ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 8 - अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आपने सोचा है कि भगवान धरती पर क्यों अवतरित होते हैं? आज के श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि उनके अवतार का उद्देश्य क्या है और कैसे वे धर्म की रक्षा करते हैं!
कल के श्लोक 7 में हमने जाना कि जब-जब अधर्म की वृद्धि होती है और धर्म संकट में आता है, तब श्रीकृष्ण स्वयं इस धरती पर अवतरित होते हैं। आज के श्लोक में वे और विस्तार से अपने अवतार का उद्देश्य बताते हैं।
"आज के श्लोक 8 में श्रीकृष्ण कहते हैं:
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
इसका अर्थ है:
'सज्जनों की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में अवतरित होता हूँ।'
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने अवतार के तीन उद्देश्यों को बताते हैं: सज्जनों की रक्षा, अधर्मियों का नाश, और धर्म की पुनः स्थापना। यह दिव्य संदेश हमें आश्वासन देता है कि जब भी धर्म संकट में होगा, तब श्रीकृष्ण के समान शक्तियाँ आकर समाज को संतुलित करेंगी।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 8"
"श्रीभगवान्के अवतार लेनेके कारणका कथन।
(श्लोक-८)
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
उच्चारण की विधि
परित्राणाय, साधूनाम्, विनाशाय, च, दुष्कृताम्, धर्मसंस्थापनार्थाय, सम्भवामि, युगे, युगे ॥ ८ ॥
साधूनाम् अर्थात् साधु पुरुषोंका, परित्राणाय अर्थात् उद्धार करनेके लिये, दुष्कृताम् अर्थात् पापकर्म = करनेवालोंका, विनाशाय अर्थात् विनाश करनेके लिये, च अर्थात् और, धर्मसंस्थापनार्थाय अर्थात् धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये (मैं), युगे, युगे अर्थात् युग-युगमें, सम्भवामि अर्थात् प्रकट हुआ करता हूँ।
अर्थ - साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ॥ ८॥"
"व्याख्या'परित्राणाय साधूनाम्' - साधु मनुष्योंके द्वारा ही अधर्मका नाश और धर्मका प्रचार होता है, इसलिये उनकी रक्षा करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।
दूसरोंका हित करना ही जिनका स्वभाव है और जो भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला आदिका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक स्मरण, कीर्तन आदि करते हैं और लोगोंमें भी इसका प्रचार करते हैं, ऐसे भगवान् के आश्रित भक्तोंके लिये यहाँ 'साधूनाम्' पद आया है।
जिसका एकमात्र परमात्म-प्राप्तिका उद्देश्य है, वह साधु है * और जिसका नाशवान् संसारका उद्देश्य है, वह असाधु है।
* साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः। (गीता ९। ३०)
असत् और परिवर्तनशील वस्तुमें सद्भाव करने और उसे महत्त्व देनेसे कामनाएँ पैदा होती हैं। ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं, त्यों- त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है। कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है। साधुतासे अपना उद्धार और लोगोंका स्वतः उपकार होता है।
साधु पुरुषके भावों और क्रियाओंमें पशु, पक्षी, वृक्ष, पर्वत, मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, मुनि आदि सबका हित भरा रहता है-
हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।
(मानस ७।४७।३)
यदि लोग उसके मनके भावोंको जान जायँ तो वे उसके चरणोंके दास बन जायें। इसके विपरीत यदि लोग दुष्ट पुरुषके मनके भावोंको जान जायँ तो दिनमें कई बार लोगोंसे उसकी पिटाई हो। यहाँ शंका हो सकती है कि यदि भगवान् साधु पुरुषोंकी रक्षा किया करते हैं तो फिर संसारमें साधु पुरुष दुःख पाते हुए क्यों देखे जाते हैं? "
"इसका समाधान यह है कि साधु पुरुषोंकी रक्षाका तात्पर्य उनके भावोंकी रक्षा है; शरीर, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई आदिकी रक्षा नहीं; कारण कि वे इन सांसारिक पदार्थोंको महत्त्व नहीं देते। भगवान् भी इन वस्तुओंको महत्त्व नहीं देते; क्योंकि सांसारिक पदार्थोंको महत्त्व देनेसे ही असाधुता पैदा होती है।
भक्तोंमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व, उद्देश्य होता ही नहीं; तभी तो वे भक्त हैं। भक्तलोग प्रतिकूलता (दुःखदायी परिस्थिति) में विशेष प्रसन्न होते हैं; क्योंकि प्रतिकूलतासे जितना आध्यात्मिक लाभ होता है, उतना किसी दूसरे साधनसे नहीं होता। वास्तवमें भक्ति भी प्रतिकूलतामें ही बढ़ती है। सांसारिक राग, आसक्तिसे ही पतन होता है और प्रतिकूलतासे वह राग टूटता है। इसलिये भगवान् का भक्तोंके लिये प्रतिकूलता भेजना भी वास्तवमें भक्तोंकी रक्षा करना है।
'विनाशाय च दुष्कृताम्' - दुष्ट मनुष्य अधर्मका प्रचार और
धर्मका नाश करते हैं, इसलिये उनका विनाश करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।
जो मनुष्य कामनाके अत्यधिक बढ़नेके कारण झूठ, कपट, छल, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचारोंमें लगे हुए हैं, जो निरपराध सद्गुण, सदाचारी, साधुओंपर अत्याचार किया करते हैं, जो दूसरोंका अहित करनेमें ही लगे रहते हैं, जो प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानते, भगवान् और वेद-शास्त्रोंका विरोध करना ही जिनका स्वभाव हो गया है, ऐसे आसुरी सम्पत्तिमें अधिक रचे-पचे रहकर वैसा ही बुरा आचरण करनेवाले मनुष्योंके लिये यहाँ 'दुष्कृताम्' पद आया है। भगवान् अवतार लेकर ऐसे ही दुष्ट मनुष्योंका विनाश करते हैं।"
"शंका-भगवान् तो सब प्राणियोंमें सम हैं और उनका कोई वैरी नहीं है ('समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्यः' गीता ९। २९), फिर वे दुष्टोंका विनाश क्यों करते हैं ?
समाधान-सम्पूर्ण प्राणियोंके परम सुहृद् होनेसे भगवान् का कोई वैरी नहीं है; परन्तु जो मनुष्य भक्तोंका अपराध करता है, वह भगवान् का वैरी होता है-
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ । निज अपराध रिसाहिं न काऊ ॥ जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई ॥
(मानस २। २१८। २-३)
भगवान् का एक नाम 'भक्तभक्तिमान्' (श्रीमद्भा० १०। ८६। ५९) है। अतः भक्तोंको कष्ट देनेवाले दुष्टोंका विनाश भगवान् स्वयं करते हैं। पापका विनाश भक्त करते हैं और पापीका विनाश भगवान् करते हैं।
साधुओंका परित्राण करनेमें भगवान् की जितनी कृपा है, उतनी ही कृपा दुष्टोंका विनाश करनेमें भी है* ! विनाश करके भगवान् उन्हें शुद्ध, पवित्र बनाते हैं।
*१- 'अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा'
(मानस २। १८३।३)
२- ये ये हताश्चक्रधरेण राजंस् त्रैलोक्यनाथेन जनार्दनेन । ते ते गता विष्णुपुरीं प्रयाताः क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्यः ॥
(पाण्डवगीता)
'हे राजन् ! त्रैलोक्याधिपति चक्रधारी भगवान् जनार्दनके द्वारा जो लोग मारे गये, वे सभी विष्णुलोकको चले गये। इस देवका क्रोध भी वरकी तरह ही कल्याणप्रद है।
सन्त-महात्मा धर्मकी स्थापना तो करते हैं, पर दुष्टोंके विनाशका कार्य वे नहीं करते। दुष्टोंका विनाश करनेका कार्य भगवान् अपने हाथमें रखते हैं; जैसे- साधारण मलहम-पट्टी करनेका काम तो कंपाउंडर करता है, पर बड़ा ऑपरेशन करनेका काम सिविल सर्जन खुद करता है, दूसरा नहीं।"
"माता और पिता-दोनों समानरूपसे बालकका हित चाहते हैं। बालक पढ़ाई नहीं करता, उद्दण्डता करता है तो उसको माता भी समझाती है और पिता भी समझाते हैं। बालक अपनी उद्दण्डता न छोड़े तो पिता उसे मारते-पीटते हैं। परन्तु बालक जब घबरा जाता है, तब माता पिताको मारने-पीटनेसे रोकती है। यद्यपि माता पतिव्रता है, पतिका अनुसरण करना उसका धर्म है, तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि पति बालकको मारे तो वह भी साथमें मारने लग जाय। यदि वह ऐसा करे तो बालक बेचारा कहाँ जायगा ? बालककी रक्षा करनेमें उसका पातिव्रत-धर्म नष्ट नहीं होता। कारण कि वास्तवमें पिता भी बालकको मारना-पीटना नहीं चाहते, प्रत्युत उसके दुर्गुण- दुराचारोंको दूर करना चाहते हैं। इसी तरह भगवान् पिताके समान हैं और उनके भक्त माताके समान। भगवान् और सन्त-महात्मा मनुष्योंको समझाते हैं। फिर भी मनुष्य अपनी दुष्टता न छोड़े तो उनका विनाश करनेके लिये भगवान् को अवतार लेकर खुद आना पड़ता है। अगर वे अपनी दुष्टता छोड़ दें तो उन्हें मारनेकी आवश्यकता ही न रहे।
निर्गुण ब्रह्म प्रकृति, माया, अज्ञान आदिका विरोधी नहीं है, प्रत्युत उनको सत्ता-स्फूर्ति देनेवाला तथा उनका पोषक है। तात्पर्य यह कि प्रकृति, माया आदिमें जो कुछ सामर्थ्य है, वह सब उस निर्गुण ब्रह्मकी ही है। इसी तरह सगुण भगवान् भी किसी जीवके साथ द्वेष, वैर या विरोध नहीं रखते, प्रत्युत समान रीतिसे सबको सामर्थ्य देते हैं, उनका पोषण करते हैं। इतना ही नहीं, भगवान् की रची हुई पृथ्वी भी रहनेके लिये सबको बराबर स्थान देती है। उसका यह पक्षपात नहीं है कि महात्माको तो विशेष स्थान दे, पर दुष्टको स्थान न दे। "
"ऐसे ही अन्न सबकी भूख बराबर मिटाता है, जल सबकी प्यास समानरूपसे मिटाता है, वायु सबको प्राणवायु एक-सी देती है, सूर्य सबको प्रकाश एक-सा देता है, आदि। यदि पृथ्वी, अन्न, जल आदि दुष्टोंको स्थान, अन्न, जल आदि देना बंद कर दें तो दुष्ट जी ही नहीं सकते। इस प्रकार जब भगवान् के विधानके अनुसार चलनेवाले पृथ्वी, अन्न, जल, वायु, सूर्य आदिमें भी इतनी उदारता, समता है, तब इस विधानके विधायक (भगवान्) में कितनी विलक्षण उदारता, समता होगी! वे तो उदारताके भण्डार ही हैं। यदि विधायक (भगवान्) और उनके विधानकी ओर थोड़ा-सा भी दृष्टिपात किया जाय तो मनुष्य गद्गद हो जाय और भगवान् के चरणोंमें उसका प्रेम हो जाय !
भगवान् का दुष्ट पुरुषोंसे विरोध नहीं है, प्रत्युत उनके दुष्कर्मोंसे विरोध है। कारण कि वे दुष्कर्म संसारका तथा उन दुष्टोंका भी अहित करनेवाले हैं। भगवान् सर्वसुहृद् हैं; अतः वे संसारका तथा उन दुष्टोंका भी हित करनेके लिये ही दुष्टोंका विनाश करते हैं। उनके द्वारा जो दुष्ट मारे जाते हैं, उनको भगवान् अपने ही धाममें भेज देते हैं- यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता है!
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि अगर हम पाप-कर्म ही करते रहें तो क्या हमें भी मारनेके लिये भगवान् को आना पड़ेगा ? अगर ऐसी बात है तो भगवान् के द्वारा मरनेसे हमारा कल्याण हो ही जायगा; फिर जिनमें संयम करना पड़ता है, ऐसे श्रमसाध्य सद्गुण- सदाचारका पालन क्यों करें? इसका उत्तर यह है कि वास्तवमें भगवान् उन्हीं पापियोंको मारनेके लिये आते हैं, जो भगवान् के सिवाय दूसरे किसीसे मर ही नहीं सकते। "
"दूसरी बात, शुभ-कर्मोंमें जितना लगेंगे, उतना तो पुण्य हो ही जायगा, पर अशुभ कर्मोंमें लगे रहनेसे यदि बीचमें ही मर जायँगे अथवा कोई दूसरा मार देगा तो मुश्किल हो जायगी ! भगवान् के हाथों मरकर मुक्ति पानेकी लालसा कैसे पूरी होगी! इसलिये अशुभ-कर्म करने ही नहीं चाहिये।
'धर्मसंस्थापनार्थाय' - निष्कामभावका उपदेश, आदेश और
प्रचार ही धर्मकी स्थापना है। कारण कि निष्कामभावकी कमीसे और असत् वस्तुको सत्ता देकर उसे महत्त्व देनेसे ही अधर्म बढ़ता है, जिससे मनुष्य दुष्ट स्वभाववाले हो जाते हैं। इसलिये भगवान् अवतार लेकर आचरणके द्वारा निष्कामभावका प्रचार करते हैं। निष्कामभावके प्रचारसे धर्मकी स्थापना स्वतः हो जाती है।
धर्मका आश्रय भगवान् है (गीता- चौदहवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक), इसलिये शाश्वत धर्मकी संस्थापना करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।
१-(१) ' श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह' (मानस २। १२६)
(२) 'धर्मस्य प्रभुरच्युतः ' (महाभारत, अनु० १४९।१३७)
संस्थापना करनेका अर्थ है- सम्यक् स्थापना करना। तात्पर्य है कि धर्मका कभी नाश नहीं होता, केवल ह्रास होता है। धर्मका ह्रास होनेपर भगवान् पुनः उसकी अच्छी तरह स्थापना करते हैं (गीता-
चौथे अध्यायके पहलेसे तीसरे श्लोकतक)।
'सम्भवामि युगे युगे'- आवश्यकता पड़नेपर भगवान् प्रत्येक युगमें अवतार लेते हैं। एक युगमें भी जितनी बार जरूरत पड़ती है, उतनी बार भगवान् अवतार लेते हैं। 'कारक पुरुष और सन्त- महात्माओंके रूपमें भी भगवान् का अवतार हुआ करता है।
२-जो महापुरुष भगवान् को प्राप्त हो चुके हैं और भगवद्धाममें विराजते हैं, वे 'कारक पुरुष' कहलाते हैं।
"
"भगवान् और कारक पुरुषका अवतार तो 'नैमित्तिक' है, पर सन्त-महात्माओंका अवतार 'नित्य' माना गया है।
यहाँ शंका होती है कि भगवान् तो सर्वसमर्थ हैं, फिर संतोंकी रक्षा करना, दुष्टोंका विनाश करना और धर्मकी स्थापना करना-ये काम क्या वे अवतार लिये बिना नहीं कर सकते ? इसका समाधान यह है कि भगवान् अवतार लिये बिना ये काम नहीं कर सकते, ऐसी बात नहीं है। यद्यपि भगवान् अवतार लिये बिना अनायास ही यह सब कुछ कर सकते हैं और करते भी रहते हैं, तथापि जीवोंपर विशेष कृपा करके उनका कुछ और हित करनेके लिये भगवान् स्वयं अवतीर्ण होते हैं।
३-अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थितः । भजते तादृशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥
(श्रीमद्भा १०। ३३। ३७)
'भगवान् जीवोंपर विशेष कृपा करनेके लिये ही अपनेको मनुष्यरूपमें प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जायँ।'
अवतारकालमें भगवान् के दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप आदिसे, भविष्यमें उनकी दिव्य लीलाओंके श्रवण, चिन्तन और ध्यानसे तथा उनके उपदेशोंके अनुसार आचरण करनेसे लोगोंका सहज ही उद्धार हो जाता है। इस प्रकार लोगोंका सदा उद्धार होता ही रहे, ऐसी एक रीति भगवान् अवतार लेकर ही चलाते हैं।
भगवान् के कई ऐसे प्रेमी भक्त होते हैं, जो भगवान् के साथ खेलना चाहते हैं, उनके साथ रहना चाहते हैं। उनकी इच्छा पूरी करनेके लिये भी भगवान् अवतार लेते हैं और उनके सामने आकर, उनके समान बनकर खेलते हैं। जिस युगमें जितना कार्य आवश्यक होता है, भगवान् उसीके अनुसार अवतार लेकर उस कार्यको पूरा करते हैं। "
"इसलिये भगवान् के अवतारोंमें तो भेद होता है, पर स्वयं भगवान् में कोई भेद नहीं होता। भगवान् सभी अवतारोंमें पूर्ण हैं और पूर्ण ही रहते हैं।
भगवान् के लिये न तो कोई कर्तव्य है और न उन्हें कुछ पाना ही शेष है (गीता-तीसरे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक), फिर भी वे समय-समयपर अवतार लेकर केवल संसारका हित करनेके लिये सब कर्म करते हैं। इसलिये मनुष्यको भी केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।
चौथे श्लोकमें आये अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें भगवान् ने मनुष्योंके जन्म और अपने जन्म (अवतार) में तीन बड़े अन्तर बताये हैं-
(१) जाननेमें अन्तर- मनुष्योंके और भगवान् के बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सब जन्मोंको मनुष्य तो नहीं जानते, पर भगवान् जानते हैं (४।५)।
(२) जन्ममें अन्तर- मनुष्य प्रकृतिके परवश होकर, अपने किये हुए पाप-पुण्योंका फल भोगनेके लिये और फलभोगपूर्वक परमात्माकी प्राप्ति करनेके लिये जन्म लेता है, पर भगवान् अपनी प्रकृतिको अधीन करके स्वाधीनतापूर्वक अपनी योगमायासे स्वयं प्रकट होते हैं (चौथे अध्यायका छठा श्लोक)।
(३) कार्यमें अन्तर- साधारणतः मनुष्य अपनी कामनाओंकी पूर्तिके लिये कार्य करते हैं, जो कि मनुष्यजन्मका ध्येय नहीं है, पर भगवान् केवल मात्र जीवोंके कल्याणके लिये कार्य करते हैं (चौथे अध्यायका सातवाँ-आठवाँ श्लोक)।
सम्बन्ध-चौथे श्लोकमें आये अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें भगवान् ने अपने जन्मकी दिव्यताका वर्णन आरम्भ किया था। अब अपनी ओरसे निष्काम- कर्म (कर्मयोग) का तत्त्व बतानेके उद्देश्यसे अपने जन्मकी दिव्यताके साथ- साथ अपने कर्मकी दिव्यताको जाननेका भी माहात्म्य बताते हैं।"
कल के श्लोक 9 में श्रीकृष्ण हमें अपने अवतार के गूढ़ रहस्य को समझाएंगे और बताएंगे कि उनका दिव्य जन्म और कर्म को जो जानता है, वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सकता है। यह चर्चा अत्यंत ज्ञानवर्धक होगी!
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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