ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 16 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue
"श्री हरि
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
नमस्कार दोस्तों! श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय की हमारी यात्रा में आपका स्वागत है। आज हम श्लोक 16 पर चर्चा करेंगे, जो यज्ञ-चक्र को न अपनाने वाले व्यक्तियों के जीवन के बारे में है।
कल हमने श्लोक 14 और 15 पर चर्चा की थी, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ, कर्म, और ब्रह्मांड के प्राकृतिक चक्र के बारे में बताया था।
"आज का श्लोक है:
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ""जो व्यक्ति इस यज्ञ-चक्र को नहीं अपनाता और केवल इंद्रियों के सुख में लिप्त रहता है, वह पापमय जीवन जीता है और उसका जीवन व्यर्थ होता है।""
इसका तात्पर्य है कि जो लोग इस प्राकृतिक चक्र में योगदान नहीं देते और केवल अपने भोग-विलास में मग्न रहते हैं, उनका जीवन निरर्थक हो जाता है। कर्म, यज्ञ, और समाज के लिए सेवा न करना, जीवन के उद्देश्य से विमुख होने का संकेत है।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 16"
"सृष्टिचक्रके अनुसार न बरतनेवालेकी निन्दा।
(श्लोक-१६)
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
उच्चारण की विधि
एवम्, प्रवर्तितम्, चक्रम्, न, अनुवर्तयति, इह, यः, अघायुः, इन्द्रियारामः, मोघम्, पार्थ, सः, जीवति ॥ १६ ॥
पार्थ अर्थात् हे पार्थ, यः अर्थात् जो पुरुष, इह अर्थात् इस लोकमें, एवम् अर्थात् इस प्रकार परम्परासे, प्रवर्तितम् अर्थात् प्रचलित, चक्रम् अर्थात् सृष्टिचक्रके, न अनुवर्तयति अर्थात् अनुकूल नहीं, बरतता अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, सः अर्थात् वह इन्द्रियारामः अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला, अघायुः अर्थात् पापायु (पुरुष), मोघम् अर्थात् व्यर्थ (ही), जीवति अर्थात् जीता है।"
"व्याख्या' पार्थ'- नवें श्लोकमें प्रारम्भ किये हुए प्रकरणका उपसंहार करते हुए भगवान् यहाँ अर्जुनके लिये 'पार्थ' सम्बोधन देकर मानो यह कह रहे हैं कि तुम उसी पृथा (कुन्ती) के पुत्र हो, जिसने आजीवन कष्ट सहकर भी अपने कर्तव्यका पालन किया था। अतः तुम्हारेसे भी अपने कर्तव्यकी अवहेलना नहीं होनी चाहिये। जिस युद्धको तू घोर कर्म कह रहा है, वह तेरे लिये घोर कर्म नहीं, प्रत्युत यज्ञ (कर्तव्य) है। इसका पालन करना ही सृष्टि-चक्रके अनुसार बरतना है और इसका पालन न करना सृष्टि-चक्रके अनुसार न बरतना है।
'एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः'- जैसे रथके पहियेका छोटा-सा अंश भी टूट जानेपर रथके समस्त अंगोंको एवं उसपर बैठे रथी और सारथिको धक्का लगता है, ऐसे ही जो मनुष्य चौदहवें-पन्द्रहवें श्लोकोंमें वर्णित सृष्टि- चक्रके अनुसार नहीं चलता वह समष्टि सृष्टिके संचालनमें बाधा डालता है।
संसार और व्यक्ति दो (विजातीय) वस्तु नहीं हैं। जैसे शरीरका अंगोंके साथ और अंगोंका शरीरके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, ऐसे ही संसारका व्यक्तिके साथ और व्यक्तिका संसारके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब व्यक्ति कामना, ममता, आसक्ति और अहंताका त्याग करके अपने कर्तव्यका पालन करता है, तब उससे सम्पूर्ण सृष्टिमें स्वतः सुख पहुँचता है।
'इन्द्रियारामः'- जो मनुष्य कामना, ममता, आसक्ति आदिसे युक्त होकर इन्द्रियोंके द्वारा भोग भोगता है, उसे यहाँ भोगोंमें रमण करनेवाला कहा गया है। ऐसा मनुष्य पशुसे भी नीचा है; क्योंकि पशु नये पाप नहीं करता; प्रत्युत पहले किये गये पापोंका ही फल भोगकर निर्मलताकी ओर जाता है; परन्तु 'इन्द्रियाराम' मनुष्य नये-नये पाप करके पतनकी ओर जाता है और साथ ही सृष्टि-चक्रमें बाधा उत्पन्न करके सम्पूर्ण सृष्टिको दुःख पहुँचाता है।
'अघायुः' - सृष्टि-चक्रके अनुसार न चलनेवाले मनुष्यकी आयु, उसका जीवन केवल पापमय है। कारण कि इन्द्रियोंके द्वारा भोगबुद्धिसे भोग भोगनेवाला मनुष्य हिंसारूप पापसे बच ही नहीं सकता। स्वार्थी, अभिमानी और भोग तथा संग्रहको चाहनेवाले मनुष्यके द्वारा दूसरोंका अहित होता है; अतः ऐसे मनुष्यका जीवन पापमय होता है। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी कहते हैं।
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद । ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ॥
(मानस ७। ३९) 'मोघं पार्थ स जीवति' - अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यकी सभ्य भाषामें निन्दा या ताड़ना करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसा मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है अर्थात् वह मर जाय तो अच्छा है! तात्पर्य यह है कि यदि वह अपने कर्तव्यका पालन करके सृष्टिको सुख नहीं पहुँचाता तो कम-से-कम दुःख तो न पहुँचाये। जैसे भगवान् श्रीरामके वनवासके समय अयोध्यावासियोंके चित्रकूट आनेपर कोल, किरात, भील आदि जंगली लोगोंने उनसे कहा था कि हम आपके वस्त्र और बर्तन नहीं चुरा लेते, यही हमारी बहुत बड़ी सेवा है- यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई ॥ (मानस २। २५१। २), ऐसे ही अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्य कम-से-कम सृष्टि-चक्रमें बाधा न डालें तो यह उनकी सेवा ही है।
सृष्टि-चक्रके अनुसार न चलनेवाले मनुष्यके लिये भगवान् ने पहले 'स्तेन एव सः' (३। १२) 'वह चोर ही है' और 'भुञ्जते ते त्वघम्' (३। १३) 'वे तो पापको ही खाते हैं'- इस प्रकार कहा और अब इस श्लोकमें 'अघायुरिन्द्रियारामः' 'वह पापायु और इन्द्रियाराम है'- ऐसा कहकर उसके जीनेको भी व्यर्थ बताते हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने भी कहा है-
तेज कृसानु रोष महिषेसा।
अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥
उदय केत सम हित सबही के।
कुंभकरन सम सोवत नीके ॥
(मानस १।४।३)
परिशिष्ट भाव - नवें श्लोकसे लेकर यहाँतक जो वर्णन आया है, उसका तात्पर्य निःस्वार्थभावसे दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है।
सम्बन्ध-संसारसे 'सम्बन्ध विच्छेद करनेके लिये जो अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उस मनुष्यकी पूर्वश्लोकमें ताड़ना की गयी है। परन्तु जिसने अपने कर्तव्यका पालन करके संसारसे सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है, उस महापुरुषकी स्थितिका वर्णन भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।"
कल के एपिसोड में हम श्लोक 17 पर चर्चा करेंगे, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण आत्मज्ञानी व्यक्ति के कर्म के बारे में बताते हैं।
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साथ ही, कल के श्लोक की चर्चा में आपसे मिलेंगे, तब तक के लिए धन्यवाद!
बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||z
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