ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 5 श्लोक 10 से 11 - कर्मों को ईश्वर को समर्पित करने का रहस्य



 "श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या कर्म करते हुए भी बंधन मुक्त रहा जा सकता है? आज के श्लोकों में श्रीकृष्ण से जानें कि कैसे कर्म ईश्वर को समर्पित करके जीवन में शांति और मुक्ति प्राप्त करें।

पिछले श्लोकों में हमने सीखा कि ज्ञानी व्यक्ति हर कार्य को प्रकृति का कार्य मानता है और अपने अहंकार से मुक्त रहता है।

"श्लोक 10:

'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥'


अर्थ:

जो व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करके करता है और संग (असक्ति) को त्याग देता है, वह कमल के पत्ते की तरह पाप से अप्रभावित रहता है।


श्लोक 11:

'कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥'


अर्थ:

योगी अपने शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों से कर्म करते हुए, आसक्ति को त्यागकर आत्मा की शुद्धि के लिए कर्म करता है।


व्याख्या:

इन श्लोकों में श्रीकृष्ण बताते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अपने कार्यों को ईश्वर को अर्पित करता है और फल की आसक्ति त्याग देता है, तो वह सांसारिक बंधनों और पापों से मुक्त रहता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन कमल की तरह होता है, जो जल में रहकर भी उससे प्रभावित नहीं होता।"

"भगवतगीता अध्याय 5 श्लोक 10 से 11"

"भगवदर्पण बुद्धिसे कर्म करनेवालेकी और कर्मप्रधान कर्मयोगीकी प्रशंसा करके कर्मयोगियोंके कर्मोंको आत्मशुद्धिमें हेतु बतलाना।


(श्लोक-१०)


ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ 


उच्चारण की विधि - ब्रह्मणि, आधाय, कर्माणि, सङ्गम्, त्यक्त्वा, करोति, यः, लिप्यते, न, सः, पापेन, पद्मपत्रम्, इव, अम्भसा ॥ १० ॥


यः अर्थात् जो पुरुष, कर्माणि अर्थात् सब कर्मोंको, ब्रह्मणि अर्थात्  परमात्मामें, आधाय अर्थात् अर्पण करके (और), सङ्गम् अर्थात् आसक्तिको, त्यक्त्वा अर्थात् त्यागकर (कर्म), करोति अर्थात् करता है, सः अर्थात् वह पुरुष, अम्भसा अर्थात् जलसे, पद्मपत्रम् अर्थात् कमलके पत्तेकी, इव अर्थात् भाँति, पापेन अर्थात् पापसे, न लिप्यते अर्थात् लिप्त नहीं होता।


अर्थ - जो पुरुष सब कर्मोंको परमात्मामें अर्पण करके और आसक्तिको त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जलसे कमलके पत्तेकी भाँति पापसे लिप्त नहीं होता ॥ १० ॥"

"व्याख्या-'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि' - शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब भगवान् के ही हैं, अपने हैं ही नहीं; अतः इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको भक्तियोगी अपनी कैसे मान सकता है ? इसलिये उसका यह भाव रहता है कि मात्र क्रियाएँ भगवान् के द्वारा ही हो रही हैं और भगवान् के लिये ही हो रही हैं; मैं तो निमित्तमात्र हूँ।


भगवान् ही अपनी (मेरी) इन्द्रियोंके द्वारा आप ही सम्पूर्ण क्रियाएँ करते हैं- इस बातको ठीक-ठीक धारण करके सम्पूर्ण क्रियाओंके कर्तापनको भगवान् में ही मानना, यही उपर्युक्त पदोंका अर्थ है।


शरीरादि वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं, प्रत्युत मिली हुई हैं और बिछुड़ रही हैं। ये केवल भगवान् के नाते, भगवत्प्रीत्यर्थ दूसरोंकी सेवा करनेके लिये मिली हैं। इन वस्तुओंपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है अर्थात् इनको अपने इच्छानुसार न तो रख सकते हैं, न बदल सकते हैं और न मरनेपर साथ ही ले जा सकते हैं। इसलिये इन शरीरादिको तथा इनसे होनेवाली क्रियाओंको अपनी मानना ईमानदारी नहीं है। अतः मनुष्यको ईमानदारीके साथ जिसकी ये वस्तुएँ हैं, उसीकी अर्थात् भगवान् की मान लेनी चाहिये।


सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंको कर्मयोगी 'संसार' के, ज्ञानयोगी 'प्रकृति' के और भक्तियोगी 'भगवान्' के अर्पण करता है। प्रकृति और संसार - दोनोंके ही स्वामी भगवान् हैं। अतः क्रियाओं और पदार्थोंको भगवान् के अर्पण करना ही श्रेष्ठ है।


'सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः' - किसी भी प्राणी, पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, क्रिया आदिमें किंचिन्मात्र भी राग, खिंचाव, आकर्षण, लगाव, महत्त्व, ममता, कामना आदिका न रहना ही आसक्तिका सर्वथा त्याग करना है।


शास्त्रीय दृष्टिसे 'अज्ञान' जन्म-मरणका हेतु होते हुए भी साधनकी दृष्टिसे 'राग' ही जन्म-मरणका मुख्य हेतु है-


'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता १३। २१)। "

"रागपर ही अज्ञान टिका हुआ है, इसलिये राग मिटनेपर अज्ञान भी मिट जाता है। इस राग या आसक्तिसे ही कामना पैदा होती है- 'सङ्गात्सञ्जायते कामः' (गीता २। ६२)। कामना ही सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है (गीता- तीसरे अध्यायका सैंतीसवाँ श्लोक)। इसलिये यहाँ पापोंके मूल कारण आसक्तिका त्याग करनेकी बात आयी है; क्योंकि  इसके रहते मनुष्य पापोंसे बच नहीं सकता और इसके न रहनेसे मनुष्य पापोंसे लिप्त नहीं होता।


किसी भी क्रियाको करते समय क्रियाजन्य सुख लेनेसे तथा उसके फलमें आसक्त रहनेसे उस क्रियाका सम्बन्ध छूटता नहीं, प्रत्युत छूटनेकी अपेक्षा और बढ़ता है। किसी भी छोटी या बड़ी क्रियाके फलरूपमें कोई वस्तु चाहना ही आसक्ति नहीं है, प्रत्युत क्रिया करते समय भी अपनेमें महत्त्वका, अच्छेपनका आरोप करना और दूसरोंसे अच्छा कहलवानेका भाव रखना भी आसक्ति ही है। इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं करना है। जिस कर्मसे अपने लिये किसी प्रकारका किंचिन्मात्र भी सुख पानेकी इच्छा है, वह कर्म अपने लिये हो जाता है। अपनी सुख-सुविधा और सम्मानकी इच्छाका सर्वथा त्याग करके कर्म करना ही उपर्युक्त पदोंका अभिप्राय है।


'लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा' - यह कितनी


विशेष बात है कि भगवान् के सम्मुख होकर भक्तियोगी संसारमें रहकर सम्पूर्ण भगवदर्थ कर्म करते हुए भी कर्मोंसे नहीं बँधता ! जैसे कमलका पत्ता जलमें उत्पन्न होकर और जलमें रहकर भी जलसे निर्लिप्त रहता है, ऐसे ही भक्तियोगी संसारमें रहकर सम्पूर्ण क्रियाएँ करनेपर भी भगवान् के सम्मुख होनेके कारण संसारमें सर्वदा-सर्वथा निर्लिप्त रहता है। भगवान् से विमुख होकर संसारकी कामना करना ही सब पापोंका मुख्य हेतु है। कामना आसक्तिसे उत्पन्न होती है। आसक्तिका सर्वथा अभाव होनेसे कामना नहीं रह सकती, इसलिये पाप होनेकी सम्भावना ही नहीं रहती। 

धुएँसे अग्निकी तरह सभी कर्म किसी-न-किसी दोषसे युक्त होते हैं"

" (गीता-अठारहवें अध्यायका अड़तालीसवाँ श्लोक)। 


परन्तु जिसने आशा, कामना, आसक्तिका त्याग कर दिया है, उसे ये दोष नहीं लगते। आसक्तिरहित होकर भगवदर्थ कर्म करनेके प्रभावसे सम्पूर्ण संचित पाप विलीन हो जाते हैं (गीता- नवें अध्यायका सत्ताईसवाँ अट्ठाईसवाँ श्लोक)। अतः भक्तियोगीका किसी प्रकारसे भी पापसे सम्बन्ध नहीं रहता।


यहाँ 'पापेन' पद कर्मोंसे होनेवाले उस पाप-पुण्यरूप फलका वाचक है, जो आगामी जन्मारम्भमें कारण होता है। भक्तियोगी उस पाप-पुण्यरूप फलसे कभी लिप्त नहीं होता अर्थात् बँधता नहीं। इसी बातको नवें अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें 'शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः' पदोंसे कहा गया है।


परिशिष्ट भाव-यहाँ सगुण ईश्वरको 'ब्रह्म' कहनेका तात्पर्य है कि ईश्वर सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार सब कुछ है; क्योंकि वह समग्र है। समग्रमें सब आ जाते हैं (गीता-सातवें अध्यायका उनतीसवाँ-तीसवाँ श्लोक)। श्रीमद्भागवतमें भी ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), परमात्मा (सगुण-निराकार) और भगवान् (सगुण-साकार) - तीनोंको एक बताया है *।


* वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ।।


(१।२।११)


तात्पर्य यह हुआ कि 'सगुण' के अन्तर्गत ब्रह्म, परमात्मा और भगवान् - ये तीनों आ जाते हैं, पर 'निर्गुण' के अन्तर्गत केवल ब्रह्म ही आता है; क्योंकि निर्गुणमें गुणोंका निषेध है। अतः निर्गुण सीमित है और सगुण समग्र है।


वैष्णवलोग सगुण-साकार भगवान् के उत्सवको 'ब्रह्मोत्सव' नामसे कहते हैं। अर्जुनने भी भगवान् श्रीकृष्णको 'ब्रह्म' नामसे कहा है- 'परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्' (गीता १०। १२) । गीतामें ब्रह्मके तीन नाम बताये हैं -'ॐ', 'तत्' और 'सत्' (१७। २३)। नाम-नामीका सम्बन्ध होनेसे यह भी सगुण ही हुआ।


सम्बन्ध- अब भगवान् कर्मयोगीके कर्म करनेकी शैली बताते हैं।"


"(श्लोक-११)


कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि। योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ 


उच्चारण की विधि - कायेन, मनसा, बुद्ध्या, केवलैः, इन्द्रियैः, अपि, योगिनः, कर्म, कुर्वन्ति, सङ्गम्, त्यक्त्वा, आत्मशुद्धये ॥ ११॥


योगिनः अर्थात् कर्मयोगी (ममत्वबुद्धिरहित), केवलैः अर्थात् केवल, इन्द्रियैः अर्थात् इन्द्रिय, मनसा अर्थात् मन, बुद्ध्या अर्थात् बुद्धि (और), कायेन अर्थात् शरीरद्वारा, अपि अर्थात् भी, सङ्गम् अर्थात् आसक्तिको, त्यक्त्वा अर्थात् त्यागकर, आत्मशुद्धये अर्थात् अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये, कर्म अर्थात् कर्म, कुर्वन्ति अर्थात् करते हैं।


अर्थ - कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीरद्वारा भी आसक्तिको त्यागकर अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं ॥ ११॥"

"व्याख्या 'योगिनः' यहाँ 'योगिनः' पद कर्मयोगीके लिये आया है। जो योगी भगवदर्पण-बुद्धिसे कर्म करते हैं, वे भक्तियोगी कहलाते हैं। परन्तु जो योगी केवल संसारकी सेवाके लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करते हैं, वे कर्मयोगी कहलाते हैं। कर्मयोगी अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिसे कर्म करते हुए भी उन्हें अपना नहीं मानता, प्रत्युत संसारका ही मानता है। कारण कि शरीरादिकी संसारके साथ एकता है।


'कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि'- जिनको


साधारण मनुष्य अपनी मानते हैं, वे शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि वास्तवमें किसी भी दृष्टिसे अपनी नहीं हैं, प्रत्युत अपनेको मिली हुई हैं और बिछुड़नेवाली हैं। इनको अपनी मानना सर्वथा भूल है। इन सबकी संसारके साथ स्वतःसिद्ध एकता है।


विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीरादि पदार्थ किसी भी दृष्टिसे अपने नहीं हैं। मालिककी दृष्टिसे देखें तो ये भगवान् के हैं, कारणकी दृष्टिसे देखें तो ये प्रकृति हैं और कार्यकी दृष्टिसे देखें तो ये संसारके (संसारसे अभिन्न) हैं।


इस प्रकार किसी भी दृष्टिसे इनको अपना मानना, इनमें ममता रखना भूल है। ममताको सर्वथा मिटानेके लिये ही यहाँ 'केवलैः' पद प्रयुक्त हुआ है। यहाँ 'केवलैः' पद बहुवचन होनेसे इन्द्रियोंका ही विशेषण है; परन्तु इन्द्रियोंसे ही ममता हटानेके लिये कहा जाय, शरीर-मन-बुद्धिसे नहीं - ऐसा सम्भव नहीं है। शरीरादिका सम्बन्ध समष्टि संसारके साथ है।"

" व्यष्टि कभी समष्टिसे अलग नहीं हो सकती। इसलिये व्यष्टि (शरीरादि) से सम्बन्ध जोड़नेपर समष्टि (संसार) से स्वतः सम्बन्ध जुड़ जाता है। जैसे लड़कीसे विवाह होनेपर अर्थात् सम्बन्ध जुड़नेपर सास, ससुर आदि ससुरालके सभी सम्बन्धियोंसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है, ऐसे ही संसारकी किसी भी वस्तु- (शरीरादि) से सम्बन्ध जुड़नेपर अर्थात् उसे अपनी माननेपर पूरे संसारसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है। अतः यहाँ 'केवलैः' पद शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि सबमें ही साधकको ममता हटानेकी प्रेरणा करता है।


१- यहाँ 'अर्थवशाद् विभक्तिपरिणामः' के अनुसार 'केवलैः' पदकी विभक्तिका परिणाम कर लेना चाहिये अर्थात् 'केवलेन कायेन', 'केवलेन मनसा', 'केवलया बुद्ध्या'- इस तरह विभक्तिको बदल लेना चाहिये।


वास्तवमें कर्ताका स्वयं निर्मम होना ही आवश्यक है। यदि कर्ता स्वयं निर्मम हो तो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सब जगहसे ममता सर्वथा मिट जाती है। कारण कि वास्तवमें शरीर, इन्द्रियाँ आदि स्वरूपसे सर्वथा भिन्न हैं; अतः इनमें ममता केवल मानी हुई है, वास्तवमें है नहीं। कर्मयोगकी साधनामें फलकी इच्छाका त्याग मुख्य है (गीता-पाँचवें अध्यायका बारहवाँ श्लोक)। साधारण लोग फलप्राप्तिके लिये कर्म करते हैं, पर कर्मयोगी फलकी आसक्तिको मिटानेके लिये कर्म करता है। परन्तु जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिको अपना मानता रहता है, वह फलकी इच्छाका त्याग कर ही नहीं सकता।"

"२-यदि मनुष्य फलकी इच्छा न करे, तो भी शरीरादिको अपना माननेसे वह कर्मफलका हेतु बन ही जाता है, जिसका भगवान् ने निषेध किया है - 'मा कर्मफलहेतुर्भूः' (गीता २।४७)।


कारण कि उसका ऐसा भाव रहता है कि शरीरादि अपने हैं तो उनके द्वारा किये गये कर्मोंका फल भी अपनेको मिलना चाहिये। इस प्रकार शरीरादिको अपना माननेसे स्वतः फलकी इच्छा उत्पन्न होती है। इसलिये फलकी इच्छाको मिटानेके लिये शरीरादिको कभी भी अपना न मानना अत्यन्त आवश्यक है।


'केवलैः'- पदका तात्पर्य है कि जैसे वर्षा बरसती है


और उससे लोगोंका हित होता है; परन्तु उसमें ऐसा भाव नहीं होता कि मैं बरसती हूँ, मेरी वर्षा है जिससे दूसरोंका हित होगा, दूसरोंको सुख होगा। ऐसे ही इन्द्रियों आदिके द्वारा होनेवाले हितमें भी अपनापन मालूम न दे।


परन्तु शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियोंके द्वारा किसीका अभीष्ट हो गया, किसीकी मनचाही बात हो गयी-इन क्रियाओंको लेकर अपने मनमें खुशी आती है तो मन, बुद्धि आदिमें केवलपना नहीं रहा, प्रत्युत उनके साथ सम्बन्ध जुड़ गया, ममता हो गयी।


'सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये' - [पीछे दसवें श्लोकमें भी 'सङ्गं त्यक्त्वा' पद आये हैं; अतः इनकी व्याख्या वहीं देखनी चाहिये ।]


साधारणतः मल, विक्षेप और आवरण-दोषके दूर होनेको अन्तःकरणकी शुद्धि माना जाता है। परन्तु वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धि है- शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे ममताका सर्वथा मिट जाना। "

"शरीरादि कभी नहीं कहते कि हम तुम्हारे हैं और तुम हमारे हो। हम ही उनको अपना मान लेते हैं। उनको अपना मानना ही अशुद्धि है- 'ममता मल जरि जाइ' (मानस ७। ११७ क)। अतः शरीरादिके प्रति अहंता- ममतापूर्वक माने गये सम्बन्धका सर्वथा अभाव ही आत्मशुद्धि है।


इस श्लोकमें आये 'केवलैः' पदसे शरीर-इन्द्रियाँ-मन- बुद्धिको अपना न माननेकी बात आयी है। 'केवलैः' पदमें अपनापन हटानेका उद्देश्य है और 'आत्मशुद्धये' पदमें अपनापन सर्वथा हटनेकी बात आयी है। तात्पर्य यह है कि अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये (अपनापन सर्वथा हटानेके उद्देश्यसे) शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपना न माननेपर भी इनमें सूक्ष्म अपनापन रह जाता है। उस सूक्ष्म अपनेपनका सर्वथा मिटना ही आत्मशुद्धि अर्थात् अन्तःकरणकी शुद्धि है। अहंतामें भी ममता रहती है। ममता सर्वथा मिटनेपर जब अहंतामें भी ममता नहीं रहती, तब सर्वथा शुद्धि हो जाती है।


'कर्म कुर्वन्ति'- शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें जो सूक्ष्म अपनापन रह जाता है, उसे सर्वथा दूर करनेके लिये कर्मयोगी कर्म करते हैं।


जबतक मनुष्य कर्म करते हुए अपने लिये किसी प्रकारका सुख चाहता है अर्थात् किसी फलकी इच्छा रखता है और शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि कर्म-सामग्रीको अपनी मानता है, तबतक वह कर्मबन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये कर्मयोगी फलकी इच्छाका त्याग करके और कर्म-सामग्रीको अपनी न मानकर केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है। "

"कारण कि योगारूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील योगीके लिये (दूसरोंके हितके लिये) कर्म करना ही हेतु कहा जाता है- 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते' (गीता ६। ३)। इस प्रकार दूसरोंके हितके लिये वह ज्यों- ज्यों कर्म करता है, त्यों-ही-त्यों ममता-आसक्ति मिटती चली जाती है और अन्तःकरणकी शुद्धि होती चली जाती है।


परिशिष्ट भाव-शुद्ध करनेसे अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता; क्योंकि शुद्ध करनेसे अन्तःकरणके साथ सम्बन्ध बना रहता है। जबतक 'मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो जाय' - यह भाव रहेगा, तबतक अन्तःकरणकी शुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि ममता ही खास अशुद्धि है। इसीलिये रामायणमें आया है- 'ममता मल जरि जाइ' (मानस, उत्तर० ११७ क)। भगवान् ने भी यहाँ 'केवलैः' पदसे अन्तःकरणके साथ ममता न रखनेकी बात कही है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिमें ममताका सर्वथा अभाव हो जाना ही अन्तःकरणकी शुद्धि है। अतः अन्तःकरणमें ममता (अपनापन) सर्वथा मिटानेके उद्देश्यसे कर्मयोगी अनासक्त भावसे कर्म करते हैं। वे अपने लिये कोई कर्म नहीं करते। कारण कि ममता रखनेसे कर्म होते हैं, कर्मयोग नहीं होता। अपने लिये कोई कर्म न करनेसे कर्मयोगीकी गति स्वरूपकी तरफ होती है।


कर्मयोगी पहले ममतारहित होनेका उद्देश्य बनाकर कर्म करता है, फिर उसके उद्देश्यकी सिद्धि हो जाती है।


सम्बन्ध- अब भगवान् आगेके श्लोकमें अन्वय और व्यतिरेक- रीतिसे कर्मयोगकी महिमाका वर्णन करते हैं।"

कल हम जानेंगे कि कैसे योगयुक्त व्यक्ति कर्म के फल में समान भाव रखते हुए शांति प्राप्त करता है।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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