ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 4 से 5 - श्रीकृष्ण के जन्म का गूढ़ रहस्य
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आप जानना चाहते हैं कि कैसे श्रीकृष्ण, जो अनादि और अनंत हैं, फिर भी मानव रूप में जन्म लेते हैं? आज हम इस अद्भुत रहस्य पर चर्चा करेंगे, जो अर्जुन और हमारे लिए एक बड़ा प्रश्न है!
कल हमने श्लोक 3 में यह जाना कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विशेष कृपा के साथ दिव्य ज्ञान का वरदान दिया, क्योंकि अर्जुन उनके भक्त और मित्र हैं। आज अर्जुन उनके जन्म को लेकर एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछते हैं, जिसका उत्तर बहुत गूढ़ है।
"आज के श्लोक 4 और 5 में अर्जुन और श्रीकृष्ण का संवाद होता है:
अर्जुन उवाच—
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥
श्रीभगवानुवाच—
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥*
अर्जुन यहाँ पूछते हैं, ‘हे कृष्ण, आपका जन्म तो अभी हुआ है, और विवस्वान का जन्म तो आपसे बहुत पहले हो चुका है, तो आपने यह ज्ञान उन्हें कैसे दिया?’
श्रीकृष्ण जवाब देते हैं, ‘हे अर्जुन, मैंने और तुमने कई जन्म लिए हैं; मुझे उन सभी जन्मों का ज्ञान है, परंतु तुम्हें नहीं।’
यह संवाद एक गहरी बात कहता है—श्रीकृष्ण का यह अवतार जन्म, अवतारवाद का सिद्धांत है, और वे जानते हैं कि उन्होंने कितने जन्म लिए हैं। अर्जुन का यह प्रश्न भी हमारे लिए बहुत कुछ सोचने का कारण बनता है कि कैसे भगवान हमारे बीच आकर हमें दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 4 से 5"
"(श्लोक-४)
अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः । कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।
उच्चारण की विधि
अपरम्, भवतः, जन्म, परम्, जन्म, विवस्वतः, कथम्, एतत्, विजानीयाम्, त्वम्, आदौ, प्रोक्तवान् इति ॥ ४ ॥
इस प्रकार भगवान्के वचन सुनकर अर्जुन बोले, हे भगवन् !
भवतः अर्थात् आपका, जन्म अर्थात् जन्म (तो), अपरम् अर्थात् अर्वाचीन अभी हालका है (और), विवस्वतः अर्थात् सूर्यका, जन्म अर्थात् जन्म, परम् अर्थात् बहुत पुराना है अर्थात् कल्पके आदिमें हो चुका था (तब मैं), इति अर्थात् इस बातको, कथम् अर्थात् कैसे, विजानीयाम् अर्थात् समझें (कि), त्वम् अर्थात् आपहीने, आदौ अर्थात् कल्पके आदिमें (सूर्यसे), एतत् अर्थात् यह योग, प्रोक्तवान् अर्थात् कहा था।
अर्थ - अर्जुन बोले-आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हालका है और सूर्यका जन्म बहुत पुराना है अर्थात् कल्पके आदिमें हो चुका था। तब मैं इस बातको कैसे समझें कि आपहीने कल्पके आदिमें सूर्यसे यह योग कहा था ? ॥४॥"
"व्याख्या अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ' -
आपका जन्म तो अभी कुछ वर्ष पूर्व श्रीवसुदेवजीके घर हुआ है, पर सूर्यका जन्म सृष्टिके आरम्भमें हुआ था। अतः आपने सूर्यको कर्मयोग कैसे कहा था ?
अर्जुनके इस प्रश्नमें तर्क या आक्षेप नहीं है, प्रत्युत जिज्ञासा है। वे भगवान् के जन्म-सम्बन्धी रहस्यको सुगमतापूर्वक समझनेकी दृष्टिसे ही प्रश्न करते हैं; क्योंकि अपने जन्म-सम्बन्धी रहस्यको प्रकट करनेमें भगवान् ही सर्वथा समर्थ हैं।
'कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति'- मैं आपको सृष्टिके आदिमें उपदेश देनेवाला कैसे जानूँ ? अर्जुनके प्रश्नका तात्पर्य यह है कि सूर्यको उपदेश देनेके बादसे सूर्यवंशकी (मनु, इक्ष्वाकु आदि) कई पीढ़ियाँ बीत चुकी हैं और आपका अवतार अभीका है; अतः आपने सृष्टिके आदिमें सूर्यको उपदेश कैसे दिया था-यह बात मैं अच्छी तरह समझना चाहता हूँ। सूर्य तो अभी भी है, इसलिये उसे अभी भी उपदेश दिया जा सकता है। परन्तु आपने सूर्यको उपदेश देनेके बाद सूर्यवंशकी परम्पराका भी वर्णन किया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि आपने सूर्यको उपदेश अभी नहीं दिया है। अतः आपने सूर्यको कल्पके आदिमें कैसे उपदेश दिया था ? सम्बन्ध-अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें अपना अवतार-रहस्य प्रकट करनेके लिये भगवान् पहले अपनी सर्वज्ञताका दिग्दर्शन कराते हैं।"
"श्रीभगवान् द्वारा अपने और अर्जुनके बहुत जन्म व्यतीत होनेका कथन ।
(श्लोक-५)
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।
उच्चारण की विधि
बहूनि, मे, व्यतीतानि, जन्मानि, तव, च, अर्जुन, तानि, अहम्, वेद, सर्वाणि, न, त्वम्, वेत्थ, परन्तप ॥ ५॥
इसपर श्रीभगवान् बोले-
परन्तप अर्थात् हे परन्तप, अर्जुन अर्थात् अर्जुन !, मे अर्थात् मेरे, च अर्थात् और, तव अर्थात् तेरे, बहूनि अर्थात् बहुत-से, जन्मानि अर्थात् जन्म, व्यतीतानि अर्थात् हो चुके हैं, तानि अर्थात् उन, सर्वाणि अर्थात् सबको, त्वम् अर्थात् तू, न अर्थात् नहीं, वेत्थ अर्थात् जानता (किंतु), अहम् अर्थात् मैं, वेद अर्थात् जानता हूँ।
अर्थ - श्रीभगवान् बोले-हे परंतप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ ॥ ५ ॥"
"व्याख्या [तीसरे श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनको अपना भक्त और प्रिय सखा कहा था, इसलिये पीछेके श्लोकमें अर्जुन अपने हृदयकी बात निःसंकोच होकर पूछते हैं। अर्जुनमें भगवान् के जन्म-रहस्यको जाननेकी प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न हुई है, इसलिये भगवान् उनके सामने मित्रताके नाते अपने जन्मका रहस्य प्रकट कर देते हैं। यह नियम है कि श्रोताकी प्रबल जिज्ञासा होनेपर वक्ता अपनेको छिपाकर नहीं रख सकता। इसलिये सन्त-महात्मा भी अपनेमें विशेष श्रद्धा रखनेवालोंके सामने अपने-आपको प्रकट कर सकते हैं*-]
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं । आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥
(मानस १। ११०।१) * सन्त-महात्मा भी स्वयं छिपे रहते हैं और सबके सामने प्रकट नहीं होते। परन्तु निम्नलिखित तीन अवसरोंपर वे अपने-आपको प्रकट कर देते हैं-
१-जब कोई अत्यधिक श्रद्धालु सामने आ जाय और उसमें उन्हें (सन्त- महात्माको) जाननेकी उत्कट अभिलाषा हो।
२-जब अपने किसी प्रेमीका शरीर छूटनेवाला हो।
३-जब सन्त-महात्माका अपना कहलानेवाला शरीर छूट रहा हो।
दूसरे और तीसरे अवसरपर सन्त-महात्मा उस व्यक्तिके सामने भी अपने- आपको प्रकट कर देते हैं, जिसमें उतनी अधिक श्रद्धा तो नहीं है, पर वह उन सन्त- महात्माका हृदयसे आदर करता है और उन्हें जानना चाहता है।
'बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन'- समय-समयपर मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। परन्तु मेरा जन्म और तरहका है (जिसका वर्णन आगे छठे श्लोकमें करेंगे) और तेरा (जीवका) जन्म और तरहका है (जिसका वर्णन आठवें अध्यायके उन्नीसवें और तेरहवें अध्यायके इक्कीसवें एवं छब्बीसवें श्लोकमें करेंगे)। तात्पर्य यह कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म होनेपर भी वे अलग-अलग प्रकारके हैं।
"
"दूसरे अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनसे कहा था कि मैं (भगवान्) और तू तथा ये राजालोग (जीव) पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे-ऐसा नहीं है। तात्पर्य यह कि भगवान् और उनका अंश जीवात्मा- दोनों ही अनादि और नित्य हैं।
'तान्यहं वेद सर्वाणि' - संसारमें ऐसे 'जातिस्मर' जीव भी होते हैं, जिनको अपने पूर्वजन्मोंका ज्ञान होता है। ऐसे महापुरुष 'युंजान योगी' कहलाते हैं, जो साधना करके सिद्ध होते हैं। साधनामें अभ्यास करते-करते इनकी वृत्ति इतनी तेज हो जाती है कि ये जहाँ वृत्ति लगाते हैं, वहींका ज्ञान इनको हो जाता है। ऐसे योगी कुछ सीमातक ही अपने पुराने जन्मोंको जान सकते हैं, सम्पूर्ण जन्मोंको नहीं। इसके विपरीत भगवान् 'युक्तयोगी' कहलाते हैं, जो साधना किये बिना स्वतःसिद्ध, नित्य हैं। जन्मोंको जाननेके लिये उन्हें वृत्ति नहीं लगानी पड़ती, प्रत्युत उनमें अपने और जीवोंके भी सम्पूर्ण जन्मोंका स्वतः-स्वाभाविक ज्ञान सदा बना रहता है। उनके ज्ञानमें भूत, भविष्य और वर्तमानका भेद नहीं है, प्रत्युत उनके अखण्ड ज्ञानमें सभी कुछ सदा वर्तमान ही रहता है (गीता ७। २६)। कारण कि भगवान् सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिमें पूर्णरूपसे विद्यमान रहते हुए भी इनसे सर्वथा अतीत रहते हैं।
['मैं उन सबको जानता हूँ' - भगवान् के इस वचनसे साधकोंको एक विशेष आनन्द आना चाहिये कि हम भगवान् की जानकारीमें हैं, भगवान् हमें निरन्तर देख रहे हैं! हम कैसे ही क्यों न हों, पर हैं भगवान् के ज्ञानमें ।]
'न त्वं वेत्थ परन्तप' - जन्मोंको न जाननेमें मूल हेतु है- अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका आकर्षण, महत्त्व होना। इसीके कारण मनुष्यका ज्ञान विकसित नहीं होता। "
"अर्जुनके अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका, व्यक्तियोंका महत्त्व था, इसीलिये वे कुटुम्बियोंके मरनेके भयसे युद्ध नहीं करना चाहते थे। पहले अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि जिनके लिये हमारी राज्य, भोग और सुखकी इच्छा है, वे ही ये कुटुम्बी प्राणोंकी और धनकी आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं- इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन राज्य, भोग और सुख चाहते थे। अतः नाशवान् पदार्थोंकी कामना होनेके कारण वे अपने पूर्वजन्मोंको नहीं जानते थे।
ममता-आसक्तिपूर्वक अपने सुखभोग और आरामके लिये धनादि पदार्थोंका संग्रह करना 'परिग्रह' कहलाता है। परिग्रहका सर्वथा त्याग करना अर्थात् अपने सुख, आराम आदिके लिये किसी भी वस्तुका संग्रह न करना 'अपरिग्रह' कहलाता है। अपरिग्रहकी दृढ़ता होनेपर पूर्वजन्मोंका ज्ञान हो जाता है-
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोधः । (पातंजलयोगदर्शन २। ३९)
संसार (क्रिया और पदार्थ) सदैव परिवर्तनशील और असत् है; अतः उसमें अभाव (कमी) होना निश्चित है। अभावरूप संसारसे सम्बन्ध जोड़नेके कारण मनुष्यको अपनेमें भी अभाव दीखने लग जाता है। अभाव दीखनेके कारण उसमें यह कामना पैदा हो जाती है कि अभावकी तो पूर्ति हो जाय, फिर नया और मिले। इस कामनाकी पूर्तिमें ही वह दिन-रात लगा रहता है। परन्तु कामनाकी पूर्ति होनेवाली है नहीं। कामनाओंके कारण मनुष्य बेहोश-सा हो जाता है। अतः ऐसे मनुष्यको अनेक जन्मोंका ज्ञान तो दूर रहा, वर्तमान कर्तव्यका भी ज्ञान (क्या कर रहा हूँ और क्या करना चाहिये) नहीं होता।
सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। अब आगेके श्लोकमें भगवान् अपने जन्म (अवतार) की विलक्षणता बताते हैं।"
कल के श्लोक 6 में श्रीकृष्ण अपने दिव्य और अविनाशी स्वरूप के बारे में और भी गूढ़ रहस्य प्रकट करेंगे। वे बताएंगे कि कैसे वे जन्म लेते हैं और क्यों उनके जन्म का रहस्य गूढ़ होता है। यह चर्चा अत्यंत रोचक होगी!
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कल मिलते हैं नये श्लोक की व्याख्या के साथ। तब तक ""Keep Learning, Keep Growing!
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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