ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 14 से 15 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue

 


"श्री हरि

बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"
नमस्कार दोस्तों! श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के अध्ययन में आपका स्वागत है। आज हम श्लोक 14 और 15 पर चर्चा करेंगे, जो प्रकृति, यज्ञ, और हमारे कर्मों के गहरे संबंध को समझाते हैं।
कल हमने श्लोक 13 की व्याख्या की थी, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ से प्राप्त आहार के महत्व और यज्ञ को न करने वालों के पापों के बारे में बताया था।
"आज का पहला श्लोक, श्लोक 14 है:

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ""अन्न से सभी प्राणियों का पोषण होता है, और अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ से होती है, और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।"" इसका अर्थ यह है कि संपूर्ण सृष्टि का संचालन यज्ञ और कर्म के आधार पर होता है। हमारा प्रत्येक कर्म, जब यज्ञ रूप में होता है, तो यह पूरी सृष्टि को लाभ पहुँचाता है।

अब, श्लोक 15 को देखें:

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि ""कर्म ब्रह्मा से उत्पन्न होता है और ब्रह्मा वेदों से उत्पन्न होते हैं। अतः सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में सदैव प्रतिष्ठित है।"" इसका अर्थ यह है कि यज्ञ की जड़ें वेदों में हैं, और यह ब्रह्मा द्वारा स्थापित किया गया है। यज्ञ ही वह माध्यम है जो इस ब्रह्मांड की संरचना और उसकी स्थिरता को बनाए रखता है।"
"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 14 से 15"

"सृष्टिचक्रका वर्णन कर सर्वव्यापी परमेश्वरको यज्ञरूप साधनमें नित्य प्रतिष्ठित बतलाना।

(श्लोक-१४)

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ 

उच्चारण की विधि

अन्नात्, भवन्ति, भूतानि, पर्जन्यात्, अन्नसम्भवः, यज्ञात्, भवति, पर्जन्यः, यज्ञः, कर्मसमुद्भवः ॥ १४ ॥

भूतानि अर्थात् सम्पूर्ण प्राणी, अन्नात् अर्थात् अन्नसे, भवन्ति अर्थात् उत्पन्न होते हैं, अन्नसम्भवः अर्थात् अन्नकी उत्पत्ति, पर्जन्यात् अर्थात् वृष्टिसे (होती है), पर्जन्यः अर्थात् वृष्टि, यज्ञात् अर्थात् यज्ञसे, भवति अर्थात् होती है (और), यज्ञः अर्थात् यज्ञ, कर्मसमुद्भवः अर्थात् विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। "
"व्याख्या अन्नाद्भवन्ति भूतानि'- प्राणोंको धारण करनेके लिये जो खाया जाता है, वह 'अन्न"" कहलाता है। १-'अद भक्षणे' धातुसे 'क्त' करनेपर 'अदोऽनन्ने' (अष्टा० ३। २। ६८) सूत्रके निपातनसे 'अन्न' शब्द बनता है, अन्यथा 'अदो जग्धिर्त्यप्ति किति०' (अष्टा० २।४।३६) से 'जग्ध' शब्द बनेगा। 

जिस प्राणीका जो खाद्य है, जिसे ग्रहण करनेसे उसके शरीरकी उत्पत्ति, भरण और पुष्टि होती है, उसे ही यहाँ 'अन्न' नामसे कहा गया है; जैसे-मिट्टीका कीड़ा मिट्टी खाकर जीता है तो मिट्टी ही उसके लिये अन्न है।

जरायुज (मनुष्य, पशु आदि), उद्भिज्ज (वृक्षादि), अण्डज (पक्षी, सर्प, चींटी आदि) और स्वेदज (जूँ आदि) - ये चारों प्रकारके प्राणी अन्नसे ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्नसे ही जीवित रहते हैं।

२-अन्नाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । अन्नेन जातानि जीवन्ति ।

(तैत्तिरीयोपनिषद् ३।२)

'पर्जन्यादन्नसम्भवः' - समस्त खाद्य पदार्थोंकी उत्पत्ति जलसे होती है। घास-फूस, अनाज आदि तो जलसे होते ही हैं, मिट्टीके उत्पन्न होनेमें भी जल ही कारण है। अन्न, जल, वस्त्र, मकान आदि शरीर-निर्वाहकी सभी सामग्री स्थूल या सूक्ष्मरूपसे जलसे सम्बन्ध रखती है और जलका आधार वर्षा है।

'यज्ञाद्भवति पर्जन्यः'- 'यज्ञ' शब्द मुख्यरूपसे आहुति देनेकी क्रियाका वाचक है। परन्तु गीताके सिद्धान्त और कर्मयोगके प्रस्तुत प्रकरणके अनुसार यहाँ 'यज्ञ' शब्द सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंका उपलक्षक है। यज्ञमें त्यागकी ही मुख्यता होती है। आहुति देनेमें अन्न, घी आदि चीजोंका त्याग है, दान करनेमें वस्तुका त्याग है, तप करनेमें अपने सुख भोगका त्याग है, कर्तव्य-कर्म करनेमें अपने स्वार्थ, आराम आदिका त्याग है। अतः 'यज्ञ' शब्द यज्ञ (हवन), दान, तप आदि सम्पूर्ण शास्त्रविहित क्रियाओंका उपलक्षक है।

बृहदारण्यक-उपनिषद्में एक कथा आती है। प्रजापति ब्रह्माजीने देवता, मनुष्य और असुर-इन तीनोंको रचकर उन्हें 'द' इस अक्षरका उपदेश दिया। देवताओंके पास भोग-सामग्रीकी अधिकता होनेके कारण उन्होंने 'द' का अर्थ 'दमन करो' समझा। मनुष्योंमें संग्रहकी प्रवृत्ति अधिक होनेके कारण उन्होंने 'द' का अर्थ 'दान करो' समझा। असुरोंमें हिंसा (दूसरोंको कष्ट देने) का भाव अधिक होनेके कारण उन्होंने 'द' का अर्थ 'दया करो' समझा। इस प्रकार देवता, मनुष्य और असुर-तीनोंको दिये गये उपदेशका तात्पर्य दूसरोंका हित करनेंमें ही है। वर्षाके समय मेघ जो 'द द द.....' की गर्जना करता है, वह आज भी ब्रह्माजीके उपदेश (दमन करो, दान करो, दया करो) के रूपसे कर्तव्य-कर्मोंकी याद दिलाता है (बृहदारण्यक० पाँचवाँ अध्याय, द्वितीय ब्राह्मण, पहलेसे तीसरे मन्त्रतक)।

अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करनेसे वर्षा कैसे होगी ? वचनकी अपेक्षा अपने आचरणका असर दूसरोंपर स्वाभाविक अधिक पड़ता है- 'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः' (गीता ३। २१)। मनुष्य अपने-अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करेंगे तो उसका असर देवताओंपर भी पड़ेगा, जिससे वे भी अपने कर्तव्यका पालन करेंगे, वर्षा करेंगे। (गीता- तीसरे अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक)। इस विषयमें एक कहानी है। चार किसान-बालक थे। आषाढ़का महीना आनेपर भी वर्षा नहीं हुई तो उन्होंने विचार किया कि हल चलानेका समय आ गया है; वर्षा नहीं हुई तो न सही, हम तो समयपर अपने कर्तव्यका पालन कर दें। ऐसा सोचकर उन्होंने खेतमें जाकर हल चलाना शुरू कर दिया। मोरोंने उनको हल चलाते देखा तो सोचा कि बात क्या है ? वर्षा तो अभी हुई नहीं, फिर ये हल क्यों चला रहे हैं ? जब उनको पता लगा कि ये अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने कर्तव्यका पालन करनेमें पीछे क्यों रहें? ऐसा सोचकर मोर भी बोलने लग गये। मोरोंकी आवाज सुनकर मेघोंने विचार किया कि आज हमारी गर्जना सुने बिना मोर कैसे बोल रहे हैं? सारी बात पता लगनेपर उन्होंने सोचा कि हम अपने कर्तव्यसे क्यों हटें ? और उन्होंने भी गर्जना करनी शुरू कर दी। मेघोंकी गर्जना सुनकर इन्द्रने सोचा कि बात क्या है ? जब उसको मालूम हुआ कि वे अपने कर्तव्यका पालन कर रहे हैं, तब उसने सोचा कि अपने कर्तव्यका पालन करनेमें मैं पीछे क्यों रहूँ ? ऐसा सोचकर इन्द्रने भी मेघोंको वर्षा करनेकी आज्ञा दे दी।

'यज्ञः कर्मसमुद्भवः'- निष्कामभावपूर्वक किये जानेवाले लौकिक और शास्त्रीय सभी विहित कर्मोंका नाम 'यज्ञ' है। ब्रह्मचारीके लिये अग्निहोत्र करना 'यज्ञ' है। ऐसे ही स्त्रियोंके लिये रसोई बनाना 'यज्ञ' है*।

* वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः । पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥

(मनुस्मृति २।६७)

'स्त्रियोंके लिये वैवाहिक विधिका पालन ही वैदिक संस्कार (यज्ञोपवीत), पतिकी सेवा ही गुरुकुल-निवास (वेदाध्ययन) और गृहकार्य ही अग्निहोत्र (यज्ञ) कहा गया है।

आयुर्वेदका ज्ञाता केवल लोगोंके हितके लिये वैद्यक-कर्म करे तो उसके लिये वही 'यज्ञ' है। इसी तरह विद्यार्थी अपने अध्ययनको और व्यापारी अपने व्यापारको (यदि वह केवल दूसरोंके हितके लिये निष्कामभावसे किया जाय) 'यज्ञ' मान सकते हैं। इस प्रकार वर्ण, आश्रम, देश, कालकी मर्यादा रखकर निष्कामभावसे किये गये सभी शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म 'यज्ञ' रूप होते हैं। यज्ञ किसी भी प्रकारका हो, क्रियाजन्य ही होता है।

संखिया, भिलावा आदि विषोंको भी वैद्यलोग जब शुद्ध करके औषधरूपमें देते हैं, तब वे विष भी अमृतकी तरह होकर बड़े-बड़े रोगोंको दूर करनेवाले बन जाते हैं। इसी प्रकार कामना, ममता, आसक्ति, पक्षपात, विषमता, स्वार्थ, अभिमान आदि-ये सब कर्मोंमें विषके समान हैं। कर्मोंके इस विषैले भागको निकाल देनेपर वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरणरूप महान् रोगको दूर करनेवाले बन जाते हैं। ऐसे अमृतमय कर्म ही 'यज्ञ' कहलाते हैं।"

"(श्लोक-१५)

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।

उच्चारण की विधि

कर्म, ब्रह्मोद्भवम्, विद्धि, ब्रह्म, अक्षरसमुद्भवम्, तस्मात्, सर्वगतम्, ब्रह्म, नित्यम्, यज्ञे, प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥

कर्म अर्थात् कर्मसमुदायको (तू), ब्रह्मोद्भवम् अर्थात् वेदसे उत्पन्न (और), ब्रह्म अर्थात् वेदको, अक्षरसमुद्भवम् अर्थात् अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ, विद्धि अर्थात् जान, तस्मात् अर्थात् इससे (सिद्ध होता है कि), सर्वगतम् अर्थात् सर्वव्यापी, ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर परमात्मा, नित्यम् अर्थात् सदा ही, यज्ञे अर्थात् यज्ञमें, प्रतिष्ठितम् अर्थात् प्रतिष्ठित है।"
"कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि'- वेद कर्तव्य कर्मोंको करनेकी विधि बताते हैं (गीता-चौथे अध्यायका बत्तीसवाँ श्लोक)। मनुष्यको कर्तव्य-कर्म करनेकी विधिका ज्ञान वेदसे होनेके कारण ही कर्मोंको वेदसे उत्पन्न कहा गया है।

'वेद' शब्दके अन्तर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेदके साथ-साथ स्मृति, पुराण, इतिहास (रामायण, महाभारत) एवं भिन्न-भिन्न सम्प्रदायके आचार्योंके अनुभव-वचन आदि समस्त वेदानुकूल सत्-शास्त्रोंको ग्रहण कर लेना चाहिये।

'ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्'- यहाँ 'ब्रह्म' पद वेदका वाचक है। वेद सच्चिदानन्दघन परमात्मासे ही प्रकट हुए हैं (गीता १७। २३)। इस प्रकार परमात्मा सबके मूल हुए।

परमात्मासे वेद प्रकट होते हैं। वेद कर्तव्य पालनकी विधि बताते हैं। मनुष्य उस कर्तव्यका विधिपूर्वक पालन करते हैं। कर्तव्य- कर्मोंके पालनसे यज्ञ होता है और यज्ञसे वर्षा होती है। वर्षासे अन्न होता है, अन्नसे प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्य कर्तव्य- कर्मोंके पालनसे यज्ञ करते हैं*।

* मनुष्यसे इतर सभी स्थावर जंगम प्राणियोंद्वारा स्वतः यज्ञ (परोपकार) होता रहता है, पर वे यज्ञका अनुष्ठान बुद्धिपूर्वक नहीं कर सकते। बुद्धिपूर्वक यज्ञका अनुष्ठान मनुष्य ही कर सकता है; क्योंकि इसकी योग्यता और अधिकार मनुष्यको ही है।

इस तरह यह सृष्टि-चक्र चल रहा है।

'तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्' - यहाँ 'ब्रह्म' पद अक्षर (सगुण-निराकार परमात्मा) का वाचक है। अतः सर्वगत (सर्वव्यापी) परमात्मा हैं, वेद नहीं।

सर्वव्यापी होनेपर भी परमात्मा विशेषरूपसे 'यज्ञ' (कर्तव्य-कर्म) में सदा विद्यमान रहते हैं। तात्पर्य यह है कि जहाँ निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्मका पालन किया जाता है, वहाँ परमात्मा रहते हैं। अतः परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं- 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः' (गीता १८।४६)।

शंका - परमात्मा जब सर्वव्यापी हैं, तब उन्हें केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा गया है? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं?

समाधान - परमात्मा तो सभी जगह समानरूपसे नित्य विद्यमान

हैं। वे अनित्य और एकदेशीय नहीं हैं। इसीलिये उन्हें यहाँ 'सर्वगत' कहा गया है। यज्ञ (कर्तव्य कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित कहनेका तात्पर्य यह है कि यज्ञ उनका उपलब्धि-स्थान है। जमीनमें सर्वत्र जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे ही उपलब्ध होता है, सब जगहसे नहीं। पाइपमें सर्वत्र जल रहनेपर भी जल वहींसे प्राप्त होता है, जहाँ टोंटी

या छिद्र होता है। ऐसे ही सर्वगत होनेपर भी परमात्मा यज्ञसे ही प्राप्त होते हैं। अपने लिये कर्म करनेसे तथा जडता (शरीरादि) के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) आ जाती है। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये अपने कर्तव्यका पालन करनेसे यह बाधा हट जाती है और नित्यप्राप्त

परमात्माका स्वतः अनुभव हो जाता है। यही कारण है कि भगवान् अर्जुनको, जो कि अपने कर्तव्यसे हटना चाहते थे, अनेक युक्तियोंसे कर्तव्यका पालन करनेपर विशेष जोर दे रहे हैं।

सम्बन्ध-सृष्टिचक्र के अनुसार चलने अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है। अतः जो मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसकी ताड़ना भगवान् आगेके श्लोकमें करते हैं।"

कल के एपिसोड में हम श्लोक 16 पर चर्चा करेंगे, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण इस यज्ञ-चक्र को न अपनाने वालों के बारे में क्या कहते हैं, यह जानेंगे।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||


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