ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 13 से 14 - शांति और स्थिरता का मार्ग

 


"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


"नमस्ते दोस्तों! स्वागत है आपका हमारे चैनल पर। आज हम भगवद गीता के अध्याय 5 के श्लोक 13 और 14 पर चर्चा करेंगे। जानिए कैसे त्याग और कर्मयोग के माध्यम से जीवन में शांति और स्थिरता प्राप्त की जा सकती है।

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पिछले वीडियो में हमने श्लोक 11 और 12 पर चर्चा की थी, जिसमें कर्म के महत्व और मानसिक संतुलन की बात की गई थी।

श्लोक 13 और 14 में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि जब व्यक्ति अपने मन और इंद्रियों को वश में कर लेता है और हर कर्म को समर्पण की भावना से करता है, तो उसे आंतरिक शांति प्राप्त होती है।

"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 13 से 14"

"सांख्ययोगीकी स्थितिका कथन ।


(श्लोक-१३)


सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥


उच्चारण की विधि - सर्वकर्माणि, मनसा, सन्न्यस्य, आस्ते, सुखम्, वशी, नवद्वारे, पुरे, देही, न, एव, कुर्वन्, न, कारयन् ॥ १३॥


वशी अर्थात् अन्तःकरण जिसके वशमें है ऐसा सांख्ययोगका आचरण करनेवाला, देही अर्थात् पुरुष, न अर्थात् न, कुर्वन् अर्थात् करता हुआ (और), न अर्थात् न, कारयन् अर्थात् करवाता हुआ, एव अर्थात् ही, नवद्वारे अर्थात् नवद्वारोंवाले शरीररूप, पुरे अर्थात् घरमें, सर्वकर्माणि अर्थात् सब  कर्मोंको, मनसा अर्थात् मनसे, सन्न्यस्य अर्थात् त्यागकर, सुखम् अर्थात् आनन्दपूर्वक (सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें), आस्ते अर्थात् स्थित रहता है।


अर्थ - अन्तःकरण जिसके वशमें है ऐसा सांख्ययोगका आचरण करनेवाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारोंवाले शरीररूप घरमें सब कर्मोंको मनसे त्यागकर आनन्दपूर्वक सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें स्थित रहता है ॥ १३ ॥"

"व्याख्या'वशी देही'- इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति होनेसे ही ये मनुष्यपर अपना अधिकार जमाते हैं। ममता-आसक्ति न रहनेपर ये स्वतः अपने वशमें रहते हैं। सांख्ययोगीकी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता- आसक्ति न रहनेसे ये सर्वथा उसके वशमें रहते हैं। इसलिये यहाँ उसे 'वशी' कहा गया है।


जबतक किसी भी मनुष्यका प्रकृतिके कार्य (शरीर, इन्द्रियों आदि) के साथ किंचिन्मात्र भी कोई प्रयोजन रहता है, तबतक वह प्रकृतिके 'अवश' अर्थात् वशीभूत रहता है - 'कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः' (गीता ३। ५)। प्रकृति सदैव क्रियाशील रहती है। अतः प्रकृतिसे सम्बन्ध बना रहनेके कारण मनुष्य कर्मरहित हो ही नहीं सकता। परन्तु प्रकृतिके कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण - तीनों शरीरोंसे ममता-आसक्तिपूर्वक कोई सम्बन्ध न होनेसे सांख्ययोगी उनकी क्रियाओंका कर्ता नहीं बनता। यद्यपि सांख्ययोगीका शरीरके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं होता, तथापि लोगोंकी दृष्टिमें वह शरीरधारी ही दीखता है। इसलिये उसे 'देही' कहा गया है।


'नवद्वारे पुरे' - शब्दादि विषयोंका सेवन करनेके लिये दो कान, दो नेत्र, दो नासिकाछिद्र तथा एक मुख-ये सात द्वार शरीरके ऊपरी भागमें हैं, और मल-मूत्रका त्याग करनेके लिये गुदा और उपस्थ - ये दो द्वार शरीरके निचले भागमें हैं। इन नौ द्वारोंवाले शरीरको 'पुर' अर्थात् नगर कहनेका तात्पर्य यह है कि जैसे नगर और उसमें रहनेवाला मनुष्य-दोनों अलग-अलग होते हैं, ऐसे ही यह शरीर और इसमें रहनेका भाव रखनेवाला जीवात्मा- दोनों अलग- अलग हैं। जैसे नगरमें रहनेवाला मनुष्य नगरमें होनेवाली क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ नहीं मानता, ऐसे ही सांख्ययोगी शरीरमें होनेवाली क्रियाओंको अपनी क्रियाएँ नहीं मानता।"

"सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य' - इसी अध्यायके आठवें-नवें श्लोकोंमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और प्राणोंके द्वारा होनेवाली जिन तेरह क्रियाओंका वर्णन हुआ है, उन सब क्रियाओंका बोधक यहाँ 'सर्वकर्माणि' पद है। यहाँ 'मनसा सन्यस्य' पदोंका अभिप्राय है- विवेकपूर्वक मनसे त्याग करना। यदि इन पदोंका अर्थ केवल मनसे त्याग करना माना जाय तो दोष आता है; क्योंकि मनसे त्याग करना भी मनकी एक क्रिया है और गीता मनसे होनेवाली क्रियाको 'कर्म' मानती है शरीरसे होनेवाली क्रियाओंके कर्तापनका मनसे त्याग करनेपर भी मनकी (त्यागरूप) क्रियाका कर्तापन तो रह ही गया ! अतः 'मनसा सन्न्यस्य' पदोंका तात्पर्य है- विवेकपूर्वक मनसे क्रियाओंके कर्तापनका त्याग करना अर्थात् कर्तापनसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करना। जहाँसे कर्तापनका सम्बन्ध माना है, वहींसे उस सम्बन्धका त्याग करना है। सांख्ययोगी अपनेमें कर्तापन न मानकर उसे शरीरमें ही छोड़ देता है अर्थात् कर्तापन शरीरमें ही है, अपनेमें कभी नहीं।


- 'शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः' (१८। १५)। 'नैव कुर्वन्न कारयन्' - सांख्ययोगीमें कर्तृत्व और कारयितृत्व - दोनों ही नहीं होते अर्थात् वह करनेवाला भी नहीं होता और करवानेवाला भी नहीं होता।


शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे किंचिन्मात्र भी अहंता- ममताका सम्बन्ध न होनेके कारण सांख्ययोगी उनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंका कर्ता अपनेको कैसे मान सकता है? अर्थात् कभी नहीं मान सकता। इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें भी 'नैव किञ्चित् करोमि' पदोंसे यही बात कही गयी है। तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भी भगवान् ने 'शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति' पदोंसे कहा है कि शरीरमें रहते हुए भी यह अविनाशी आत्मा कुछ नहीं करता।"

"यहाँ शंका होती है कि जीवात्मा स्वयं कोई कर्म नहीं करता; किन्तु वह प्रेरक बनकर कर्म तो करवा सकता है ? इसका समाधान यह है कि जैसे सूर्यभगवान् का उदय होनेपर सम्पूर्ण जगत् में प्रकाश छा जाता है, लोग अपने- अपने कामोंमें लग जाते हैं, कोई खेती करता है, कोई वेदपाठ करता है, कोई व्यापार करता है आदि। परन्तु सूर्यभगवान् विहित या निषिद्ध किसी भी क्रियाके प्रेरक नहीं होते। उनसे सबको प्रकाश मिलता है, पर उस प्रकाशका कोई सदुपयोग करे या दुरुपयोग, इसमें सूर्यभगवान् की कोई प्रेरणा नहीं है। यदि उनकी प्रेरणा होती तो पाप या पुण्य- कर्मोंका भागी भी उन्हींको होना पड़ता। ऐसे ही चेतनतत्त्वसे प्रकृतिको सत्ता और शक्ति तो प्राप्त होती है, पर वह किसी क्रियाका प्रेरक नहीं होता। यही बात भगवान् ने यहाँ 'न कारयन्' पदोंसे कही है।


'आस्ते सुखम्' - मनुष्यमात्रकी स्वरूपमें स्वाभाविक स्थिति है; परन्तु वे अपनी स्थिति शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिमें मान लेते हैं, जिससे उन्हें इस स्वाभाविक स्थितिका अनुभव नहीं होता। परन्तु सांख्ययोगीको निरन्तर स्वरूपमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता रहता है। स्वरूप सदा-सर्वदा सुख-स्वरूप है। वह सुख अखण्ड, एकरस और परिच्छिन्नतासे रहित है।


एक वस्तुकी दूसरी वस्तुमें जैसी स्थिति होती है, स्वरूपमें वैसी स्थिति नहीं होती। कारण कि स्वरूप ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है। उस स्वरूपमें मनुष्यकी स्थिति स्वतः- स्वाभाविक है; अतः उसमें स्थित होनेमें कोई श्रम, उद्योग नहीं है। स्वरूपको पहचाननेपर एक स्वरूप-ही-स्वरूप रह जाता है। "

"पहचानमात्रको समझानेके लिये ही यहाँ 'आस्ते' पदका प्रयोग हुआ है। इसे ही चौदहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें 'स्वस्थः' पदसे कहा गया है। यहाँ 'आस्ते' क्रिया जिस तत्त्वकी सत्ताको प्रकट कर रही है, वह सब आधारोंका आधार है। समस्त उत्पन्न तत्त्व उस अनुत्पन्न तत्त्वके आश्रित हैं। उस सर्वाधिष्ठानरूप तत्त्वको किसी आधारकी आवश्यकता ही क्या है ? उस स्वतः सिद्ध तत्त्वमें स्वाभाविक स्थितिको ही यहाँ 'आस्ते' पदसे कहा गया है। इसे ही आगे बीसवें श्लोकमें 'ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः' पदोंसे कहा गया है।


परिशिष्ट भाव - 'नैव कुर्वन्न कारयन्' - तत्त्वप्राप्तिमें करनेका भाव ही बाधक है। करनेके भावसे ही कर्तृत्व आता है और कर्तृत्वसे व्यक्तित्व आता है। क्रिया प्रकृतिमें है, स्वरूपमें स्वतः अक्रियता है। अतः करनेसे प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जुड़ता है और कुछ नहीं करनेसे स्वरूपमें स्वतः स्थिति होती है। मेरेको कुछ नहीं करना है - यह भाव भी 'करने' के ही अन्तर्गत है। अतः करनेसे भी मतलब नहीं होना चाहिये और न करनेसे भी मतलब नहीं होना चाहिये - 'नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन' (गीता ३। १८)। स्वरूप करने और न करने- दोनोंसे रहित अर्थात् निरपेक्ष तत्त्व है।


वशी - गुणोंके संगसे ही जीव 'अवश' अर्थात् पराधीन होता है (गीता-तीसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)। ज्ञानयोगसे अवशता मिट जाती है और जीव 'वशी' अर्थात् स्वाधीन, निरपेक्ष जीवन हो जाता है।


सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें कहा गया कि सांख्ययोगी न तो कर्म करता है और न करवाता ही है; किन्तु भगवान् तो कर्म करवाते होंगे ? इसके उत्तरमें आगेका श्लोक कहते हैं।"


"परमात्मामें कर्तापनके अभावका कथन ।


(श्लोक-१४)


न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥


उच्चारण की विधि - न, कर्तृत्वम्, न, कर्माणि, लोकस्य, सृजति, प्रभुः, न, कर्मफलसंयोगम्, स्वभावः, तु, प्रवर्तते ॥ १४॥


प्रभुः अर्थात् परमेश्वर, लोकस्य अर्थात् मनुष्योंके, न अर्थात् न (तो), कर्तृत्वम् अर्थात् कर्तापनकी, न अर्थात् न, कर्माणि अर्थात् कर्मोंकी (और), न अर्थात् न, कर्मफलसंयोगम् अर्थात् कर्मफलके संयोगकी (ही), सृजति अर्थात् रचना करते हैं, तु अर्थात् किंतु, स्वभावः अर्थात् स्वभाव (ही), प्रवर्तते अर्थात् बरत रहा है।


अर्थ - परमेश्वर मनुष्योंके न तो कर्तापनकी, न कर्मोंकी और न कर्मफलके संयोगकी ही रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है ॥ १४ ॥"

"व्याख्या- 'न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः' - सृष्टिकी रचनाका कार्य सगुण भगवान् का है, इसलिये 'प्रभुः' पद दिया है। भगवान् सर्वसमर्थ हैं और सबके शासक, नियामक हैं। सृष्टिरचनाका कार्य करनेपर भी वे अकर्ता ही हैं (गीता - चौथे अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)।


किसी भी कर्मके कर्तापनका सम्बन्ध भगवान् का बनाया हुआ नहीं है। मनुष्य स्वयं ही कर्मोंके कर्तापनकी रचना करता है। सम्पूर्ण कर्म प्रकृतिके द्वारा किये जाते हैं; परन्तु मनुष्य अज्ञानवश प्रकृतिसे तादात्म्य कर लेता है और उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंका कर्ता बन जाता है (गीता- तीसरे अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। यदि कर्तापनका सम्बन्ध भगवान् का बनाया हुआ होता, तो भगवान् इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें 'नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्' - ऐसा कैसे कहते ? तात्पर्य यह है कि कर्तापन भगवान् का बनाया हुआ नहीं है, अपितु जीवका अपना माना हुआ है। अतः जीव इसका त्याग कर सकता है।


भगवान् ऐसा विधान भी नहीं करते कि अमुक जीवको अमुक शुभ अथवा अशुभ कर्म करना पड़ेगा। यदि ऐसा विधान भगवान् कर देते तो विधि-निषेध बतानेवाले शास्त्र, गुरु, शिक्षा आदि सब व्यर्थ हो जाते, उनकी कोई सार्थकता ही नहीं रहती और कर्मोंका फल भी जीवको नहीं भोगना पड़ता। 'न कर्माणि' पदोंसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र है।


'न कर्मफलसंयोगम्' - जीव जैसा कर्म करता है, वैसा फल उसे भोगना पड़ता है। जड होनेके कारण कर्म स्वयं अपना फल भुगतानेमें असमर्थ हैं। अतः कर्मोंके फलका विधान भगवान् करते हैं- 'लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्' (गीता ७। २२) । भगवान् कर्मोंका फल तो देते हैं, पर उस फलके साथ सम्बन्ध भगवान् नहीं जोड़ते, प्रत्युत जीव स्वयं जोड़ता है।"

"जीव अज्ञानवश कर्मोंका कर्ता बनकर और कर्मफलमें आसक्त होकर कर्मफलके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और इसीसे सुखी-दुःखी होता है। यदि वह कर्मफलके साथ स्वयं अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो वह कर्मफलके सम्बन्धसे मुक्त रह सकता है। ऐसे कर्मफलसे सम्बन्ध न जोड़नेवाले पुरुषोंके लिये अठारहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें 'सन्न्यासिनाम्' पद आया है। उन्हें कर्मोंका फल इस लोक या परलोकमें कहीं नहीं मिलता। यदि कर्मफलका सम्बन्ध भगवान् ने जोड़ा होता तो जीव कभी कर्मफलसे मुक्त नहीं होता।


दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं - 'मा कर्मफलहेतुर्भूः' अर्थात् कर्मफलका हेतु भी मत बन। तात्पर्य हुआ कि सुखी-दुःखी होना अथवा न होना और कर्मफलका हेतु बनना अथवा न बनना मनुष्यके हाथमें है। यदि कर्मफलका सम्बन्ध भगवान् का बनाया हुआ होता, तो मनुष्य कभी सुख-दुःखमें सम नहीं हो पाता और निष्कामभावसे कर्म भी नहीं कर पाता, जिसे करनेकी बात भगवान् ने गीतामें जगह-जगह कही है (जैसे चौथे अध्यायका बीसवाँ, पाँचवें अध्यायका बारहवाँ और चौदहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक आदि)। 


शंका-श्रुतिमें आता है कि भगवान् जिसकी ऊर्ध्वगति करना चाहते हैं, उससे तो शुभ-कर्म करवाते हैं और जिसकी अधोगति करना चाहते हैं, उससे अशुभ-कर्म करवाते हैं। १-'एष होव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषत एष ह्येवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते ।' (कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद् ३।८)


जब भगवान् ही शुभाशुभ कर्म करवाते हैं, तो फिर 'भगवान् किसीके कर्तृत्व, कर्म और कर्मफलसंयोगकी रचना नहीं करते'- ऐसा कहना तो श्रुतिके साथ विरोध हुआ !"

"समाधान-वास्तवमें श्रुतिके उपर्युक्त कथनका तात्पर्य शुभाशुभ कर्म करवाकर मनुष्यकी ऊर्ध्वगति और अधोगति करनेमें नहीं है, प्रत्युत प्रारब्धके अनुसार कर्मफल भुगताकर उसे शुद्ध करनेमें है अर्थात् मनुष्य शुभाशुभ कर्मोंका फल जैसे भोग सके, भगवान् कृपापूर्वक उसे कर्मबन्धनसे मुक्त करके अपना वास्तविक प्रेम प्रदान करनेके लिये (उसके प्रारब्धके अनुसार) वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं।


२-मूलमें शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) कर्म मनुष्य कामनाके वशीभूत होकर ही करता है (गीता ३। ३७), जिनका फल क्रमशः ऊर्ध्वगति (स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति) और अधोगति (नरकोंकी प्राप्ति) होता है। मनुष्य मुक्तिके लिये भगवान् की दी हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके ही कामना करता है। 


जैसे, जिस मनुष्यको प्रारब्धके अनुसार धनकी प्राप्ति होनेवाली है, उसे व्यापार आदिमें वैसी ही (खरीदने आदिकी) प्रेरणा कर देते हैं अर्थात् उस समय उसकी वैसी ही बुद्धि बन जाती है और जिसे प्रारब्धके अनुसार हानि होनेवाली है, उसे व्यापार आदिमें वैसी ही प्रेरणा कर देते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जिस प्रकारसे अपने शुभाशुभ कर्मोंका फल भोग सके, भगवत्प्रेरणासे वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बन जाती है। यदि श्रुतिका यही अर्थ लिया जाय कि भगवान् जिसकी ऊर्ध्वगति और अधोगति करना चाहते हैं, उससे शुभ और अशुभ-कर्म करवाते हैं, तो मनुष्य कर्म करनेमें सर्वथा पराधीन हो जायगा और शास्त्रों, सन्त-महात्माओं आदिका विधि-निषेध, गुरुकी शिक्षा आदि सभी व्यर्थ हो जायँगे। अतः यहाँ श्रुतिका तात्पर्य कर्मोंका फल भुगताकर मनुष्यको शुद्ध करना ही है।"

"स्वभावस्तु प्रवर्तते'- कर्तापन, कर्म और कर्मफलका सम्बन्ध-इन तीनोंको मनुष्य अपने स्वभावके वशमें होकर करता है। यहाँ 'स्वभावः' पद व्यष्टि प्रकृति (आदत) का वाचक है, जिसे स्वयं जीवने बनाया है। जबतक स्वभावमें राग-द्वेष रहते हैं, तबतक स्वभाव शुद्ध नहीं होता। जबतक स्वभाव शुद्ध नहीं होता, तबतक जीव स्वभावके वशीभूत रहता है।


तीसरे अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें 'प्रकृतिं यान्ति भूतानि' पदोंसे भगवान् ने कहा है कि मनुष्योंको अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभावके वशीभूत होकर कर्म करने पड़ते हैं। यही बात भगवान् यहाँ 'तु स्वभावः प्रवर्तते' पदोंसे कह रहे हैं। जबतक प्रकृति अर्थात् स्वभावसे जीवका सम्बन्ध माना हुआ है, तबतक कर्तापन, कर्म और कर्मफलके साथ संयोग - इन तीनोंमें जीवकी परतन्त्रता बनी रहेगी, जो जीवकी ही बनायी हुई है। उपर्युक्त पदोंसे भगवान् यह कह रहे हैं कि कर्तृत्व, कर्म और कर्मफलसंयोग (भोक्तृत्व) - तीनों जीवके अपने बनाये हुए हैं, इसलिये वह स्वयं इनका त्याग करके निर्लिप्तताका अनुभव कर सकता है।


परिशिष्ट भाव-कर्तापन, कर्म और कर्मफलका संयोग परमात्माकी सृष्टि नहीं है, प्रत्युत जीवकी सृष्टि है। इसलिये जीवपर ही इनके त्यागकी जिम्मेवारी है। 'स्वभावस्तु प्रवर्तते' - वास्तवमें संसारके साथ सम्बन्ध-विच्छेद स्वाभाविक है; परन्तु अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकता देखनेके कारण संसारका सम्बन्ध स्वाभाविक दीखने लग गया। यह स्वभाव स्वतः नहीं है, प्रत्युत बनाया हुआ (कृत्रिम) है।


सम्बन्ध-जब भगवान् किसीके कर्तृत्व, कर्म और कर्मफल- संयोगकी रचना नहीं करते, तो फिर वे किसीके कर्मोंके फलभागी कैसे हो सकते हैं?- इस बातको आगेके श्लोकमें स्पष्ट करते हैं।"

कल हम श्लोक 15 और 16 की चर्चा करेंगे, जहाँ भगवान ज्ञान और अज्ञान के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हैं।

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याद रखें, हर समस्या का समाधान हमारे भीतर ही है। भगवद्गीता का ज्ञान हमें यह सिखाता है कि हम कैसे अपने भीतर की शक्ति को पहचान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। कल मिलते हैं एक और रोमांचक श्लोक के साथ. तब तक के लिए, अपना ध्यान रखें और भगवद्गीता की सीख को अपने जीवन में उतारते रहें.


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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