ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 6 - श्रीकृष्ण का अविनाशी स्वरूप और दिव्य जन्म का रहस्य

 



"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या आप जानते हैं कि श्रीकृष्ण, जो अनंत और अविनाशी हैं, फिर भी मानव रूप में जन्म लेते हैं? यह गूढ़ रहस्य आज के श्लोक में हमारे सामने खुलता है। आइए इस दिव्य ज्ञान को समझें!

कल हमने श्लोक 4 और 5 में अर्जुन के प्रश्न और श्रीकृष्ण के उत्तर को जाना। अर्जुन ने पूछा कि श्रीकृष्ण ने यह दिव्य ज्ञान सूर्य-देवता विवस्वान को कैसे दिया, जबकि उनका जन्म तो हाल ही में हुआ है। श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि वे सभी जन्मों को स्मरण रखते हैं, जबकि अर्जुन को यह स्मरण नहीं है।

"आज के श्लोक 6 में श्रीकृष्ण कहते हैं:

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥


इसका अर्थ है:

'यद्यपि मैं अजन्मा, अविनाशी और सभी प्राणियों का परम ईश्वर हूँ, फिर भी मैं अपनी माया से अपनी प्रकृति के आधार पर अवतरित होता हूँ।'


इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने अविनाशी और अजन्मा स्वरूप को समझाते हैं। वे बताते हैं कि वे इस सृष्टि के सर्वेश्रेष्ठ ईश्वर होते हुए भी अपनी माया से जन्म लेते हैं। यह जन्म किसी कर्मबंधन का परिणाम नहीं होता बल्कि यह उनका स्वयं का चुना हुआ है, जो वे सभी के उद्धार के लिए लेते हैं।"

"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 6"

"श्रीभगवान्के जन्मकी अलौकिकता।


(श्लोक-६)


अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।


उच्चारण की विधि


अजः, अपि, सन्, अव्ययात्मा, भूतानाम्, ईश्वरः, अपि, सन्, प्रकृतिम्, स्वाम्, अधिष्ठाय, सम्भवामि, आत्ममायया ॥ ६ ॥


तथा मेरा जन्म प्राकृत मनुष्योंके सदृश नहीं है -


अहम् अर्थात् मैं, अजः अर्थात् अजन्मा (और), अव्ययात्मा अर्थात् अविनाशीस्वरूप सन् अर्थात् होते हुए, अपि अर्थात् भी (तथा), भूतानाम् अर्थात् समस्त प्राणियोंका, ईश्वरः अर्थात् ईश्वर, सन् अर्थात् होते हुए, अपि अर्थात् भी, स्वाम् अर्थात् अपनी, प्रकृतिम् अर्थात् प्रकृतिको, अधिष्ठाय अर्थात् अधीन करके, आत्ममायया अर्थात् अपनी योगमायासे, सम्भवामि अर्थात् प्रकट होता हूँ।


अर्थ - मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ ॥ ६ ॥"

"व्याख्या- [यह छठा श्लोक है और इसमें छः बातोंका ही वर्णन हुआ है। अज, अव्यय और ईश्वर- ये तीन बातें भगवान् की हैं*; प्रकृति और योगमाया- ये दो बातें भगवान् की शक्तिकी हैं और एक बात भगवान् के प्रकट होनेकी है।।


* गीतामें भगवान् ने अपने अज, अव्यय और ईश्वर- इन तीनों रूपोंको जानने और न जाननेकी बात कही है; जैसे-


१-' अज'-स्वरूपको जाननेकी बात-


यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । असम्मूढः स मर्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। (१०।३)


न जाननेकी बात-मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ।। (७।२५)


२-'अव्यय' स्वरूपको जाननेकी बात- भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ (९।१३)


न जाननेकी बात- परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।। (७।२४)


३-'ईश्वर'- स्वरूपको जाननेकी बात- भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।। (५।२९)


न जाननेकी बात-अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ (९।११)


'अजोऽपि सन्नव्ययात्मा' - इन पदोंसे भगवान् यह बताते हैं कि साधारण मनुष्योंकी तरह न तो मेरा जन्म है और न मेरा मरण ही है। मनुष्य जन्म लेते हैं और मर जाते हैं; परन्तु मैं 'अजन्मा' होते हुए भी प्रकट हो जाता हूँ और 'अविनाशी' होते हुए भी अन्तर्धान हो जाता हूँ। प्रकट होना और अन्तर्धान होना- दोनों ही मेरी अलौकिक लीलाएँ हैं।


सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट (अव्यक्त) थे और मरनेके बाद भी अप्रकट (अव्यक्त) हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट (व्यक्त) हैं (गीता- दूसरे अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक)। परन्तु भगवान् सूर्यकी तरह सदा ही प्रकट रहते हैं। तात्पर्य है कि जैसे सूर्य उदय होनेसे पहले भी ज्यों-का-त्यों रहता है"

"और अस्त होनेके बाद भी ज्यों-का-त्यों रहता है अर्थात् सूर्य तो सदा ही रहता है; किन्तु स्थानविशेषके लोगोंकी दृष्टिमें उसका उदय और अस्त होना दीखता है। ऐसे ही भगवान् का प्रकट होना और अन्तर्धान होना लोगोंकी दृष्टिमें है, वास्तवमें भगवान् सदा ही प्रकट रहते हैं।


दूसरे प्राणी जैसे कर्मोंक परतन्त्र होकर जन्म लेते हैं, भगवान् का जन्म वैसे नहीं होता। कर्मोंकी परतन्त्रतासे जन्म होनेपर दो बातें होती हैं- आयु और सुख-दुःखका भोग। भगवान् में ये दोनों ही नहीं होते।


दूसरे लोग जन्मते हैं तो शरीर पहले बालक होता है, फिर बड़ा होकर युवा हो जाता है, फिर वृद्ध हो जाता है और फिर मर जाता है। परन्तु भगवान् में ये परिवर्तन नहीं होते। वे अवतार लेकर बाललीला करते हैं और किशोर अवस्था (पंद्रह वर्षकी अवस्था) तक बढ़नेकी लीला करते हैं। किशोर-अवस्थातक पहुँचनेके बाद फिर वे नित्य किशोर ही रहते हैं। सैकड़ों वर्ष बीतनेपर भी भगवान् वैसे ही सुन्दर-स्वरूप रहते हैं। इसीलिये भगवान् के जितने चित्र बनाये जाते हैं, उसमें उनकी दाढ़ी-मूछें नहीं होतीं (अब कोई बना दे तो अलग बात है!)। इस प्रकार दूसरे प्राणियोंकी तरह न तो भगवान् का जन्म होता है, न न परिवर्तन होता है और न मृत्यु ही होती है। 'भूतानामीश्वरोऽपि सन्' - प्राणिमात्रके एकमात्र ईश्वर (महान् शासक) रहते हुए ही भगवान् अवतारके समय छोटे-से बालक बन जाते हैं; परन्तु बालक बन जानेपर भी उनके ईश्वरभाव (शासकत्व) में कोई कमी नहीं आती; जैसे- भगवान् श्रीकृष्णने छठीके दिन ही पूतना राक्षसीको मार दिया। पूतनाका शरीर ढाई योजनका और महान् भयंकर था। यदि उनमें ईश्वरभाव न होता तो छठीके दिन पूतनाको कैसे मार देते ? "

"भगवान् ने तीन महीनेकी अवस्थामें शकटासुरको, एक वर्षकी अवस्थामें तृणावर्तको और पाँच वर्षकी अवस्थामें अघासुरको मार दिया। इस तरह भगवान् ने बाल्यावस्थामें ही अनेक राक्षसोंको मार दिया। सात वर्षकी अवस्थामें ही उन्होंने गोवर्धन पर्वतको एक अँगुलीपर उठा लिया !


सम्पूर्ण प्राणियोंके ईश्वर होते हुए भी भगवान् अवतारके समय छोटे-से-छोटे बन जाते हैं और छोटा-सा-छोटा काम भी कर देते हैं। वास्तवमें यही भगवान् की भगवत्ता है। भगवान् अर्जुनके घोड़े हाँकते हैं और उनकी आज्ञाका पालन करते हैं, फिर भी भगवान् का अर्जुनपर और दूसरे प्राणियोंपर ईश्वरभाव वैसा-का-वैसा ही है। सारथि होनेपर भी वे अर्जुनको गीताका महान् उपदेश देते हैं। भगवान् श्रीराम पिता दशरथकी आज्ञाको टालते नहीं और चौदह वर्षके लिये वनमें चले जाते हैं, फिर भी भगवान् का दशरथपर और दूसरे प्राणियोंपर ईश्वरभाव वैसा-का-वैसा ही है।


'प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय' - जो सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणोंसे अलग है, वह भगवान् की शुद्ध प्रकृति है। यह शुद्ध प्रकृति भगवान् का स्वकीय सच्चिदानन्दघनस्वरूप है। इसीको संधिनी- शक्ति, संवित्-शक्ति और आह्लादिनी-शक्ति कहते हैं।


१-संधिनी-शक्ति 'सत्'-स्वरूपा, संवित्-शक्ति 'चित्' स्वरूपा और आह्लादिनी- शक्ति 'आनन्द' स्वरूपा है। इसीको चिन्मयशक्ति, कृपाशक्ति आदि नामोंसे कहते हैं। श्रीराधाजी, श्रीसीताजी आदि भी यही हैं। भगवान् को प्राप्त करानेवाली 'भक्ति' और 'ब्रह्मविद्या' भी यही है। २-अवतारके समय भगवान् अपनी शुद्ध प्रकृतिरूप शक्तियोंसहित अवतरित होते हैं और अवतार-कालमें इन शक्तियोंसे काम लेते हैं। श्रीराधाजी भगवान् की शक्ति हैं और उनकी अनुगामिनी अनेक सखियाँ हैं, जो सब भक्तिरूपा हैं और भक्ति प्रदान करनेवाली हैं। "

"भक्तिरहित मनुष्य इनको नहीं जान सकते। इनको भगवान् और राधाजीकी कृपासे ही जान सकते हैं।


प्रकृति भगवान् की शक्ति है। जैसे, अग्निमें दो शक्तियाँ रहती हैं- प्रकाशिका और दाहिका। प्रकाशिका-शक्ति अन्धकारको दूर करके प्रकाश कर देती है तथा भय भी मिटाती है। दाहिका-शक्ति जला देती है तथा वस्तुको पकाती एवं ठण्डक भी दूर करती है। ये दोनों शक्तियाँ अग्निसे भिन्न भी नहीं हैं और अभिन्न भी नहीं हैं। भिन्न इसलिये नहीं हैं कि वे अग्निरूप ही हैं अर्थात् उन्हें अग्निसे अलग नहीं किया जा सकता, और अभिन्न इसलिये नहीं हैं कि अग्निके रहते हुए भी मन्त्र, औषध आदिसे अग्निकी दाहिका-शक्ति कुण्ठित की जा सकती है। ऐसे ही भगवान् में जो शक्ति रहती है, उसे भगवान् से भिन्न और अभिन्न- दोनों ही नहीं कह सकते।


जैसे दियासलाईमें अग्निकी सत्ता तो सदा रहती है, पर उसकी प्रकाशिका और दाहिका-शक्ति छिपी हुई रहती है; ऐसे ही भगवान् सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें सदा रहते हैं, पर उनकी शक्ति छिपी हुई रहती है। उस शक्तिको अधिष्ठित करके अर्थात् अपने वशमें करके, उसके द्वारा भगवान् प्रकट होते हैं। जैसे, जबतक अग्नि अपनी प्रकाशिका और दाहिका-शक्तिको लेकर प्रकट नहीं होती, तबतक भगवान् हरदम रहते हुए भी नहीं दीखते। राधाजी, सीताजी, रुक्मिणीजी आदि सब भगवान् की निजी दिव्य शक्तियाँ हैं। भगवान् सामान्यरूपसे सब जगह रहते हुए भी कोई काम नहीं करते। जब करते हैं, तब अपनी दिव्य शक्तिको लेकर ही करते हैं। उस दिव्य शक्तिके द्वारा भगवान् विचित्र-विचित्र लीलाएँ करते हैं। उनकी लीलाएँ इतनी विचित्र और अलौकिक होती हैं कि उनको सुनकर, गाकर और याद करके भी जीव पवित्र होकर अपना उद्धार कर लेते हैं।"

"निर्गुण-उपासनामें वही शक्ति 'ब्रह्मविद्या' हो जाती है, और सगुण- उपासनामें वही शक्ति 'भक्ति' हो जाती है। जीव भगवान् का ही अंश है। जब वह दूसरोंमें मानी हुई ममता हटाकर एकमात्र भगवान् की स्वतःसिद्ध वास्तविक आत्मीयताको जाग्रत् कर लेता है, तब भगवान् की शक्ति उसमें भक्तिरूपसे प्रकट हो जाती है। वह भक्ति इतनी विलक्षण है कि निराकार भगवान् को भी साकाररूपसे प्रकट कर देती है, भगवान् को भी खींच लेती है। वह भक्ति भी भगवान् ही देते हैं।


भगवान् की भक्तिरूप शक्तिके दो रूप हैं- विरह और मिलन। भगवान् विरह भी भेजते हैं, और मिलन भी।


* संतोंकी वाणीमें आया है- 'दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाय।' अर्थात् भगवान् ने कृपा करके मेरे लिये विरह भेज दिया !


जब भगवान् विरह भेजते हैं, तब भक्त भगवान् के बिना व्याकुल हो जाता है। व्याकुलताकी अग्निमें संसारकी आसक्ति जल जाती है और भगवान् प्रकट हो जाते हैं। ज्ञानमार्गमें भगवान् की शक्ति पहले उत्कट जिज्ञासाके रूपमें आती है (जिससे तत्त्वको जाने बिना साधकसे रहा नहीं जाता) और फिर ब्रह्मविद्या-रूपसे जीवके अज्ञानका नाश करके उसके वास्तविक स्वरूपको प्रकाशित कर देती है। परन्तु भगवान् की वह दिव्य शक्ति, जिसे भगवान् विरहरूपसे भेजते हैं, उससे भी बहुत विलक्षण है। भगवान् कहाँ हैं ? क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? - इस प्रकार भक्त व्याकुल हो जाता है, तो यह व्याकुलता सब पापोंका नाश करके भगवान् को साकाररूपसे प्रकट कर देती है। व्याकुलतासे जितना जल्दी काम बनता है, उतना विवेक-विचारपूर्वक किये गये साधनसे नहीं। 


विशेष बात


भगवान् अपनी प्रकृतिके द्वारा अवतार लेते हैं और तरह-तरहकी अलौकिक लीलाएँ करते हैं। जैसे अग्नि स्वयं कुछ नहीं करती, उसकी प्रकाशिका-शक्ति प्रकाश कर देती है, "

"दाहिका-शक्ति जला देती है; ऐसे ही भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते, उनकी दिव्य शक्ति ही सब काम कर देती है। शास्त्रोंमें आता है कि सीताजी कहती हैं - 'रावणको मारना आदि सब काम मैंने किया है, रामजीने कुछ नहीं किया।'


जैसे मनुष्य और उसकी शक्ति (ताकत) है, ऐसे ही भगवान् और उनकी शक्ति है। उस शक्तिको भगवान् से अलग भी नहीं कह सकते और एक भी नहीं कह सकते। मनुष्यमें जो शक्ति है, उसे वह अपनेसे अलग करके नहीं दिखा सकता, इसलिये वह उससे अलग नहीं है। मनुष्य रहता है, पर उसकी शक्ति घटती-बढ़ती रहती है, इसलिये वह मनुष्यसे एक भी नहीं है। यदि उसकी मनुष्यसे एकता होती तो वह उसके स्वरूपके साथ बराबर रहती, घटती-बढ़ती नहीं। अतः भगवान् और उनकी शक्तिको भिन्न अथवा अभिन्न कुछ भी नहीं कह सकते। दार्शनिकोंने भिन्न भी नहीं कहा और अभिन्न भी नहीं कहा। वह शक्ति अनिर्वचनीय है। भगवान् श्रीकृष्णके उपासक उस शक्तिको श्रीजी (राधाजी) के नामसे कहते हैं। जैसे पुरुष और स्त्री दो होते हैं, ऐसे श्रीकृष्ण और श्रीजी दो नहीं हैं। ज्ञानमें तो द्वैतका अद्वैत होता है अर्थात् दो होकर भी एक हो जाता है, और भक्तिमें अद्वैतका द्वैत होता है अर्थात् एक होकर भी दो हो जाता है। जीव और ब्रह्म एक हो जायँ तो 'ज्ञान' होता है और एक ही ब्रह्म दो रूप हो जाय तो 'भक्ति' होती है। एक ही अद्वैत- तत्त्व प्रेमकी लीला करनेके लिये, प्रेमका आस्वादन करनेके लिये, सम्पूर्ण जीवोंको प्रेमका आनन्द देनेके लिये श्रीकृष्ण और श्रीजी- इन दो रूपोंसे प्रकट होता है*।


* येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहश्चैकः क्रीडनार्थं द्विधाभूत् ।


(श्रीराधातापनीयोपनिषद्)


'जो ये राधा और जो ये कृष्ण रसके सागर हैं, वे एक ही हैं, पर लीलाके लिये दो रूप बने हुए हैं।'"

"दो रूप होनेपर भी दोनोंमें कौन बड़ा है और कौन छोटा, कौन प्रेमी है और कौन प्रेमास्पद ? इसका पता ही नहीं चलता। दोनों ही एक-दूसरेसे बढ़कर विलक्षण दीखते हैं। दोनों एक-दूसरेके प्रति आकृष्ट होते हैं। श्रीजीको देखकर भगवान् प्रसन्न होते हैं और भगवान् को देखकर श्रीजी। दोनोंकी परस्पर प्रेम-लीलासे रसकी वृद्धि होती है। इसीको रास कहते हैं।


भगवान् की शक्तियाँ अनन्त हैं, अपार हैं। उनकी दिव्य शक्तियोंमें ऐश्वर्य-शक्ति भी है और माधुर्य-शक्ति भी। ऐश्वर्य-शक्तिसे भगवान् ऐसे विचित्र और महान् कार्य करते हैं, जिनको दूसरा कोई कर ही नहीं सकता। ऐश्वर्य-शक्तिके कारण उनमें जो महत्ता, विलक्षणता, अलौकिकता दीखती है, वह उनके सिवाय और किसीमें देखने- सुननेमें नहीं आती। माधुर्य-शक्तिमें भगवान् अपने ऐश्वर्यको भूल जाते हैं। भगवान् को भी मोहित करनेवाली माधुर्य-शक्तिमें एक मधुरता, मिठास होती है, जिसके कारण भगवान् बड़े मधुर और प्रिय लगते हैं। जब भगवान् ग्वालबालोंके साथ खेलते हैं, तब माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है। अगर उस समय ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट हो जाय तो सारा खेल बिगड़ जाय; ग्वालबाल डर जायँ और भगवान् के साथ खेल भी न सकें। ऐसे ही भगवान् कहीं मित्ररूपसे, कहीं पुत्ररूपसे और कहीं पतिरूपसे प्रकट हो जाते हैं, तो उस समय उनकी ऐश्वर्य-शक्ति छिपी रहती है और माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है। तात्पर्य है कि भगवान् भक्तोंके भावोंके अनुसार उनको आनन्द देनेके लिये ही अपनी ऐश्वर्य-शक्तिको छिपाकर माधुर्य-शक्ति प्रकट कर देते हैं।


जिस समय माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है, उस समय ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट नहीं होती और जिस समय ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट रहती है, उस समय माधुर्य-शक्ति प्रकट नहीं होती। "

"ऐश्वर्य-शक्ति केवल तभी प्रकट होती है, जब माधुर्यभावमें कोई शंका पैदा हो जाय। जैसे, माधुर्य-शक्तिके प्रकट रहनेपर भगवान् श्रीकृष्ण बछड़ोंको ढूँढ़ते हैं। परन्तु 'बछड़े कहाँ गये?' यह शंका पैदा होते ही ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट हो जाती है और भगवान् तत्काल जान जाते हैं कि बछड़ोंको ब्रह्माजी ले गये हैं। भगवान् में एक सौन्दर्य-शक्ति भी होती है, जिससे हरेक प्राणी उनमें आकृष्ट हो जाता है। भगवान् श्रीकृष्णके सौन्दर्यको देखकर मथुरापुरवासिनी स्त्रियाँ आपसमें कहती हैं-


गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य रूपं लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम् । दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुराप- मेकान्तधाम यशसः श्रिय ऐश्वरस्य ॥


(श्रीमद्भा० १०।४४।१४)


'इन भगवान् श्रीकृष्णका रूप सम्पूर्ण सौन्दर्यका सार है, सृष्टिमात्रमें किसीका भी रूप इनके रूपके समान नहीं है। इनका रूप किसीके सँवारने-सजाने अथवा गहने-कपड़ोंसे नहीं, प्रत्युत स्वयंसिद्ध है। इस रूपको देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होती; क्योंकि यह नित्य नवीन ही रहता है। समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इस रूपके आश्रित है। इस रूपके दर्शन बहुत ही दुर्लभ हैं। गोपियोंने पता नहीं कौन-सा तप किया था, जो अपने नेत्रोंके दोनोंसे सदा इनकी रूप-माधुरीका पान किया करती हैं!'


शुकदेवजी कहते हैं-


निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप। प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम् ।। पिबन्त इव चक्षुर्थ्यां लिहन्त इव जिह्वया। जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः ॥ 


(श्रीमद्भा १०।४३। २०-२१)


'परीक्षित् ! मंचोंपर जितने लोग बैठे थे, वे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे, उत्कण्ठासे भर गये। "

"वे नेत्रोंद्वारा उनकी मुख-माधुरीका पान करते- करते तृप्त ही नहीं होते थे; मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वासे चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकड़कर हृदयसे सटा रहे हों !'


भगवान् श्रीरामके सौन्दर्यको देखकर विदेह राजा जनक भी विदेह अर्थात् देहकी सुध-बुधसे रहित हो जाते हैं-


मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ।।


(मानस १। २१५।४)


और कहते हैं-


सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥


(मानस १। २१६। २)


वनमें रहनेवाले कोल-भील भी भगवान् के विग्रहको देखकर मुग्ध हो जाते हैं-


करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे ।। चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े ।।


(मानस २। १३५।३)


प्रेमियोंकी तो बात ही क्या, वैरभाव रखनेवाले राक्षस खर-दूषण भी भगवान् के विग्रहकी सुन्दरताको देखकर चकित हो जाते हैं और कहते हैं-


नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते ॥ हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई ।।


(मानस ३।१९।२)


तात्पर्य है कि भगवान् के दिव्य सौन्दर्यकी ओर प्रेमी, विरक्त, ज्ञानी, मूर्ख, वैरी, असुर और राक्षसतक सबका मन आकृष्ट हो जाता है।


'सम्भवाम्यात्ममायया'- जो मनुष्य भगवान् से विमुख रहते हैं, उनके सामने भगवान् अपनी योगमायामें छिपे रहते हैं और साधारण मनुष्य-जैसे ही दीखते हैं। मनुष्य ज्यों-ज्यों भगवान् के सम्मुख होता जाता है, त्यों-त्यों भगवान् उसके सामने प्रकट होते जाते हैं। इसी योगमायाका आश्रय लेकर भगवान् विचित्र-विचित्र लीलाएँ करते है।


१- योगमायाका आश्रय लेकर ही भगवान् रासलीला करते हैं- भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः । वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ।॥ (श्रीमद्भा० १०।२९।१)"

"भगवद्विमुख मूढ़ पुरुषके आगे दो परदे रहते हैं- एक तो अपनी मूढ़ताका और दूसरा भगवान् की योग-मायाका (गीता-सातवें अध्यायका पचीसवाँ श्लोक)। अपनी मूढ़ता रहनेके कारण भगवान् का प्रभाव साक्षात् सामने प्रकट होनेपर भी वह उसे समझ नहीं सकता; जैसे- द्रौपदीका चीरहरण करनेके लिये दुःशासन अपना पूरा बल लगाता है, उसकी भुजाएँ थक जाती हैं, पर साड़ीका अन्त नहीं आता-


द्रुपद सुता निरबल भइ ता दिन, तजि आये निज धाम। दुस्सासन की भुजा थकित भई, बसन-रूप भए स्याम ॥


- इस प्रकार भगवान् ने सभाके भीतर अपना ऐश्वर्य साक्षात् प्रकट कर दिया। परन्तु अपनी मूढ़ताके कारण दुःशासन, दुर्योधन, कर्ण आदिपर इस बातका कोई असर ही नहीं पड़ा कि द्रौपदीके द्वारा भगवान् को पुकारनेमात्रसे कितनी विलक्षणता प्रकट हो गयी ! एक स्त्रीका चीरहरण भी नहीं कर सके तो और क्या कर सकते हैं! इस तरफ उनकी दृष्टि ही नहीं गयी। भगवान् का प्रभाव सामने देखते हुए भी वे उसे जान नहीं सके।


यदि जीव अपनी मूढ़ता (अज्ञान) दूर कर दे तो उसे अपने स्वरूपका अथवा परमात्मतत्त्वका बोध तो हो जाता है, पर भगवान् के दर्शन नहीं होते। 


२-अपने स्वरूपका बोध होनेपर भगवान् के दर्शन हो जायँ ऐसा नियम नहीं है। परन्तु भगवान् के दर्शन होनेपर अपने स्वरूपका बोध भी हो जाता है। इसलिये भगवान् कहते हैं-


मम दरसन फल परम अनूपा।


जीव पाव निज सहज सरूपा ।।


(मानस ३। ३६।५)


भगवान् के दर्शन तभी होते हैं, जब भगवान् अपनी योगमायाका परदा हटा देते हैं। अपना अज्ञान मिटाना तो जीवके हाथकी बात है, पर योग-मायाको दूर करना उसके हाथकी बात नहीं है।  वह सर्वथा भगवान् के शरण हो जाय तो भगवान् अपनी शक्तिसे उसका अज्ञान भी मिटा सकते हैं और दर्शन भी दे सकते हैं। भगवान् जितनी लीलाएँ करते हैं, सब योगमायाका आश्रय लेकर ही करते हैं। 

"

"इसी कारण उनकी लीलाको देख सकते हैं, उसका अनुभव कर सकते हैं। यदि वे योगमायाका आश्रय न लें तो उनकी लीलाको कोई देख ही नहीं सकता, उसका आस्वादन कोई कर ही नहीं सकता।


अवतार-सम्बन्धी विशेष बात


अवतारका अर्थ है-नीचे उतरना। सब जगह परिपूर्ण रहनेवाले सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा अपने अनन्य भक्तोंकी इच्छा पूरी करनेके लिये अत्यधिक कृपासे एक स्थान-विशेषमें अवतार लेते हैं और छोटे बन जाते हैं। दूसरे लोगोंका प्रभाव या महत्त्व तो बड़े हो जानेसे होता है, पर भगवान् का प्रभाव या महत्त्व छोटे हो जानेसे होता है। कारण कि अपार, असीम, अनन्त होकर भी भगवान् छोटे- से बन जाते हैं- यह उनकी विलक्षणता ही है। जैसे, भगवान् अनन्त ब्रह्माण्डोंको धारण करते हैं; परन्तु एक पर्वतको धारण करनेसे भगवान् 'गिरिधारी' नामसे प्रसिद्ध हो गये ! अनन्त ब्रह्माण्ड जिनके रोम-रोममें स्थित है, ऐसे परमेश्वर एक पर्वतको उठा लें - यह कोई बड़ी बात नहीं, प्रत्युत छोटी बात है।


* रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रांड ।


(मानस १। २०१)


परन्तु छोटी बातमें ही भगवान् की बड़ी बात होती है। इसी प्रकार अवतार लेनेमें ही भगवान् की विशेषता है। साधारण आदमी जिस स्थितिपर है, उसी स्थितिपर आकर भगवान् वैसी लीला करते हैं। बिलकुल भोले-भाले साधारण बालककी तरह बनकर लीला करते हैं। ग्वालबालोंसे खेलते समय वे दूसरे ग्वालबालसे हार भी जाते हैं। जो ग्वालबाल जीत जाता है, वह सवार बन जाता है और भगवान् घोड़ा बन जाते हैं। यह उनकी विशेष महत्ता है। भगवान् के प्रभावको जाननेवाले ज्ञानी महात्मालोग तो उनके स्वरूपमें मस्त रहते हैं; पर भक्तोंको उनकी साधारण अज्ञ बालककी तरह भोली-भाली लीला बड़ी विचित्र और मीठी लगती है। वहाँ ज्ञानियोंका ज्ञान नहीं चलता। ज्ञानियोंके शिरोमणि ब्रह्माजी भी भगवान् की लीलाको देखकर चकरा गये ! "

"बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, योगी-तपस्वी, संत-महात्मा भी उनकी लीलाओंके रहस्यको नहीं जान सकते और इस विषयमें मूक हो जाते हैं। भगवान् ही कृपा करके जिन प्यारे अन्तरंग भक्तोंको जनाना चाहते हैं, वे ही उनकी लीलाके तत्त्वको जान पाते हैं- 'सोइ जानइ जेहि देहु जनाई' (मानस २। १२७। २)। गायें चराते समय, ग्वालबालोंसे खेलते समय भी भगवान् बड़े-बड़े प्रभावशाली कार्य कर देते हैं। बड़े-बड़े बलवान् राक्षसोंको भी चुटकियोंमें ही खत्म कर देते हैं। छोटे-से बालक बननेपर भी उनका प्रभाव वैसा-का-वैसा ही रहता है। जैसे कोई बहुत बड़ा विद्वान् किसी बालकको वर्णमाला सिखाता है, तो वह बालकका हाथ पकड़कर उससे 'क ख ग .....' लिखवाता है और मुँहसे भी वैसा बोलता है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह विद्वान् स्वयं वर्णमाला सीखता है। वह तो बालककी स्थितिमें आकर उसे सिखाता है, जिससे वह सुगमतापूर्वक सीख जाय। ऐसे ही अनन्तब्रह्माण्डनायक भगवान् हमलोगोंके बीच हमारे सामने आते हैं और हमारी तरह ही बनकर हमें शिक्षा देते हैं। उनकी बड़ी अलौकिक विचित्र-विचित्र लीलाएँ होती हैं, जिनका श्रवण, पठन और गायन करनेसे भी लोगोंका उद्धार हो जाता है।


परिशिष्ट भाव - भगवान् प्रकृतिकी सहायतासे ही क्रिया (लीला) करते हैं। इसीलिये सीताजी कहती हैं कि सब कार्य मैंने किये हैं, भगवान् रामने कुछ नहीं किया (अध्यात्मरामायण, बाल० पहले अध्यायके बत्तीसवेंसे तैंतालीसवें श्लोकतक)। परन्तु भगवान् मनुष्यकी तरह प्रकृतिके अधीन नहीं होते- 'प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय ।' कारण कि भगवान् के लिये प्रकृति 'पर' नहीं है, प्रत्युत उनसे अभिन्न है (गीता- सातवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक)। भगवान् को प्रकृतिमें स्थित मनुष्योंके सामने आना है, इसलिये वे प्रकृतिको स्वीकार करके प्रकट होते हैं। तभी मनुष्य उनको देख सकते हैं।


सम्बन्ध-अब भगवान् आगेके श्लोकमें अपने अवतारका अवसर बताते हैं।"

कल के श्लोक 7 में श्रीकृष्ण हमें यह बताएंगे कि वे कब-कब अवतरित होते हैं और क्यों। कल की चर्चा से हम जानेंगे कि धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश कैसे उनके अवतार का उद्देश्य बनता है। यह जानना अत्यंत रोचक होगा!

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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