ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 11 - हर भक्त का अनुभव कैसे होता है श्रीकृष्ण के अनुसार?
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
क्या आपने कभी सोचा है कि हम सभी अलग-अलग तरीकों से भगवान की भक्ति करते हैं, फिर भी हमें अलग-अलग अनुभव क्यों मिलते हैं? आज का श्लोक इस रहस्य को खोलता है!
कल के श्लोक 10 में हमने सीखा कि कैसे इच्छाओं और क्रोध को त्यागकर हम ज्ञान और शुद्धि प्राप्त कर सकते हैं। आज के श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे भक्तों की भक्ति के अनुसार उन्हें अनुभव कराते हैं।
"आज के श्लोक 11 में श्रीकृष्ण कहते हैं:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
इसका अर्थ है:
'हे पार्थ! जो जैसे मेरी शरण लेते हैं, मैं भी उन्हें वैसे ही स्वीकार करता हूँ। सभी मनुष्य हर प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।'
इस श्लोक में श्रीकृष्ण समझाते हैं कि सभी लोग चाहे किसी भी प्रकार से भक्ति करें, भगवान उन्हें उसी रूप में अनुभव कराते हैं। यह हमें सिखाता है कि भगवान के प्रति प्रेम और श्रद्धा का कोई एक रूप नहीं है; हर व्यक्ति को अपने तरीके से भक्ति का फल मिलता है।"
"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 11"
"श्रीभगवान्का अपना भजन करनेवालेको उसी प्रकार भजनेका कथन ।
(श्लोक-११)
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम् वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
उच्चारण की विधि
ये, यथा, माम्, प्रपद्यन्ते, तान्, तथा, एव, भजामि, अहम्, मम्, वर्म, अनुवर्तन्ते, मनुष्याः, पार्थ, सर्वशः ॥ ११ ॥
क्योंकि -
पार्थ अर्थात् हे अर्जुन !, ये अर्थात् जो भक्त, माम् अर्थात् मुझे, यथा अर्थात् जिस प्रकार, प्रपद्यन्ते अर्थात् भजते हैं, अहम् अर्थात् मैं (भी), तान् अर्थात् उनको, तथा एव अर्थात् उसी प्रकार, भजामि अर्थात् भजता हूँ (क्योंकि), मनुष्याः अर्थात् सभी मनुष्य, सर्वशः अर्थात् सब प्रकारसे, मम अर्थात् मेरे (ही), वत्र्म अर्थात् मार्गका, अनुवर्तन्ते अर्थात् अनुसरण करते हैं।
अर्थ - हे अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं ॥ ११ ॥"
"व्याख्या 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ' - भक्त भगवान् की जिस भावसे, जिस सम्बन्धसे, जिस प्रकारसे शरण लेता है, भगवान् भी उसे उसी भावसे, उसी सम्बन्धसे, उसी प्रकारसे आश्रय देते हैं। जैसे, भक्त भगवान् को अपना गुरु मानता है तो वे श्रेष्ठ गुरु बन जाते हैं, शिष्य मानता है तो वे श्रेष्ठ शिष्य बन जाते हैं, माता-पिता मानता है तो वे श्रेष्ठ माता-पिता बन जाते हैं, पुत्र मानता है तो वे श्रेष्ठ पुत्र बन जाते हैं, भाई मानता है तो वे श्रेष्ठ भाई बन जाते हैं, सखा मानता है तो वे श्रेष्ठ सखा बन जाते हैं, नौकर मानता है तो वे श्रेष्ठ नौकर बन जाते हैं। भक्त भगवान् के बिना व्याकुल हो जाता है तो भगवान् भी भक्तके बिना व्याकुल हो जाते हैं।
अर्जुनका भगवान् श्रीकृष्णके प्रति सखाभाव था तथा वे उन्हें अपना सारथि बनाना चाहते थे; अतः भगवान् सखाभावसे उनके सारथि बन गये। विश्वामित्र ऋषिने भगवान् श्रीरामको अपना शिष्य मान लिया तो भगवान् उनके शिष्य बन गये। इस प्रकार भक्तोंके श्रद्धाभावके अनुसार भगवान् का वैसा ही बननेका स्वभाव है।
अनन्त ब्रह्माण्डोंके स्वामी भगवान् भी अपने ही बनाये हुए साधारण मनुष्योंके भावोंके अनुसार बर्ताव करते हैं, यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता, दयालुता और अपनापन है ?
भगवान् विशेषरूपसे भक्तोंके लिये ही अवतार लेते हैं- ऐसा प्रस्तुत प्रकरणसे सिद्ध होता है। "
"भक्तलोग जिस भावसे, जिस रूपमें भगवान् की सेवा करना चाहते हैं, भगवान् को उनके लिये उसी रूपमें आना पड़ता है। जैसे, उपनिषदों आया है- 'एकाकी न रमते' (बृहदारण्यक० १।४।३) - अकेले भगवान् का मन नहीं लगा, तो वे ही भगवान् अनेक रूपोंमें प्रकट होकर खेल खेलने लगे। ऐसे ही जब भक्तोंके मनमें भगवान् के साथ खेल खेलनेकी इच्छा हो जाती है, तब भगवान् उनके साथ खेल खेलने (लीला करने-) के लिये प्रकट हो जाते हैं। भक्त भगवान् के बिना नहीं रह सकता तो भगवान् भी भक्तके बिना नहीं रह सकते।
यहाँ आये 'यथा' और 'तथा' इन प्रकारवाचक पदोंका अभिप्राय 'सम्बन्ध', 'भाव' और 'लगन' से है। भक्त और भगवान् का प्रकार एक-सा होनेपर भी इनमें एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि भगवान् भक्तकी चालसे नहीं चलते, प्रत्युत अपनी चाल (शक्ति) से चलते हैं।
* दरिया दूषण दास में, नहीं राम में दोष। जन चाले इक पाँवड़ो, हरि चाले सौ कोस ।।
भगवान् सर्वत्र विद्यमान, सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ, परम सुहृद् और सत्यसंकल्प हैं। भक्तको केवल अपनी पूरी शक्ति लगा देनी है, फिर भगवान् भी अपनी पूरी शक्तिसे उसे प्राप्त हो जाते हैं। भगवत्प्राप्तिमें बाधा साधक स्वयं लगाता है; क्योंकि भगवत्प्राप्तिके लिये वह समझ, सामग्री, समय और सामर्थ्यको अपनी मानकर उन्हें पूरा नहीं लगाता, प्रत्युत अपने पास बचाकर रख लेता है। "
"यदि वह उन्हें अपना न मानकर उन्हें पूरा लगा दे तो उसे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है। कारण कि यह समझ, सामग्री आदि उसकी अपनी नहीं हैं; प्रत्युत भगवान् से मिली हैं; भगवान् की हैं। अतः इन्हें अपनी मानना ही बाधा है। साधक स्वयं भी भगवान् का ही अंश है। उसने खुद अपनेको भगवान् से अलग माना है, भगवान् ने नहीं।
भक्ति (प्रेम) कर्मजन्य अर्थात् किसी साधन-विशेषका फल नहीं है। भगवान् के सर्वथा शरण होनेवालेको भक्ति स्वतः प्राप्त होती है। दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भावोंमें सबसे श्रेष्ठ शरणागतिका भाव है। यहाँ भगवान् मानो इस बातको कह रहे हैं कि तुम अपना सब कुछ मुझे दे दोगे तो मैं भी अपना सब कुछ तुम्हें दे दूँगा और तुम अपने-आपको मुझे दे दोगे तो मैं भी अपने-आपको तुम्हें दे दूँगा। भगवत्प्राप्तिका कितना सरल और सस्ता सौदा है !
अपने-आपको भगवच्चरणोंमें समर्पित करनेके बाद भगवान् भक्तकी पुरानी त्रुटियोंको यादतक नहीं करते। वे तो वर्तमानमें साधकके हृदयका दृढ़ भाव देखते हैं-
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की ॥
(मानस १। २९।३) इस (ग्यारहवें) श्लोकमें द्वैत-अद्वैत, सगुण-निर्गुण, सायुज्य- सामीप्य आदि शास्त्रीय विषयका वर्णन नहीं है, प्रत्युत भगवान् से अपनेपनका ही वर्णन है। जैसे, नवें श्लोकमें भगवान् के जन्म- कर्मकी दिव्यताको जाननेसे भगवत्प्राप्ति होनेका वर्णन है। "
"केवल भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान् का ही हूँ; दूसरा कोई भी मेरा नहीं है और मैं किसीका भी नहीं हूँ' - इस प्रकार भगवान् में अपनापन करनेसे उनकी प्राप्ति शीघ्र एवं सुगमतासे हो जाती है। अतः साधकको केवल भगवान् में ही अपनापन मान लेना चाहिये (जो वास्तवमें है), चाहे समझमें आये अथवा न आये। मान लेनेपर जब संसारके झूठे सम्बन्ध भी सच्चे प्रतीत होने लगते हैं, फिर जो भगवान् का सदासे ही सच्चा सम्बन्ध है, वह अनुभवमें क्यों नहीं आयेगा ? अर्थात् अवश्य आयेगा।
शंका-जो भगवान् को जिस भावसे स्वीकार करते हैं, भगवान् भी उनसे उसी भावसे बर्ताव करते हैं, तो फिर यदि कोई भगवान् को द्वेष, वैर आदिके भावसे स्वीकार करेगा तो क्या भगवान् भी उससे उसी (द्वेष आदिके) भावसे बर्ताव करेंगे ?
समाधान-यहाँ 'प्रपद्यन्ते' पदसे भगवान् की प्रपत्ति अर्थात् शरणागतिका ही विषय है; उनसे द्वेष, वैर आदिका विषय नहीं। अतः यहाँ इस विषयमें शंका ही नहीं उठ सकती। फिर भी इसपर थोड़ा विचार करें तो भगवान् के स्वीकार करनेका तात्पर्य है- कल्याण करना। जो भगवान् को जिस भावसे स्वीकार करता है, भगवान् भी उससे वैसा ही आचरण करके अन्तमें उसका कल्याण ही करते हैं।
१-कामाद् द्वेषाद् भयात् स्नेहाद् यथा भक्त्येश्वरे मनः । आवेश्य तदद्यं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः ॥ (श्रीमद्भा० ७।१।२९)
"
"अनेक मनुष्य कामसे, द्वेषसे, भयसे और स्नेहसे अपने मनको भगवान् में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर वैसे ही भगवान् को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्तिसे।' भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद् हैं (गीता - पाँचवें अध्यायका उनतीसवाँ श्लोक)। इसलिये जिसका जिसमें हित होता है, भगवान् उसके लिये वैसा ही प्रबन्ध कर देते हैं। वैर-द्वेष रखनेवालोंका भी जिससे कल्याण हो जाय, वैसा ही भगवान् करते हैं।[वैर-द्वेष रखनेवाले भगवान् का बिगाड़ भी क्या कर लेंगे ?] अंगदजीको रावणकी सभामें भेजते समय भगवान् श्रीराम कहते हैं कि वही बात कहना, जिससे हमारा काम भी हो और रावणका हित भी हो - 'काजु हमार तासु हित होई' (मानस ६ । १७।४)।
भगवान् की सुहृत्ताकी तो बात ही क्या, भक्त भी समस्त प्राणियोंके सुहृद् होते हैं- 'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भा० ३। २५। २१)। जब भक्तोंसे भी किसीका किंचिन्मात्र भी अहित नहीं होता, तब भगवान् से किसीका अहित हो ही कैसे सकता है? भगवान् से किसी प्रकारका भी सम्बन्ध जोड़ा जाय, वह कल्याण करनेवाला ही होता है; क्योंकि भगवान् परम दयालु, परम सुहृद् और चिन्मय हैं। जैसे गंगामें स्नान वैशाख मासमें किया जाय अथवा माघ मासमें, दोनोंका ही माहात्म्य एक समान है। परन्तु वैशाखके स्नानमें जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी प्रसन्नता माघके स्नानमें नहीं होती। "
"इसी प्रकार भक्ति-प्रेमपूर्वक भगवान् से सम्बन्ध जोड़नेवालोंको जैसा आनन्द होता है, वैसा आनन्द वैर-द्वेषपूर्वक भगवान् से सम्बन्ध जोड़ने-वालोंको नहीं होता। 'मम वर्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः' श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, दूसरे लोग भी उसीके अनुसार आचरण करने लग जाते हैं (गीता- तीसरे अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)। भगवान् सबसे श्रेष्ठ (सर्वोपरि) हैं, इसलिये सभी लोग उनके मार्गका अनुसरण करते हैं। तीसरे अध्यायमें तेईसवें श्लोकके उत्तरार्धमें भी यही बात (उपर्युक्त पदोंसे ही) कही गयी है। साधक भगवान् के साथ जिस प्रकारका सम्बन्ध मानता है, भगवान् उसके साथ वैसा ही सम्बन्ध माननेके लिये तैयार रहते हैं। महाराज दशरथजी भगवान् श्रीरामको पुत्रभावसे स्वीकार करते हैं, तो भगवान् उनके सच्चे पुत्र बन जाते हैं और सामर्थ्यवान् होकर भी 'पिता' दशरथजीके वचनोंको टालनेमें अपनेको असमर्थ मानते हैं।
२-अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके । भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे ।।
(वाल्मीकि०, अयोध्या० १८। २८-२९)
भगवान् श्रीराम कहते हैं- 'मैं महाराज पिताजीके कहनेपर आगमें भी प्रवेश कर सकता हूँ, तीक्ष्ण विषका भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्रमें भी कूद सकता हूँ।'
इस प्रकारके आचरणोंसे भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि यदि तुम्हारी संसारमें किसीके साथ सम्बन्धके नाते प्रियता हो तो वही सम्बन्ध तुम मेरे साथ कर लो, "
"जैसे- मातामें प्रियता हो तो मेरेको अपनी माता मान लो, पितामें प्रियता हो तो मेरेको अपना पिता मान लो; पुत्रमें प्रियता हो तो मेरेको अपना पुत्र मान लो, आदि। ऐसा माननेसे मेरेमें वास्तविक प्रियता हो जायगी और मेरी प्राप्ति सुगमतापूर्वक हो जायगी।
दूसरी बात, भगवान् अपने आचरणोंसे यह शिक्षा देते हैं कि जिस प्रकार मेरे साथ जो जैसा सम्बन्ध मानता है, उसके लिये मैं भी वैसा ही बन जाता हूँ, उसी प्रकार तुम्हारे साथ जो जैसा सम्बन्ध मानता है, तुम भी उसके लिये वैसे ही बन जाओ; जैसे-माता-पिताके लिये तुम सुपुत्र बन जाओ, पत्नीके लिये तुम सुयोग्य पति बन जाओ, बहनके लिये तुम श्रेष्ठ भाई बन जाओ, आदि। अभिमानरहित होकर निःस्वार्थभावसे दूसरेकी सेवा करनेसे शीघ्र ही दूसरेकी ममता छूटकर भगवान् में प्रेम हो जायगा, जिससे भगवान् की प्राप्ति हो जायगी।
विशेष बात
अहंकाररहित होकर निःस्वार्थभावसे कहीं भी प्रेम किया जाय, तो वह प्रेम स्वतः प्रेममय भगवान् की तरफ चला जाता है। कारण कि अपना अहंकार और स्वार्थ ही भगवत्प्रेममें बाधा लगाता है। इन दोनोंके कारण मनुष्यका प्रेमभाव सीमित हो जाता है और इनका त्याग करनेपर उसका प्रेमभाव व्यापक हो जाता है। प्रेमभाव व्यापक होनेपर उसके माने हुए सभी बनावटी सम्बन्ध मिट जाते हैं और भगवान् का स्वाभाविक नित्य-सम्बन्ध जाग्रत् हो जाता है।"
"जीवमात्रका परमात्माके साथ स्वतः नित्य-सम्बन्ध है (गीता- पन्द्रहवें अध्यायका सातवाँ श्लोक)। परन्तु जबतक जीव इस सम्बन्धको पहचानता नहीं और दूसरा सम्बन्ध जोड़ लेता है, तबतक वह जन्म-मरणके बन्धनमें पड़ा रहता है। उसका यह बन्धन दो ओरसे होता है-एक तो वह भगवान् के साथ अपने नित्य- सम्बन्धको पहचानता नहीं और दूसरे, जिसके साथ वास्तवमें अपना सम्बन्ध है नहीं, उसके सम्बन्धको नित्य मान लेता है। जब जीव 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते' के अनुसार अपना सम्बन्ध केवल भगवान् से मान लेता है अर्थात् पहचान लेता है, तब उसे भगवान् से अपने नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाता है।
भगवान् के नित्य-सम्बन्धको पहचानना ही भगवान् के शरण होना है। शरण होनेपर भक्त निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है। फिर उसके द्वारा भगवान् की आज्ञाके विरुद्ध कोई क्रिया कैसे हो सकती है? उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान् के आज्ञानुसार ही होती हैं-'मम वर्मानुवर्तन्ते ।'
परिशिष्ट भाव - यद्यपि यह संसार साक्षात् परमात्माका स्वरूप है, तथापि जो इसको जिस रूपसे देखता है, भगवान् भी उसके लिये उसी रूपसे प्रकट हो जाते हैं। हम अपनेको शरीर मानकर अपने लिये वस्तुओंकी आवश्यकता मानते हैं और उनकी इच्छा करते हैं तो भगवान् भी उन वस्तुओंके रूपमें हमारे सामने आते हैं, हम असत् में स्थित होकर देखते हैं तो भगवान् भी असत्-रूपसे ही दीखते हैं। "
"जैसे बालक खिलौना चाहता है तो पिता रुपये खर्च करके भी उसको खिलौना लाकर देता है, ऐसा ही हम जो चाहते हैं, परम दयालु भगवान् (स्वयं सदा सत्स्वरूप रहते हुए भी) उसी रूपसे हमारे सामने आते हैं। अगर हम भोगोंको न चाहें तो भगवान् को भोगरूपसे क्यों आना पड़े ? बनावटी रूप क्यों धारण करना पड़े ?
भगवान् के स्वभावमें 'यथा तथा' होते हुए भी जीवपर उनकी बड़ी भारी कृपा है; क्योंकि कहाँ जीव और कहाँ भगवान् ! अभिमानके सिवाय जीवमें और क्या सामर्थ्य है? फिर भी जीवका भगवान् में आकर्षण होता है तो भगवान् का भी जीवमें आकर्षण होता है। जैसे, विदुरानीजी अपने-आपको भूल गयीं तो भगवान् भी अपने-आपको भूल गये और केलेके छिलके खाने लगे तथा उसीमें आनन्द लेने लगे ! भगवान् के स्वभावमें 'यथा तथा' केवल क्रियामें है, भावमें नहीं। भगवान् का आस्तिक-से-आस्तिक व्यक्तिके प्रति जो स्नेह है, कृपा है, वैसा ही स्नेह, कृपा नास्तिक-से-नास्तिक व्यक्तिके प्रति भी है। इसलिये भगवान् के 'यथा तथा' में स्वार्थभाव नहीं है, प्रत्युत यह तो भगवान् की महत्ता है कि कहाँ जीव और कहाँ भगवान् ! फिर भी वे जीवको अपना मित्र बनाते हैं, उसको अपने समान दर्जा देते हैं!
भगवान् अपनेमें बड़प्पनका भाव नहीं रखते - यह उनकी महत्ता है।
सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें भगवान् ने बताया कि जो मुझे जिस भावसे स्वीकार करता है, मैं भी उसे उसी भावसे स्वीकार करता हूँ अर्थात् मेरी प्राप्ति बहुत सरल और सुगम है। ऐसा होनेपर भी लोग भगवान् का आश्रय क्यों नहीं लेते-इसका कारण आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
कल के श्लोक 12 में श्रीकृष्ण यह समझाएंगे कि कैसे लोग भौतिक फल प्राप्त करने के लिए देवताओं की पूजा करते हैं। यह चर्चा भी अत्यंत ज्ञानवर्धक होगी!
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"
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