज्ञान दृढ़ होता है; क्योंकि उसकी सत्ता मानकर ही उसको हटानेका उद्योग करते हैं।
अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकताकी विपरीत भावना
(अज्ञान) अपनेमें ही है। अतः विवेकका आदर करनेसे उसका निराकरण हो जाता है।
सम्बन्ध-जिस स्थितिमें सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है, उस स्थितिकी प्राप्तिके लिये आगेके श्लोकमें साधन बताते हैं।"
कल हम अध्याय 5 के श्लोक 17 की चर्चा करेंगे, जहां ज्ञान और ध्यान की शक्ति का वर्णन किया जाएगा।
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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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