ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 18 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
नमस्कार दोस्तों! श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय की हमारी चर्चा में आपका स्वागत है। आज हम श्लोक 18 पर चर्चा करेंगे, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कर्म के महत्व और कर्म के साथ जीवन जीने की विधि के बारे में बताते हैं।
कल हमने श्लोक 17 पर चर्चा की थी, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मज्ञानी व्यक्ति की स्थिति का वर्णन किया था, जो अपने आप में तृप्त और कर्म से परे होता है।
"आज का श्लोक है:
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि ""ऐसे व्यक्ति के लिए कर्म करने या न करने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता और उसे किसी भी अन्य जीव के प्रति कोई आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं होती।"" इसका मतलब यह है कि जो व्यक्ति आत्मज्ञानी होता है, वह कर्म के बंधन से मुक्त होता है और उसे अपनी तृप्ति के लिए किसी भी बाहरी कारण या व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 18"
"कर्म करने और न करनेमें ज्ञानीके प्रयोजनका अभाव।
(श्लोक-१८)
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥
उच्चारण की विधि
न, एव, तस्य, कृतेन, अर्थः, न, अकृतेन, इह, कश्चन, न, च, अस्य, सर्वभूतेषु, कश्चित्, अर्थव्यपाश्रयः ॥ १८ ॥
तस्य अर्थात् उस (महापुरुषका), इह अर्थात् इस विश्वमें, न अर्थात् न (तो), कृतेन अर्थात् कर्म करनेसे, कश्चन अर्थात् कोई, अर्थः अर्थात् प्रयोजन (रहता है) (और), न अर्थात् न, अकृतेन अर्थात् कर्मोंके न करनेसे, एव अर्थात् ही (कोई प्रयोजन रहता है), च अर्थात् तथा, सर्वभूतेषु अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंमें (भी), अस्य अर्थात् इसका, कश्चित् अर्थात्
किंचिन्मात्र भी, अर्थव्यपाश्रयः अर्थात् स्वार्थका सम्बन्ध, न अर्थात् नहीं (रहता)।"
"व्याख्या'नैव तस्य कृतेनार्थः'- प्रत्येक मनुष्यकी कुछ-न- कुछ करनेकी प्रवृत्ति होती है। जबतक यह करनेकी प्रवृत्ति किसी सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिके लिये होती है, तबतक उसका अपने लिये 'करना' शेष रहता ही है। अपने लिये कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही मनुष्य बँधता है। उस इच्छाकी निवृत्तिके लिये कर्तव्य- कर्म करनेकी आवश्यकता है।
कर्म दो प्रकारसे किये जाते हैं। कामना पूर्तिके लिये और कामना- निवृत्तिके लिये। साधारण मनुष्य तो कामनापूर्तिके लिये कर्म करते हैं, पर कर्मयोगी कामना-निवृत्तिके लिये कर्म करता है। इसलिये कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें कोई भी कामना न रहनेके कारण उसका किसी भी कर्तव्यसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। उसके द्वारा निःस्वार्थ भावसे समस्त सृष्टिके हितके लिये स्वतः कर्तव्य-कर्म होते हैं।
कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका कर्मोंसे अपने लिये (व्यक्तिगत सुख-आरामके लिये) कोई सम्बन्ध नहीं रहता। इस महापुरुषका यह अनुभव होता है कि पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि केवल संसारके हैं और संसारसे मिले हैं, व्यक्तिगत नहीं हैं। अतः इनके द्वारा केवल संसारके लिये ही कर्म करना है, अपने लिये नहीं। कारण यह है कि संसारकी सहायताके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। इसके अलावा मिली हुई कर्म-सामग्रीका सम्बन्ध भी समष्टि संसारके साथ ही है, अपने साथ नहीं। इसलिये अपना कुछ नहीं है। व्यष्टिके लिये समष्टि हो ही नहीं सकती। मनुष्यकी यही गलती होती है कि वह अपने लिये समष्टिका उपयोग करना चाहता है इसीसे उसे अशान्ति होती है। अगर वह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका समष्टिके लिये उपयोग करे तो उसे महान् शान्ति प्राप्त हो सकती है। कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें यही विशेषता रहती है कि उसके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका उपयोग मात्र संसारके लिये ही होता है। अतः उसका शरीरादिकी क्रियाओंसे अपना कोई प्रयोजन नहीं रहता। प्रयोजन न रहनेपर भी उस महापुरुषसे स्वाभाविक ही लोगोंके लिये आदर्शरूप उत्तम कर्म होते हैं। जिसका कर्म करनेसे प्रयोजन रहता है, उससे आदर्श कर्म नहीं होते- यह सिद्धान्त है।
'नाकृतेनेह कश्चन'- जो मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे अपना सम्बन्ध मानता है और आलस्य, प्रमाद आदिमें रुचि रखता है, वह कर्मोंको नहीं करना चाहता; क्योंकि उसका प्रयोजन प्रमाद, आलस्य, आराम आदिसे उत्पन्न तामस-सुख रहता है (गीता - अठारहवें अध्यायका उनतालीसवाँ श्लोक)। परन्तु यह महापुरुष, जो सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठ चुका है, तामस सुखमें प्रवृत्त हो ही कैसे सकता है? क्योंकि इसका शरीरादिसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता, फिर आलस्य-आराम आदिमें रुचि रहनेका तो प्रश्न ही नहीं उठता।
मार्मिक बात
प्रायः साधक कर्मोंके न करनेको ही महत्त्व देते हैं। वे कर्मोंसे उपरत होकर समाधिमें स्थित होना चाहते हैं, जिससे कोई भी चिन्तन बाकी न रहे। यह बात श्रेष्ठ और लाभप्रद तो है, पर सिद्धान्त नहीं है। यद्यपि प्रवृत्ति (करना) की अपेक्षा निवृत्ति (न करना) श्रेष्ठ है, तथापि यह तत्त्व नहीं है।
प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) - दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं। निर्विकल्प समाधितक सब प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी व्युत्थान होता है। क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है- 'प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट् ) इति प्रकृतिः', और क्रिया हुए बिना व्युत्थानका होना सम्भव ही नहीं। इसलिये चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिकी तरह सोना, बैठना, खड़ा होना, मौन होना, मूच्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है*।
* प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है, इसलिये उससे सम्बन्ध रखते हुए कोई भी प्राणी किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता (गीता ३। ५; १८। ११)। अतः जबतक प्रकृतिका सम्बन्ध है, तबतक समाधि भी कर्म ही है, जिसमें समाधि और व्युत्थान- ये दो अवस्थाएँ होती हैं। परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध- विच्छेद होनेपर दो अवस्थाएँ नहीं होतीं, प्रत्युत 'सहज समाधि' अथवा 'सहजावस्था' होती है, जिससे कभी व्युत्थान नहीं होता। कारण कि अवस्थाभेद प्रकृतिमें है, स्वरूपमें नहीं। इसलिये सहजावस्थाको सबसे उत्तम कहा गया है-
उत्तमा सहजावस्था मध्यमा ध्यानधारणा ।
कनिष्ठा शास्त्रचिन्ता च तीर्थयात्राऽधमाऽधमा ।।
वास्तविक तत्त्व (चेतन स्वरूप) में प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों ही नहीं हैं। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनोंका निर्लिप्त प्रकाशक है।
शरीरसे तादात्म्य होनेपर ही (शरीरको लेकर) 'करना' और 'न करना'- ये दो विभाग (द्वन्द्व) होते हैं। वास्तवमें 'करना' और 'न करना' दोनोंकी एक ही जाति है। शरीरसे सम्बन्ध रखकर 'न करना' भी वास्तवमें 'करना' ही है। जैसे 'गच्छति' (जाता है) क्रिया है, ऐसे ही 'तिष्ठति' (खड़ा है) भी क्रिया ही है। यद्यपि स्थूल दृष्टिसे 'गच्छति' में क्रिया स्पष्ट दिखायी देती है और 'तिष्ठति' में क्रिया नहीं दिखायी देती है, तथापि सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो जिस शरीरमें 'जाने' की क्रिया थी, उसीमें अब 'खड़े रहने' की क्रिया है। इसी प्रकार किसी कामको 'करना' और 'न करना'- इन दोनोंमें ही क्रिया है। अतः जिस प्रकार क्रियाओंका स्थूलरूपसे दिखायी देना (प्रवृत्ति) प्रकृतिमें ही है, उसी प्रकार स्थूल दृष्टिसे क्रियाओंका दिखायी न देना (निवृत्ति) भी प्रकृतिमें ही है। जिसका प्रकृति एवं उसके कार्यसे भौतिक तथा आध्यात्मिक और लौकिक तथा पारलौकिक कोई प्रयोजन नहीं रहता, उस महापुरुषका करने एवं न करनेसे कोई स्वार्थ नहीं रहता।
जडताके साथ सम्बन्ध रहनेपर ही करने और न करनेका प्रश्न होता है; क्योंकि जडताके सम्बन्धके बिना कोई क्रिया होती ही नहीं। इस महापुरुषका जडतासे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति-दोनोंसे अतीत सहज-निवृत्त-तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। अतः साधकको जडता (शरीरमें अहंता और ममता) से सम्बन्ध विच्छेद करनेकी ही आवश्यकता है। तत्त्व तो सदा ज्यों-का-त्यों विद्यमान है ही।
'न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः' - शरीर तथा संसारसे किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध न रहनेके कारण उस महापुरुषकी समस्त क्रियाएँ स्वतः दूसरोंके हितके लिये होती हैं। जैसे शरीरके सभी अंग स्वतः शरीरके हितमें लगे रहते हैं, ऐसे ही उस महापुरुषका अपना कहलानेवाला शरीर (जो संसारका एक छोटा-सा अंग है) स्वतः संसारके हितमें लगा रहता है। उसका भाव और उसकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ संसारके हितके लिये ही होती हैं। जैसे अपने हाथोंसे अपना ही मुख धोनेपर अपनेमें स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता, ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीरके द्वारा संसारका हित होनेपर उस महापुरुषमें किंचित् भी स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता।
पूर्वश्लोकमें भगवान् ने सिद्ध महापुरुषके लिये कहा कि उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है- 'तस्य कार्यं न विद्यते।' उसका हेतु बताते हुए भगवान् ने इस श्लोकमें उस महापुरुषके लिये तीन बातें कही हैं- (१) कर्म करनेसे उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता, (२) कर्म न करनेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता और (३) किसी भी प्राणी और पदार्थसे उसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कुछ पानेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता।
वस्तुतः स्वरूपमें करने अथवा न करनेका कोई प्रयोजन नहीं है और किसी व्यक्ति तथा वस्तुके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है। कारण कि शुद्ध स्वरूपके द्वारा कोई क्रिया होती ही नहीं। जो भी क्रिया होती है, वह प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोक सम्बन्धसे ही होती है। इसलिये अपने लिये कुछ करनेका विधान ही नहीं है।"
"जबतक मनुष्यमें करनेका राग, पानेकी इच्छा, जीनेकी आशा और मरनेका भय रहता है, तबतक उसपर कर्तव्यका दायित्व रहता है। परन्तु जिसमें किसी भी क्रियाको करने अथवा न करनेका कोई राग नहीं है, संसारकी किसी भी वस्तु आदिको प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं है, जीवित रहनेकी कोई आशा नहीं है और मृत्युसे कोई भय नहीं है, उसे कर्तव्य करना नहीं पड़ता, प्रत्युत उससे स्वतः कर्तव्य- कर्म होते रहते हैं। जहाँ अकर्तव्य होनेकी सम्भावना हो, वहीं कर्तव्य पालनकी प्रेरणा रहती है।
विशेष बात
गीतामें भगवान् की ऐसी शैली रही है कि वे भिन्न-भिन्न साधनोंसे परमात्माकी ओर चलनेवाले साधकोंके भिन्न-भिन्न लक्षणोंके अनुसार ही परमात्माको प्राप्त सिद्ध महापुरुषोंके लक्षणोंका वर्णन करते हैं। यहाँ सत्रहवें अठारहवें श्लोकोंमें भी इसी शैलीका प्रयोग किया गया है।
जो साधन जहाँसे प्रारम्भ होता है, अन्तमें वहीं उसकी समाप्ति होती है। गीतामें कर्मयोगका प्रकरण यद्यपि दूसरे अध्यायके उनतालीसवें श्लोकसे प्रारम्भ होता है, तथापि कर्मयोगके मूल साधनका विवेचन दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें किया गया है। उस श्लोक (दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें) के चार चरणोंमें बताया गया है-
(१) कर्मण्येवाधिकारस्ते (तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है)।
(२) मा फलेषु कदाचन (कर्मफलोंमें तेरा कभी भी अधिकार नहीं है)।
(३) मा कर्मफलहेतुर्भूः (तू कर्मफलका हेतु मत बन)।
(४) मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न
हो)।
प्रस्तुत (अठारहवें) श्लोकमें ठीक उपर्युक्त साधनाकी सिद्धिकी बात है। वहाँ (दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोक) में दूसरे और तीसरे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्लोकके उत्तरार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका किसी प्राणी और पदार्थसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। वहाँ पहले और चौथे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्लोकके पूर्वार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका कर्म करने अथवा न करने- दोनोंसे ही कोई प्रयोजन नहीं रहता। इस प्रकार सत्रहवें अठारहवें श्लोकोंमें 'कर्मयोग' से सिद्ध हुए महापुरुषके लक्षणोंका ही वर्णन किया गया है।
कर्मयोगके साधनकी दृष्टिसे वास्तवमें अठारहवाँ श्लोक पहले तथा सत्रहवाँ श्लोक बादमें आना चाहिये। कारण कि जब कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषका कर्म करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। तब उसकी रति, तृप्ति और संतुष्टि अपने-आपमें ही हो जाती है। परन्तु सोलहवें श्लोकमें भगवान् ने 'मोघं पार्थ स जीवति' पदोंसे कर्तव्य पालन न करनेवाले मनुष्यके जीनेको निरर्थक बतलाया था; अतः सत्रहवें श्लोकमें 'यः तु' पद देकर यह बतलाते हैं कि यदि सिद्ध महापुरुष कर्तव्य-कर्म नहीं करता तो उसका जीना निरर्थक नहीं है, प्रत्युत महान् सार्थक है। कारण कि उसने मनुष्यजन्मके उद्देश्यको पूरा कर लिया है। अतः उसके लिये अब कुछ भी करना शेष नहीं रहा।
जिस स्थितिमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, उस स्थितिको साधारण-से-साधारण मनुष्य भी प्रत्येक अवस्थामें तत्परता एवं लगनपूर्वक निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करनेपर प्राप्त कर सकता है; क्योंकि उसकी प्राप्तिमें सभी स्वतन्त्र और अधिकारी हैं। कर्तव्यका सम्बन्ध प्रत्येक परिस्थितिसे जुड़ा हुआ है। इसलिये प्रत्येक परिस्थितिमें कर्तव्य निहित रहता है। केवल सुखलोलुपतासे ही मनुष्य कर्तव्यको भूलता है। यदि वह निःस्वार्थ-भावसे दूसरोंकी सेवा करके अपनी सुखलोलुपता मिटा डाले, तो जीवनके सभी दुःखोंसे छुटकारा पाकर परम शान्तिको प्राप्त हो सकता है। इस परम शान्तिकी प्राप्तिमें सबका समान अधिकार है। संसारके सर्वोपरि पदार्थ, पद आदि सबको समानरूपसे मिलने सम्भव नहीं हैं; किन्तु परम शान्ति सबको समानरूपसे ही मिलती है।
परिशिष्ट भाव - संसारमें 'करना' और 'न करना'- दोनों सापेक्ष हैं। इसलिये 'मेरेको कुछ नहीं करना है'- यह भी 'करना' ही है। परन्तु परमात्मतत्त्वमें 'न करना' निरपेक्ष है, स्वाभाविक है। कारण कि चिन्मय सत्ताका न तो क्रिया करनेके साथ सम्बन्ध है और न क्रिया न करनेके साथ सम्बन्ध है। इसलिये परमात्मतत्त्वको प्राप्त हुए कर्मयोगी महापुरुषका न तो किसी वस्तु से कोई सम्बन्ध रहता है, न व्यक्तिसे कोई सम्बन्ध रहता है- 'योऽवतिष्ठति नेङ्गते' (गीता १४। २३)। उसकी दृष्टिमें एक चिन्मय सत्ताके सिवाय कुछ नहीं रहता।
सम्बन्ध-पीछेके दो श्लोकोंमें वर्णित महापुरुषकी स्थितिको प्राप्त करनेके लिये साधकको क्या करना चाहिये- इसपर भगवान् आगेके श्लोकमें साधन बताते हैं।"
कल के एपिसोड में हम श्लोक 19 पर चर्चा करेंगे, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण कर्म के बिना किसी आश्रय के जीवन जीने के महत्व को और अधिक विस्तार से समझाएंगे।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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