ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 9 - श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म और कर्म का रहस्य
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आप जानना चाहते हैं कि कैसे श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म और कर्म को जानने से हम जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सकते हैं? आज के श्लोक में यह गहरा रहस्य उजागर होता है!
कल के श्लोक 8 में हमने जाना कि श्रीकृष्ण का अवतार सज्जनों की रक्षा, दुष्टों के नाश और धर्म की स्थापना के लिए होता है। आज का श्लोक हमें उनके दिव्य जन्म और कर्म के गूढ़ रहस्य से अवगत कराता है।
"आज के श्लोक 9 में श्रीकृष्ण कहते हैं:
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
इसका अर्थ है:
'जो मेरे दिव्य जन्म और कर्म के वास्तविक स्वरूप को जानता है, वह देह त्यागने के बाद पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, बल्कि मेरे पास आता है।'
इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो भी उनके दिव्य अवतार और कार्यों को समझ लेता है, वह पुनः जन्म लेने के चक्र से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है। यह शाश्वत ज्ञान हमें अपने भीतर की शांति और मुक्ति का मार्ग दिखाता है।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 9"
"श्रीभगवान्के जन्म-कर्मोंको दिव्य जाननेका फल ।
(श्लोक-९)
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।
उच्चारण की विधि
जन्म, कर्म, च, मे, दिव्यम्, एवम्, यः, वेत्ति, तत्त्वतः, त्यक्त्वा, देहम्, पुनः, जन्म, न, एति, माम्, एति, सः, अर्जुन ॥ ९ ॥
अर्जुन अर्थात् हे अर्जुन !, मे अर्थात् मेरे, जन्म अर्थात् जन्म, च अर्थात् और, कर्म अर्थात् कर्म, दिव्यम् अर्थात् दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं, एवम् अर्थात् इस प्रकार, यः अर्थात् जो मनुष्य, तत्त्वतः अर्थात् तत्त्वसे, वेत्ति अर्थात् जान लेता है, सः अर्थात् वह, देहम् अर्थात् शरीरको, त्यक्त्वा अर्थात् त्यागकर, पुनः अर्थात् फिर, जन्म अर्थात् जन्मको, न एति अर्थात् प्राप्त नहीं होता (किंतु), माम् अर्थात् मुझे (ही), एति अर्थात् प्राप्त होता है।
* सर्वशक्तिमान् सच्चिदानन्दघन परमात्मा अज, अविनाशी और सर्वभूतोंके परमगति तथा परम आश्रय हैं, वे केवल धर्मको स्थापन करने और संसारका उद्धार करनेके लिये ही अपनी योगमायासे सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं, इसलिये परमेश्वरके समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वरका अनन्य प्रेमसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित संसारमें बरतता है, वही उनको तत्त्वसे जानता है।
अर्थ - हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्वसे * जान लेता है, वह शरीरको त्यागकर फिर जन्मको प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है ॥ ९ ॥"
"व्याख्या 'जन्म कर्म च मे दिव्यम्'- भगवान् जन्म-मृत्युसे सर्वथा अतीत-अजन्मा और अविनाशी हैं। उनका मनुष्यरूपमें अवतार साधारण मनुष्योंकी तरह नहीं होता। वे कृपापूर्वक मात्र जीवोंका हित करनेके लिये स्वतन्त्रतापूर्वक मनुष्य आदिके रूपमें जन्म-धारणकी लीला करते हैं। उनका जन्म कर्मोंके परवश नहीं होता। वे अपनी इच्छासे ही शरीर धारण करते हैं*। * (१) 'निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ' (मानस ४। २६)
(२) बिप्र धेनु सुर संतहित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ।।
(३) उद्धवजी भगवान् से कहते हैं - (मानस १। १९२)
त्वं ब्रह्म परमं व्योम पुरुषः प्रकृतेः परः । अवतीर्णोऽसि भगवन् स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः ।। (श्रीमद्भा० ११।११।२८)
'आप प्रकृतिसे परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाशस्वरूप ब्रह्म हैं। फिर भी आपने स्वेच्छासे ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है।'
भगवान् का साकार विग्रह जीवोंके शरीरोंकी तरह हाड़-मांसका नहीं होता। जीवोंके शरीर तो पाप-पुण्यमय, अनित्य, रोगग्रस्त, लौकिक, विकारी, पांचभौतिक और रज-वीर्यसे उत्पन्न होनेवाले होते हैं, पर भगवान् के विग्रह पाप-पुण्यसे रहित, नित्य, अनामय, अलौकिक, विकाररहित, परम दिव्य और प्रकट होनेवाले होते हैं। अन्य जीवोंकी अपेक्षा तो देवताओंके शरीर भी दिव्य होते हैं, पर भगवान् का शरीर उनसे भी अत्यन्त विलक्षण होता है, जिसका देवतालोग भी सदा ही दर्शन चाहते रहते हैं (गीता - ग्यारहवें अध्यायका बावनवाँ श्लोक)।
भगवान् जब श्रीराम तथा श्रीकृष्णके रूपमें इस पृथ्वीपर आये, तब वे माता कौसल्या और देवकीके गर्भसे उत्पन्न नहीं हुए। पहले उन्हें अपने शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी स्वरूपका दर्शन देकर फिर वे माताकी प्रार्थनापर बालरूपमें लीला करने लगे।"
"भगवान् श्रीरामके लिये गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥ लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा। कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ।। सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा। भगवान् श्रीकृष्णके लिये आया है-
उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम् । शङ्खचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम् ॥ (श्रीमद्भा० १०।३।३०)
माता देवकीने कहा- 'विश्वात्मन् ! शंख, चक्र, गदा और पद्मकी शोभासे युक्त इस चार भुजाओंवाले अपने अलौकिक दिव्य रूपको अब छिपा लीजिये !' तब भगवान् ने माता-पिताके देखते-देखते अपनी मायासे तत्काल एक साधारण शिशुका रूप धारण कर लिया
पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः । (श्रीमद्भा० १०।३।४६)
जब भगवान् श्रीराम अपने धाम पधारने लगे, तब वे अन्तर्धान हुए। जीवोंके शरीरोंकी तरह उनका शरीर यहाँ नहीं रहा, प्रत्युत वे इसी शरीरसे अपने धाम चले गये- पितामहवचः श्रुत्वा विनिश्चित्य महामतिः । विवेश वैष्णवं तेजः सशरीरः सहानुजः ॥ (वाल्मीकिरामायण, उत्तर० ११०।१२)
'महामति भगवान् श्रीरामने पितामह ब्रह्माजीके वचन सुनकर और तदनुसार निश्चय करके तीनों भाइयोंसहित अपने उसी शरीरसे वैष्णव तेजमें प्रवेश किया।' भगवान् श्रीकृष्णके लिये भी ऐसी ही बात आयी है-
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमङ्गलम् । योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत् स्वकम् ॥ (श्रीमद्भा० ११।३१।६) 'धारणा और ध्यानके लिये अति मंगलरूप अपनी लोकाभिरामा मोहिनी मूर्तिको योगधारणाजनित अग्निके द्वारा भस्म किये बिना ही भगवान् ने अपने धाममें सशरीर प्रवेश किया।'"
"भगवान् के विग्रह (दिव्य शरीर) के विषयमें महामुनि वाल्मीकिजी भगवान् श्रीरामसे कहते हैं- चिदानंदमय देह तुम्हारी । बिगत बिकार जान अधिकारी ॥ नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा ।। (मानस २। १२७।३)
एक बार सनकादि ऋषि वैकुण्ठधाममें जा रहे थे। वहाँ भगवान् के द्वारपालोंने उन्हें भीतर जानेसे रोका, तब सनकादिने उन्हें शाप दे दिया। अपने अनुचरोंके द्वारा सनकादिका अपमान हुआ जानकर भगवान् स्वयं वहाँ पधारे। उस समय भगवान् का दर्शन करनेसे उनकी बड़ी विलक्षण दशा हुई। उन्होंने भगवान् के चरणोंमें प्रणाम किया-
तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द- किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः । अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ।। (श्रीमद्भा० ३।१५।४३)
'प्रणाम करनेपर उन कमलनेत्र भगवान् के चरण-कमलके परागसे मिली हुई तुलसी-मंजरीकी वायुने उनके नासिका छिद्रोंमें प्रवेश करके उन अक्षर परमात्मामें नित्य स्थित रहनेवाले ज्ञानी महात्माओंके भी चित्त और शरीरको क्षुब्ध कर दिया।'
शब्दादि विषयोंमें गंध कोई इतनी विलक्षण चीज नहीं है, जिसमें मन आकृष्ट हो जाय। पर भगवान् के चरण-कमलोंकी गंधसे नित्य- निरन्तर परमात्म-स्वरूपमें मग्न रहनेवाले सनकादिकोंके चित्तमें भी खलबली पैदा हो गयी। कारण कि वह पृथ्वीकी विकाररूप गंध नहीं थी, प्रत्युत दिव्य गंध थी। ऐसे ही भगवान् के विग्रहकी प्रत्येक वस्तु (वस्त्र, आभूषण, आयुध आदि) दिव्य, चिन्मय और अत्यन्त विलक्षण है। भगवान् की लीलाओंको सुनने, पढ़ने, याद करने आदिसे लोगोंका अन्तःकरण निर्मल, पवित्र हो जाता है और उनका अज्ञान दूर हो जाता है- यह भगवान् के कर्मोंकी दिव्यता है। "
"ज्ञानस्वरूप भगवान् शंकर, ब्रह्माजी, सनकादिक ऋषि, देवर्षि नारद आदि भी उनकी लीलाओंको गाकर और सुनकर मग्न हो जाते हैं। भगवान् के अवतारके जो लीला-स्थल हैं, उन स्थानोंमें आस्तिकभावसे, श्रद्धा- प्रेमपूर्वक निवास करनेसे एवं उनका दर्शन करनेसे भी मनुष्यका कल्याण हो जाता है। तात्पर्य है कि भगवान् मात्र जीवोंका कल्याण करनेके उद्देश्यसे ही अवतार लेते हैं और लीलाएँ करते हैं; अतः उनकी लीलाओंको पढ़ने-सुननेसे, उनका मनन-चिन्तन करनेसे स्वाभाविक ही उस उद्देश्यकी सिद्धि हो जाती है।
चौथे श्लोकमें अर्जुनने भगवान् से केवल उनके 'जन्म' के विषयमें पूछा था; परन्तु यहाँ भगवान् ने अर्जुनके पूछे बिना अपनी तरफसे 'कर्म' के विषयमें कहना आरम्भ कर दिया ! इसमें भगवान् का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि जैसे मेरे कर्म दिव्य हैं, वैसे तुम्हारे कर्म भी दिव्य होने चाहिये। कारण कि मनुष्यका जन्म तो दिव्य नहीं हो सकता, पर उसके कर्म अवश्य दिव्य हो सकते हैं; क्योंकि उसीके लिये उसका जन्म हुआ है। कर्मोंमें दिव्यता (शुद्धि) योगसे आती है। जो कर्म बाँधनेवाले होते हैं, उनमें दिव्यता आनेसे वे ही कर्म मुक्ति देनेवाले हो जाते हैं। कर्म दिव्य (फलेच्छा, ममता- आसक्तिसे रहित) होनेपर कर्ता एक तो उन कर्मोंसे बँधता नहीं; दूसरे, वह पुराने कर्मोंसे भी नहीं बँधता - मुक्त हो जाता है; और तीसरे, उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंसे दूसरोंका भी हित स्वतः होता रहता है।
गम्भीरतापूर्वक विचार करके देखें तो उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही कर्मोंमें मलिनता आती है और वे बाँधनेवाले होते हैं। विनाशीसे अपना सम्बन्ध माननेसे अन्तःकरण, कर्म और पदार्थ तीनों ही मलिन हो जाते हैं और विनाशीसे माना हुआ सम्बन्ध छूट जानेसे ये तीनों स्वतः पवित्र हो जाते हैं। "
"अतः विनाशीसे माना हुआ सम्बन्ध ही मूल बाधा है।
'एवं यो वेत्ति तत्त्वतः ' - अजन्मा और अविनाशी होते हुए तथा प्राणिमात्रका ईश्वर होते हुए भी भगवान् मात्र जीवोंके हितके लिये अपनी प्रकृतिको अधीन करके स्वतन्त्रतापूर्वक युग-युगमें मनुष्य आदिके रूपमें अवतार लेते हैं- इस तत्त्वको जानना अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानना भगवान् के जन्मोंकी दिव्यताको जानना है।
सम्पूर्ण क्रियाओंको करते हुए भी भगवान् अकर्ता ही हैं अर्थात् उनमें करनेका अभिमान नहीं है (गीता- चौथे अध्यायका तेरहवाँ श्लोक) और किसी भी कर्मफलमें उनकी स्पृहा (फलेच्छा) नहीं है (गीता-चौथे अध्यायका चौदहवाँ श्लोक)- इस तत्त्वको जानना भगवान् के कर्मोंकी दिव्यताको जानना है।
जैसे भगवान् के जन्ममें स्वाभाविक ही मात्र जीवोंकी हितैषिता और कर्ममें निर्लिप्तता है, ऐसे ही मनुष्यमें भी मात्र जीवोंकी हितैषिता और कर्ममें निर्लिप्तता आ जाना ही वास्तवमें भगवान् के जन्म और कर्मके तत्त्वको जानना है।
'त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति' - भगवान् को त्रिलोकीमें न तो कुछ करना शेष है और न कुछ पाना ही शेष है (गीता- तीसरे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)। फिर भी वे केवल जीवमात्रका उद्धार करनेके लिये कृपापूर्वक इस भूमण्डलपर अवतार लेते हैं और तरह- तरहकी अलौकिक लीलाएँ करते हैं। उन लीलाओंको गानेसे, सुननेसे, पढ़नेसे और उनका चिन्तन करनेसे भगवान् के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। भगवान् से सम्बन्ध जुड़नेपर संसारका सम्बन्ध छूट जाता है। संसारका सम्बन्ध छूटनेपर पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् मनुष्य जन्म-मरणरूप बन्धनसे मुक्त हो जाता है। वास्तवमें कर्म बन्धनकारक नहीं होते। कर्मोंमें जो बाँधनेकी शक्ति है, वह केवल मनुष्यकी अपनी बनायी हुई (कामना) है। "
"कामनाकी पूर्तिके लिये रागपूर्वक अपने लिये कर्म करनेसे ही मनुष्य कर्मोंसे बँध जाता है। फिर ज्यों-ज्यों कामना बढ़ती है, त्यों-त्यों वह पापोंमें प्रवृत्त होने लगता है। इस प्रकार उसके कर्म अत्यन्त मलिन हो जाते हैं, जिससे वह बारंबार नीच योनियों और नरकोंमें गिरता रहता है। परन्तु जब वह केवल दूसरोंकी सेवाके लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तब उसके कर्मोंमें दिव्यता, विलक्षणता आती चली जाती है। इस प्रकार कामनाका सर्वथा नाश होनेपर उसके कर्म दिव्य हो जाते हैं, अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते; फिर उसके पुनर्जन्मका प्रश्न ही नहीं रहता।
'मामेति सोऽर्जुन'- नाशवान् कर्मोंसे अपना सम्बन्ध माननेके कारण नित्यप्राप्त परमात्मा भी अप्राप्त प्रतीत होते हैं। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये सम्पूर्ण कर्म करनेसे मात्र कर्मोंका प्रवाह केवल संसारकी तरफ हो जाता है और नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जाता है।
जीवोंपर महान् कृपा ही भगवान् के जन्ममें कारण है-इस प्रकार भगवान् के जन्मकी दिव्यताको जाननेसे मनुष्यकी भगवान् में भक्ति हो जाती है *।
* उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
(मानस ५। ३४।२) भक्तिसे भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। भगवान् के कर्मोंकी दिव्यताको जाननेसे मनुष्यके कर्म भी दिव्य हो जाते हैं अर्थात् वे बन्धनकारक न होकर खुदका और दूसरोंका कल्याण करनेवाले हो जाते हैं, जिससे संसारसे सम्बन्ध विच्छेदपूर्वक भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। मार्मिक बात
सम्पूर्ण कर्म आरम्भ और समाप्त होनेवाले हैं (और कर्मके फलस्वरूप जो कुछ प्राप्त होता है, वह भी अनित्य और नाशवान् होता है); परन्तु स्वयं (जीवात्मा) नित्य-निरन्तर रहनेवाला है।"
"अतः वास्तवमें स्वयंका कर्मोंके साथ कोई सम्बन्ध है नहीं, प्रत्युत माना हुआ है। अतः सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी उनके साथ अपना सम्बन्ध है ही नहीं-ऐसा अनुभव करे तो उसके कर्म दिव्य हो जाते हैं- यह कर्मोंका तत्त्व है। यही कर्मयोग है!
क्रियाशील प्रकृतिके साथ तादात्म्य होनेके कारण मनुष्यमात्रमें कर्म करनेका वेग रहता है। वह क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता (गीता-तीसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)। संसारमें वह देखता है कि कर्म करनेसे ही सिद्धि (वस्तुकी प्राप्ति) होती है। इसी कारण वह परमात्माकी प्राप्ति भी कर्मोंके द्वारा ही करना चाहता है; परन्तु यह उसकी महान् भूल है। कारण कि नाशवान् कर्मोंके द्वारा नाशवान् वस्तुकी ही प्राप्ति होती है, अविनाशीकी प्राप्ति नहीं होती। अविनाशीकी प्राप्ति तो कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद होनेपर ही होती है। कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर्मयोगमें (ज्ञानयोगकी अपेक्षा भी) सरलतासे हो जाता है। कारण कि कर्मयोगमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण-तीनों शरीरोंसे होनेवाले सम्पूर्ण कर्म निष्कामभावपूर्वक केवल संसारके हितके लिये होनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है और अपना कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।
यहाँ भगवान् ने 'माम् एति' पदोंसे यह भाव प्रकट किया है कि मनुष्य कर्मोंके द्वारा जिसकी सिद्धि चाहता है, वह परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध (नित्यप्राप्त) है। स्वतःसिद्ध वस्तुके लिये करना कैसा ? जो वस्तु प्राप्त है, उसे प्राप्त करना कैसा? करनेसे तो उस वस्तुकी प्राप्ति होती है, जो पहले अप्राप्त थी। एक उत्पत्ति होती है और एक खोज होती है। उत्पत्ति उसकी होती है, जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है; जिसका पहले अभाव है और बादमें जिसका विनाश हो जाता है। "
"खोज उसकी होती है, जिसकी स्वतन्त्र सत्ता है; जो पहलेसे विद्यमान है और नित्य-निरन्तर रहता है; किन्तु जो क्रिया और पदार्थरूप संसारका महत्त्व मान लेनेसे छिप गया है। जब मनुष्य क्रियाओं और पदार्थोंको केवल दूसरोंकी सेवामें लगा देता है, तब क्रिया-पदार्थरूप संसारसे स्वतः सम्बन्ध विच्छेद और नित्यप्राप्त परमात्माका साक्षात् अनुभव हो जाता है। यही नित्यप्राप्तकी खोज है।
कर्तव्य-कर्मोंको न करके प्रमाद-आलस्य करना और कर्तव्य- कर्मोंको करके उनके फलकी इच्छा रखना- इन दोनों कारणोंसे मनुष्यको नित्यप्राप्त परमात्माके अनुभवमें बाधा लगती है। इस बाधाको दूर करनेका उपाय है- फलकी इच्छा न रखकर दूसरोंकी सेवाके रूपसे कर्तव्य-कर्म करना। फलकी इच्छा न रखकर कर्तव्य- कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। कर्मोंसे सम्बन्ध- विच्छेद होते ही परमात्मासे हमारा जो स्वतःसिद्ध नित्य-सम्बन्ध है, उसका अनुभव हो जाता है।
परिशिष्ट भाव - निष्कामभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म (सेवा) करनेपर अथवा भगवान् के लिये कर्म (पूजा) करनेपर वे कर्म दिव्य मुक्तिदायक हो जाते हैं। परन्तु कामनापूर्वक अपने लिये किये गये कर्म मलिन, बन्धनकारक हो जाते हैं।
कर्मोंमें कर्तृत्वका न होना ही दिव्यता है। अपने लिये कुछ न करनेसे कर्तृत्व नही रहता। भगवान् की छोटी-से-छोटी तथा बड़ी-से-बड़ी प्रत्येक क्रिया 'लीला' होती है। लीलामें भगवान् सामान्य मनुष्यों-जैसी क्रिया करते हुए भी निर्लिप्त रहते हैं (गीता- चौथे अध्यायका तेरहवाँ श्लोक)। भगवान् की लीला दिव्य होती है। यह दिव्यता देवताओंकी दिव्यतासे भी विलक्षण होती है। देवताओंकी दिव्यता मनुष्योंकी अपेक्षासे होनेके कारण सापेक्ष और सीमित होती है, पर भगवान् की दिव्यता निरपेक्ष और असीम होती है। "
"यद्यपि जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुषोंकी क्रियाएँ भी दिव्य होती हैं, तथापि वे भी भगवल्लीलाके समान नहीं होतीं। भगवान् की साधारण लीला भी अत्यन्त अलौकिक होती है। जैसे, भगवान् की रासलीला लौकिक दीखती है, पर उसको पढ़ने-सुननेसे साधककी काम-वृत्तिका नाश हो जाता है (श्रीमद्भा० दशम स्कन्ध, तैंतीसवाँ अध्याय, चालीसवाँ श्लोक)।
यह जगत् भगवान् का आदि अवतार है- 'आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य' (श्रीमद्भा० २।६। ४१) । तात्पर्य है कि भगवान् ही जगत्- रूपसे प्रकट हुए हैं। परन्तु जीवने भोगासक्तिके कारण जगत् को भगवद्रूपसे स्वीकार न करके नाशवान् जगत्-रूपसे ही धारण कर रखा है- 'जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्' (गीता ७। ५)। इस धारणाको मिटानेके लिये साधकको दृढ़तासे ऐसा मानना चाहिये कि जो दीख रहा है, वह भगवान् का स्वरूप है और जो हो रहा है, वह भगवान् की लीला है। ऐसा मानने (स्वीकार करने)-पर जगत् जगत्-रूपसे नहीं रहेगा और 'भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है'-इसका अनुभव हो जायगा। दूसरे शब्दोंमें, संसार लुप्त हो जायगा और केवल भगवान् रह जायँगे। कारण कि प्रत्येक वस्तु तथा व्यक्तिको भगवान् का स्वरूप और प्रत्येक क्रियाको भगवल्लीला माननेसे भोगासक्ति, राग-द्वेष नहीं रहेंगे। भोगासक्तिका नाश होनेपर जो क्रियाएँ पहले लौकिक दीखती थीं, वही क्रियाएँ अलौकिक भगवल्लीलारूपसे दीखने लगेंगी और जहाँ पहले भोगासक्ति थी, वहाँ भगवत्प्रेम हो जायगा।
भगवान् जैसा रूप धारण करते हैं, उसीके अनुरूप लीला करते हैं*। * भगवान् श्रीकृष्ण उत्तंक ऋषिसे कहते हैं- धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च ।। तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव। (महाभारत, आश्व० ५४।१३-१४)"
"मैं धर्मकी रक्षा और स्थापनाके लिये तीनों लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और वेषोंद्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ।' यदा त्वहं देवयोनौ वर्तामि भृगुनन्दन । तदाहं देववत् सर्वमाचरामि न संशयः ॥
यदा गन्धर्वयोनौ वा वर्तामि भृगुनन्दन । तदा गन्धर्ववत् सर्वमाचरामि न संशयः ॥ नागयोनौ यदा चैव तदा वर्तामि नागवत् । यक्षराक्षसयोन्योस्तु यथावद् विचराम्यहम् ।। (महाभारत, आश्व० ५४। १७-१९)
'भृगुनन्दन ! जब मैं देवयोनियोंमें अवतार लेता हूँ, तब देवताओंकी ही भाँति सारे आचार-विचारका पालन करता हूँ, इसमें संशय नहीं है।' 'जब मैं गन्धर्वयोनिमें प्रकट होता हूँ, तब मेरे सारे आचार-विचार गन्धर्वोंके ही समान होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है।' 'जब मैं नागयोनिमें जन्म ग्रहण करता हूँ, तब नागोंकी तरह बर्ताव करता हूँ। यक्षों और राक्षसोंकी योनियोंमें प्रकट होनेपर मैं उन्हींके आचार-विचारका यथावत्- रूपसे पालन करता हूँ।'
जब वे अर्चावतार अर्थात् मूर्तिका रूप धारण करते हैं, तब वे मूर्तिकी तरह ही अचल रहनेकी लीला करते हैं। अगर वे अचल नहीं रहेंगे तो वह अर्चावतार कैसे रहेगा ? भगवान् ने राम, कृष्ण आदि रूप भी धारण किये और मत्स्य, कच्छप आदि रूप भी धारण किये। उन्होंने जैसा रूप धारण किया, वैसी ही लीला की। जैसे, वराहावतारमें भगवान् ने सूअर बनकर लीला की और वामनावतारमें ब्रह्मचारी ब्राह्मण बनकर लीला की। इससे साधकको यह समझना चाहिये कि अभी भी जो हो रहा है, वह सब भगवान् की लीला ही हो रही है !
सम्बन्ध-भगवान् के जन्म-कर्मकी दिव्यताको जाननेवाले कैसे होते हैं- इसका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।"
कल के श्लोक 10 में श्रीकृष्ण बताएंगे कि किस प्रकार सांसारिक इच्छाओं को त्यागकर और अपने मन को शुद्ध करके हम दिव्य ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। यह चर्चा अत्यंत महत्वपूर्ण होगी!
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