ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 13 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge #GeetaGyan #Motivation #LifeSolutions #ArjunaKrishnaDialogue

 


"श्री हरि


बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


""गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"

नमस्कार दोस्तों! श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के अध्ययन में आप सभी का स्वागत है। आज हम श्लोक 13 की व्याख्या करेंगे, जिसमें यज्ञ के माध्यम से प्राप्त आहार और संसाधनों के महत्व के बारे में बताया गया है।

कल हमने श्लोक 12 पर चर्चा की थी, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने यह बताया कि जो लोग देवताओं द्वारा दिए गए भोगों का यज्ञ द्वारा आदान-प्रदान नहीं करते, वे चोर की तरह होते हैं।

"आज का श्लोक 13 इस प्रकार है:


यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ""जो लोग यज्ञ के बाद बचे हुए अन्न का सेवन करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो लोग केवल अपने लिए ही भोजन पकाते हैं और यज्ञ नहीं करते, वे पाप खाते हैं।""


इस श्लोक का अर्थ है कि यज्ञ से प्राप्त आहार पवित्र होता है, और जो लोग यज्ञ के सिद्धांत का पालन करते हैं, वे अपने कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। जो लोग स्वार्थवश केवल अपने लिए ही जीवन जीते हैं, वे अधर्म का पालन कर रहे हैं।"

"भगवतगीता अध्याय 3 श्लोक 13"

"यज्ञशिष्ट-अन्नसे सब पापोंका नाश और यज्ञ न करनेवालोंको पापी बतलाना।


(श्लोक-१३)


यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ 


उच्चारण की विधि


यज्ञशिष्टाशिनः, सन्तः, मुच्यन्ते, सर्वकिल्बिषैः, भुञ्जते, ते, तु, अघम्, पापाः, ये, पचन्ति, आत्मकारणात् ॥ १३॥


यज्ञशिष्टाशिनः अर्थात् यज्ञसे बचे हुए अन्नको खानेवाले, सन्तः अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष, सर्वकिल्बिषैः अर्थात् सब पापोंसे, मुच्यन्ते अर्थात् मुक्त हो जाते हैं (और), ये अर्थात् जो, पापाः अर्थात् पापीलोग, आत्मकारणात् अर्थात् अपना शरीर पोषण करनेके लिये ही, पचन्ति अर्थात् (अन्न) पकाते हैं, ते वे, तु अर्थात् तो, अघम् अर्थात् पापको (ही), भुंजते अर्थात् खाते हैं।"

"व्याख्या'यज्ञशिष्टाशिनः सन्तः ' - कर्तव्यकर्मोंका निष्कामभावसे विधिपूर्वक पालन करनेपर (यज्ञशेषके रूपमें) योग अथवा समता ही शेष रहती है। कर्मयोगमें यह खास बात है कि संसारसे प्राप्त सामग्रीके द्वारा ही कर्म होता है। अतः संसारकी सेवामें लगा देनेपर ही वह कर्म 'यज्ञ' सिद्ध होता है। यज्ञकी सिद्धिके बाद स्वतः अवशिष्ट रहनेवाला 'योग' अपने लिये होता है। यह योग (समता) ही यज्ञशेष है, जिसको भगवान् ने चौथे अध्यायमें 'अमृत' कहा है- 'यज्ञशिष्टामृतभुजः' (४।३१)।


'मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः' - यहाँ 'किल्बिषैः' पद बहुवचनान्त है, जिसका अर्थ है- सम्पूर्ण पापोंसे अर्थात् बन्धनोंसे। परन्तु भगवान् ने इस पदके साथ 'सर्व' पद भी दिया है, जिसका विशेष तात्पर्य यह हो जाता है कि यज्ञशेषका अनुभव करनेपर मनुष्यमें किसी भी प्रकारका बन्धन नहीं रहता। उसके सम्पूर्ण (संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण) कर्म विलीन हो जाते हैं* (गीता-चौथे अध्यायका तेईसवाँ श्लोक)।


* कामना न रहनेसे संचित कर्म विलीन हो जाते हैं। जबतक शरीर रहता है, तबतक प्रारब्धके अनुसार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, पर उससे वह सुखी-दुःखी नहीं होता अर्थात् उस परिस्थितिका उसपर कोई असर नहीं पड़ता- यह प्रारब्ध कर्मका विलीन होना है। फलेच्छा न रहनेसे क्रियमाण कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फल देनेवाले नहीं होते- यह क्रियमाण कर्मका विलीन होना है।


सम्पूर्ण कर्मोंके विलीन हो जानेपर उसे सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है (गीता - चौथे अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक)।


इसी अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान् ने यज्ञार्थ कर्मसे अन्यत्र कर्मको बन्धनकारक बताया और चौथे अध्यायके तेईसवें श्लोकमें यज्ञार्थ कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन होनेकी बात कही। इन दोनों श्लोकों (तीसरे अध्यायके नवें तथा चौथे अध्यायके तेईसवें श्लोक) में जो बात आयी है, वही बात यहाँ 'सर्वकिल्बिषैः' पदसे कही गयी है। तात्पर्य है कि यज्ञशेषका अनुभव करनेवाले मनुष्य सम्पूर्ण बन्धनरूप कर्मोंसे मुक्त हो जाते हैं। पाप-कर्म तो बन्धनकारक होते ही हैं, सकामभावसे किये गये पुण्यकर्म भी (फलजनक होनेसे) बन्धनकारक होते हैं। यज्ञशेष (समता) का अनुभव करनेपर पाप और पुण्य- दोनों ही नहीं रहते - 'बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते' (गीता २।५०)।


अब विचार करें कि बन्धनका वास्तविक कारण क्या है? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये- इस कामनासे ही बन्धन होता है। यह कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है (गीता- तीसरे अध्यायका सैंतीसवाँ श्लोक)। अतः कामनाका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है।


वास्तवमें कामनाकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। कामना अभावसे उत्पन्न होती है और 'स्वयं' (सत्-स्वरूप) में किसी प्रकारका अभाव है ही नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये 'स्वयं' में कामना है ही नहीं। केवल भूलसे शरीरादि असत् पदार्थोंके साथ अपनी एकता मानकर मनुष्य असत् पदार्थोंके अभावसे अपनेमें अभाव मानने लगता है और उस अभावकी पूर्तिके लिये असत् पदार्थोंकी कामना करने लगता है। साधकको इस बातकी तरफ खयाल करना चाहिये कि आरम्भ और समाप्त होनेवाली क्रियाओंसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ ही तो मिलेंगे। ऐसे उत्पत्ति- विनाशशील पदार्थोंसे मनुष्यके अभावकी पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती। जब इन पदार्थोंसे अभावकी पूर्ति होनेका प्रश्न ही नहीं है, तो फिर इन पदार्थोंकी कामना करना भी भूल ही है। ऐसा ठीक-ठीक विचार करनेसे कामनाकी निवृत्ति सहज हो सकती है।


हाँ, अपने कहलानेवाले शरीरादि पदार्थोंको कभी भी अपना तथा अपने लिये न मानकर दूसरोंकी सेवामें लगानेसे इन पदार्थोंसे स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, जिससे तत्काल अपने सत्स्वरूपका बोध हो जाता है। फिर कोई अभाव शेष नहीं रहता। जिसके मनमें किसी प्रकारके अभावकी मान्यता (कामना) नहीं रहती, वह मनुष्य जीते-जी ही संसारसे मुक्त है।


'ये पचन्त्यात्मकारणात्' - अपने लिये कुछ भी चाहनेका भाव अर्थात् स्वार्थ, कामना, ममता, आसक्ति एवं अपनेको अच्छा कहलानेका किंचित् भी भाव 'आत्मकारणात्' पदके अन्तर्गत आ जाता है। मनुष्यमें स्वार्थबुद्धि जितनी ज्यादा होती है, वह उतना ही ज्यादा पापी होता है।


यहाँ 'पचन्ति' पद उपलक्षक है, जिसका अर्थ केवल 'पकाने' से ही न होकर खाना, पीना, चलना, बैठना आदि समस्त सांसारिक क्रियाओंकी सिद्धिसे है।


अपना स्वार्थ चाहनेवाला व्यक्ति अपने लिये पकाये (कार्य करे) अथवा दूसरेके लिये, वास्तवमें वह अपने लिये ही पकाता है। इसके विपरीत अपने स्वार्थभावका त्याग करके कर्तव्य कर्म करनेवाला साधक अपने कहलानेवाले शरीरके लिये पकाये अथवा दूसरेके लिये, वास्तवमें वह दूसरेके लिये ही पकाता है। संसारसे हमें जो भी सामग्री मिली है, उसे संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुखभोगमें लगाना ही अपने लिये पकाना है। संसारके छोटे-से-छोटे अंश शरीरको अपना और अपने लिये मानना महान् पाप है। परन्तु शरीरको अपना न मानकर इसको आवश्यकतानुसार अन्न, जल, वस्तु आदि देना और इसको आलसी, प्रमादी, भोगी नहीं होने देना इस शरीरकी सेवा है, जिससे शरीरमें ममता-आसक्ति नहीं रहती।


मनुष्यको अपने कर्मोंका फल स्वयं भोगना पड़ता है; परन्तु उसके द्वारा किये गये कर्मोंका प्रभाव सम्पूर्ण संसारपर पड़ता है। 'अपने लिये' कर्म करनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है और अपने कर्तव्यसे च्युत होनेपर ही राष्ट्रमें अकाल, महामारी, मृत्यु आदि महान् कष्ट होते हैं। अतः मनुष्यके लिये उचित है कि वह अपने लिये कुछ भी न करे, अपना कुछ भी न माने तथा अपने लिये कुछ भी न चाहे।


कर्मफल (उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुमात्र) का आश्रय लेना 'अपने लिये पकाने' के अन्तर्गत है। इसीलिये भगवान् ने छठे अध्यायके पहले श्लोकमें 'अनाश्रितः कर्मफलम्' पदोंसे कर्मयोगीको कर्मफलका आश्रय न लेनेके लिये कहा है। सर्वथा अनाश्रित हो जानेपर ही मनुष्य अपने लिये कुछ नहीं करता, जिससे वह योगमें स्थित हो जाता है।


'भुञ्जते ते त्वघं पापाः' - इन पदोंमें भगवान् ने 'अपने लिये' कर्म करनेवालोंकी सभ्य भाषामें निन्दा की है। अपने लिये किये गये कर्मोंसे वह इतना पाप-संग्रह कर लेता है कि चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंका दुःख भोगनेपर भी वह खत्म नहीं होता, प्रत्युत संचितके रूपमें बाकी रह जाता है। मनुष्ययोनि एक ऐसा अद्भुत खेत है, जिसमें जो भी पाप या पुण्यका बीज बोया जाता है, वह अनेक जन्मोंतक फल देता है*।


* वास्तवमें मनुष्यजन्म ही सब जन्मोंका आदि तथा अन्तिम जन्म है। यदि मनुष्य परमात्म-प्राप्ति कर ले तो अन्तिम जन्म भी यही है और परमात्म-प्राप्ति न करे तो अनन्त जन्मोंका आदि जन्म भी यही है।


अतः मनुष्यको तुरंत यह निश्चय कर लेना चाहिये कि 'अब मैं पाप (अपने लिये कर्म) नहीं करूँगा'। इस निश्चयमें बड़ी भारी शक्ति है। सच तो यह है कि परमात्माकी तरफ चलनेका दृढ़ निश्चय होनेपर पाप होना स्वतः रुक जाता है।"

"परिशिष्ट भाव - मनुष्यके पास शरीर, योग्यता, पद, अधिकार, विद्या, बल आदि जो कुछ है, वह सब मिला हुआ है और बिछुड़नेवाला है। इसलिये वह अपना और अपने लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंकी सेवाके लिये है। इस बातमें हमारी भारतीय संस्कृतिका पूरा सिद्धान्त आ जाता है। जैसे हमारे शरीरके सब अवयव शरीरके हितके लिये हैं, ऐसे ही संसारके सभी मनुष्य संसारके हितके लिये हैं। कोई मनुष्य किसी भी देश, वेश, वर्ण, आश्रम आदिका क्यों न हो, अपने कर्मोंके द्वारा दूसरोंकी सेवा करके सुगमतापूर्वक अपना कल्याण कर सकता है।


हमारेमें जो कुछ भी विशेषता है, वह दूसरोंके लिये है, अपने लिये नहीं। अगर सभी मनुष्य ऐसा करने लगें तो कोई भी बद्ध नहीं रहेगा, सब जीवन्मुक्त हो जायँगे। मिली हुई वस्तुको दूसरोंकी सेवामें लगा दिया तो अपने घरका क्या खर्च हुआ ? मुफ्तमें कल्याण होगा। इसके सिवाय मुक्तिके लिये और कुछ करनेकी जरूरत ही नहीं है। जितना हमारे पास है, उसीको सेवामें लगानेकी जिम्मेवारी है, उससे अधिककी जिम्मेवारी है ही नहीं। उससे अधिक मनुष्य कर सकता भी नहीं। अपने पास जितनी वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य है, उतनी पूरी सेवामें खर्च करेंगे तो कल्याण भी पूरा ही होगा।


वास्तवमें शरीरसे संसारका ही काम होता है, अपना काम होता ही नहीं, क्योंकि शरीर हमारे लिये है ही नहीं। कुछ-न-कुछ काम करनेके लिये ही शरीरकी जरूरत होती है। अगर कुछ भी न करें तो शरीरकी क्या जरूरत ? इसलिये शरीरके द्वारा अपने लिये कुछ करना ही दोष है। मिली हुई वस्तुके द्वारा हम अपने लिये कुछ नहीं कर सकते, प्रत्युत उसके द्वारा संसारकी सेवा कर सकते हैं। शरीर संसारका अंश है; अतः इससे जो कुछ होगा, संसारके लिये ही होगा। संसारसे आगे शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि जा सकते ही नहीं, इनको संसारसे अलग कर सकते ही नहीं। इसलिये अपने सुखके लिये कर्म करना मनुष्यपना नहीं है, प्रत्युत राक्षसपना है, असुरपना है ! वास्तवमें मनुष्य वही है, जो दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है। अपने सुखके लिये कर्म करनेवाले पापका ही भक्षण करते हैं अर्थात् सदा दुःखी ही रहते हैं और दूसरेके हितके लिये कर्म करनेवाले सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाते हैं अर्थात् सदाके लिये सुखी हो जाते हैं - 'यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्' (गीता ४। ३१)।


सम्बन्ध- 'मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं?' - अर्जुनके इस प्रश्नके उत्तरमें भगवान् अनेक हेतु देते हुए आगेके दो श्लोकोंमें सृष्टि-चक्रकी सुरक्षाके लिये भी यज्ञ (कर्तव्य कर्म) करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन करते हैं।"

कल के एपिसोड में हम श्लोक 14 और 15 पर चर्चा करेंगे, जिसमें यज्ञ और प्रकृति के बीच के संबंध के बारे में बात की जाएगी। यह जानना बहुत ही महत्वपूर्ण होगा कि हमारे कर्म और प्रकृति का संतुलन कैसे बना रहता है।

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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