ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 10 - कैसे सांसारिक इच्छाओं को त्यागकर प्राप्त कर सकते हैं दिव्य ज्ञान?


"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"


क्या आप जानना चाहते हैं कि कैसे सांसारिक इच्छाओं को त्यागकर हम दिव्य ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं? आज के श्लोक में श्रीकृष्ण हमें बताते हैं आत्म-शुद्धि का गहरा रहस्य!

कल के श्लोक 9 में हमने जाना कि जो व्यक्ति श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म और कर्म को समझ लेता है, वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। आज के श्लोक में श्रीकृष्ण हमें मन को शुद्ध करने का मार्ग बताते हैं।

"आज के श्लोक 10 में श्रीकृष्ण कहते हैं:

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥


इसका अर्थ है:

'राग, भय, और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें स्थिर होकर, बहुत से लोग ज्ञान-तपस्या के द्वारा शुद्ध होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं।'


इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि इच्छाओं, भय और क्रोध को त्यागकर ही हम दिव्य ज्ञान को पा सकते हैं। यह आंतरिक शुद्धि का मार्ग है, जो हमें अपने वास्तविक स्वरूप के करीब लाता है और जीवन में स्थाई शांति की ओर अग्रसर करता है।"

"भगवतगीता अध्याय 4 श्लोक 10"

"श्रीभगवान्‌के आश्रित होनेका फल भगवत्प्राप्ति।


(श्लोक-१०)


वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ।। 


उच्चारण की विधि


वीतरागभयक्रोधाः, मन्मयाः, माम्, उपाश्रिताः, बहवः, ज्ञानतपसा, पूताः, मद्भावम्, आगताः ॥ १० ॥


और हे अर्जुन ! पहले भी -


वीतरागभयक्रोधाः अर्थात् जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये थे (और), मन्मयाः अर्थात् जो मुझमें अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे (ऐसे), माम् अर्थात् मेरे, उपाश्रिताः अर्थात् आश्रित रहनेवाले, बहवः अर्थात् बहुत-से भक्त (उपर्युक्त), ज्ञानतपसा अर्थात् ज्ञानरूप तपसे, पूताः अर्थात् पवित्र होकर, मद्भावम् अर्थात् मेरे स्वरूपको, आगताः अर्थात् प्राप्त हो चुके हैं।


अर्थ - पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये थे और जो मुझमें अनन्यप्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहनेवाले बहुत-से भक्त उपर्युक्त ज्ञानरूप तपसे पवित्र होकर मेरे स्वरूपको प्राप्त हो चुके हैं ॥ १० ॥"

"व्याख्या- 'वीतरागभयक्रोधाः' - परमात्मासे विमुख होनेपर नाशवान् पदार्थोंमें 'राग' हो जाता है। रागसे फिर प्राप्तमें 'ममता' और अप्राप्तकी 'कामना' उत्पन्न होती है। रागवाले (प्रिय) पदार्थोंकी प्राप्ति होनेपर तो 'लोभ' होता है, पर उनकी प्राप्तिमें बाधा पहुँचनेपर (बाधा पहुँचानेवालेपर) 'क्रोध' होता है। यदि बाधा पहुँचानेवाला व्यक्ति अपनेसे अधिक बलवान् हो और उसपर अपना वश न चल सकता हो तथा समयपर वह हमारा अनिष्ट कर देगा- ऐसी सम्भावना हो तो 'भय' होता है। इस प्रकार नाशवान् पदार्थोंके रागसे ही भय, क्रोध, लोभ, ममता, कामना आदि सभी दोषोंकी उत्पत्ति होती है। रागके मिटनेपर ये सभी दोष मिट जाते हैं। पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानकर, दूसरोंका और दूसरोंके लिये मानकर उनकी सेवा करनेसे राग मिटता है। कारण कि वास्तवमें पदार्थ और क्रियासे हमारा सम्बन्ध है ही नहीं।


अपना कोई प्रयोजन न रहनेपर भी भगवान् केवल हमारे कल्याणके लिये ही अवतार लेते हैं। कारण कि वे प्राणीमात्रके परम सुहृद् हैं और उनकी सम्पूर्ण क्रियाएँ मात्र जीवोंके कल्याणके लिये ही होती हैं। इस प्रकार भगवान् की परम सुहृत्तापर दृढ़ विश्वास होनेसे भगवान् में आकर्षण हो जाता है। भगवान् में आकर्षण होनेसे संसारका आकर्षण (राग) स्वतः मिट जाता है। जैसे, बचपनमें बालकोंका कंकड़-पत्थरोंमें आकर्षण होता है और उनसे वे खेलते हैं। खेलमें वे कंकड़-पत्थरोंके लिये लड़ पड़ते हैं। एक कहता है कि यह मेरा है और दूसरा कहता है कि यह मेरा है। इस प्रकार गलीमें पड़े कंकड़-पत्थरोंमें ही उन्हें महत्ता दीखती है। "

"परन्तु जब वे बड़े हो जाते हैं, तब कंकड़-पत्थरोंमें उनका आकर्षण मिट जाता है और रुपयोंमें आकर्षण हो जाता है। रुपयोंमें आकर्षण होनेपर उन्हें कंकड़-पत्थरोंमें अथवा खिलौनोंमें कोई महत्ता नहीं दीखती। ऐसे ही जब मनुष्यकी परमात्मामें लगन लग जाती है, तब उसके लिये संसारके रुपये और सब पदार्थ आकर्षक न रहकर फीके पड़ जाते हैं। उसका संसारमें आकर्षण या राग मिट जाता है। राग मिटते ही भय और क्रोध-दोनों मिट जाते हैं, क्योंकि ये दोनों रागके ही आश्रित रहते हैं।


'मन्मयाः' - भगवान् के जन्म और कर्मकी दिव्यताको तत्त्वसे जाननेसे मनुष्योंकी भगवान् में प्रियता हो जाती है, प्रियता होनेसे वे भगवान् के ही शरण हो जाते हैं और शरण होनेसे वे स्वयं 'मन्मयाः' अर्थात् भगवन्मय हो जाते हैं। सांसारिक भोगोंमें आकर्षणवाले मनुष्य भोगोंकी कामनाओंमें तन्मय हो जाते हैं- 'कामात्मानः' (गीता २।४३) और भगवान् में आकर्षणवाले मनुष्य भगवान् में तन्मय हो जाते हैं- 'तन्मयाः' (नारदभक्तिसूत्र ७०)। वे हर समय भगवान् में ही तल्लीन रहते हैं। उनके विचारों, आचरणों आदिमें भगवान् की ही मुख्यता रहती है। प्रेमकी अधिकताके कारण वे भगवत्स्वरूप बन जाते हैं, मानो उनकी अपनी कोई अलग सत्ता ही न हो। *


* गतिस्मितप्रेक्षणभाषणादिषु प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढमूर्तयः । असावहं त्वित्यबलास्तदात्मिका न्यवेदिषुः कृष्णविहारविभ्रमाः ॥


(श्रीमद्भा० १०। ३०।३)


'अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदिमें श्रीकृष्णकी प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीरमें भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उतर आयी।"

" वे अपनेको सर्वथा भूलकर श्रीकृष्णस्वरूप हो गयीं और उन्हींके लीला-विलासका अनुकरण करती हुई 'मैं श्रीकृष्ण ही हूँ'- इस प्रकार कहने लगीं।'


'मामुपाश्रिताः ' - 'वीतरागभयक्रोधाः' में संसारसे स्वयंका सम्बन्ध विच्छेद है और 'मन्मयाः माम् उपाश्रिताः' में भगवान् की तल्लीनता है।


किसी-न-किसीका आश्रय लिये बिना मनुष्य रह ही नहीं सकता। भगवान् का अंश जीव भगवान् से विमुख होकर दूसरेका आश्रय लेता है तो वह आश्रय टिकता नहीं, प्रत्युत मिटता जाता है। धनादि नाशवान् पदार्थोंका आश्रय पतन करनेवाला होता है। इतना ही नहीं, शुभ-कर्मोंको करनेमें बुद्धिका, भगवत्प्राप्तिके साधनोंका तथा भोग और संग्रहके त्यागका आश्रय लेनेपर भी भगवत्प्राप्तिमें देरी लगती है। जबतक मनुष्य स्वयं (स्वरूपसे) भगवान् के आश्रित नहीं हो जाता, तबतक उसकी पराधीनता मिटती नहीं और वह दुःख पाता ही रहता है।


संसारके पदार्थोंमें मनुष्यका आकर्षण और आश्रय अलग-अलग होता है, जैसे-मनुष्यका आकर्षण तो स्त्री, पुत्र आदिमें होता है और आश्रय बड़ोंका होता है। परन्तु भगवान् में लगे हुए मनुष्यका भगवान् में ही आकर्षण होता है और भगवान् का ही आश्रय होता है; क्योंकि प्रिय-से-प्रिय भी भगवान् हैं और बड़े-से-बड़े भी भगवान् हैं।


'बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः' - यद्यपि ज्ञानयोग- (सांख्यनिष्ठा) से भी मनुष्य पवित्र हो सकता है, तथापि यहाँ भगवान् के जन्म और कर्मकी दिव्यताको तत्त्वसे जाननेको 'ज्ञान' कहा गया है। इस ज्ञानसे मनुष्य पवित्र हो जाता है; क्योंकि भगवान् पवित्रोंसे भी पवित्र हैं- 'पवित्राणां पवित्रं यः।' "

"भगवान् का ही अंश होनेसे जीवमें भी स्वतः स्वाभाविक पवित्रता है- 'चेतन अमल सहज सुख रासी' (मानस ७। ११७। १) । नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देनेसे, उनको अपना माननेसे ही यह अपवित्र होता है; क्योंकि नाशवान् पदार्थोंकी ममता ही मल (अपवित्रता) है*।


* 'ममता मल जरि जाइ' (मानस ७। ११७ क); 'ममतामेध्यदूषितः ' (योगवासिष्ठ ६।२।५३।११)


भगवान् के जन्म-कर्मके तत्त्वको जाननेसे जब नाशवान् पदार्थोंका आकर्षण, उनकी ममता सर्वथा मिट जाती है, तब सब मलिनता नष्ट हो जाती है और मनुष्य परम पवित्र हो जाता है।


कर्मयोगका प्रसंग होनेसे उपर्युक्त पदोंमें आये 'ज्ञान' शब्दका अर्थ कर्मयोगका ज्ञान भी माना जा सकता है। कर्मयोगका ज्ञान है- शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पद, योग्यता, अधिकार, धन, जमीन आदि मिली हुई मात्र वस्तुएँ संसारकी और संसारके लिये ही हैं, अपनी और अपने लिये नहीं हैं। कारण कि स्वयं (स्वरूप) नित्य है; अतः उसके साथ अनित्य वस्तु कैसे रह सकती है तथा उसके काम भी कैसे आ सकती है? शरीरादि वस्तुएँ जन्मसे पहले भी हमारे साथ नहीं थीं और मरनेके बाद भी नहीं रहेंगी तथा इस समय भी उनका प्रतिक्षण हमसे सम्बन्ध विच्छेद हो रहा है। इन मिली हुई वस्तुओंका सदुपयोग करनेका ही अधिकार है, अपनी माननेका अधिकार नहीं। ये वस्तुएँ संसारकी ही हैं; अतः इन्हें संसारकी ही सेवामें लगाना है। यही इनका सदुपयोग है। इनको अपनी और अपने लिये मानना ही वास्तवमें बन्धन या अपवित्रता है।"

"इस प्रकार नाशवान् वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानना 'ज्ञानतप' है; जिससे मनुष्य परम पवित्र हो जाता है। जितने भी तप हैं, उन सबसे बढ़कर 'ज्ञानतप' है। इस ज्ञानतपसे जडके साथ माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद हो जाता है। जबतक मनुष्य जडके साथ अपना सम्बन्ध मानता रहता है, तबतक दूसरी तपस्यासे उसकी उतनी पवित्रता नहीं होती, जितनी पवित्रता ज्ञानतपसे जडका सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे होती है। इस ज्ञानतपसे पवित्र होकर मनुष्य भगवान् के भाव (सत्ता) को अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जैसे भगवान् नित्य- निरन्तर रहते हैं, ऐसे वह भी उनमें नित्य-निरन्तर रहता है; जैसे भगवान् निर्लिप्त-निर्विकार रहते हैं, ऐसे वह भी निर्लिप्त-निर्विकार रहता है; जैसे भगवान् के लिये कुछ भी करना शेष नहीं है, ऐसे ही उसके लिये भी कुछ करना शेष नहीं रहता। ज्ञानमार्गसे भी मनुष्य इसी प्रकार भगवान् के भावको प्राप्त हो जाता है (गीता-चौदहवें अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक)।


पहले भी बहुत-से भक्त ज्ञानतपसे पवित्र होकर भगवान् को प्राप्त हो चुके हैं। अतः साधकोंको वर्तमानमें ही ज्ञानतपसे पवित्र होकर भगवान् को प्राप्त कर लेना चाहिये। भगवान् को प्राप्त करनेमें सभी स्वतन्त्र हैं, कोई भी परतन्त्र नहीं है। कारण कि मानव शरीर भगवत्प्राप्तिके लिये ही मिला है।

सम्बन्ध-जन्मकी दिव्यताका वर्णन तो हो गया, अब कर्मोंकी दिव्यता क्या होती है- इस विषयका आरम्भ करते हैं।"

 कल के श्लोक 11 में श्रीकृष्ण यह बताएंगे कि वे किस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की भक्ति का प्रत्युत्तर देते हैं और सभी उनके अनुसार ही उनका अनुभव करते हैं। यह चर्चा भी विशेष ज्ञानवर्धक होगी!

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||"

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