ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 40 से 42 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge


ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 40 से 42 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge


श्री हरि


"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""


भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 40 से 42


"(श्लोक-४०)


कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।॥


कुलक्षये = कुलका क्षय होनेपर, सनातनाः = सदासे चलते आये, कुलधर्माः = कुलधर्म, प्रणश्यन्ति नष्ट हो जाते हैं, उत = और, धर्मे = धर्मका, नष्टे नाश होनेपर (बचे हुए), कृत्स्नम् = सम्पूर्ण, कुलम् = कुलको, अधर्मः अधर्म, अभिभवति = दबा लेता है।


व्याख्या 'कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः'-


जब युद्ध होता है, तब उसमें कुल (वंश) का क्षय (हास) होता है। जबसे कुल आरम्भ हुआ है, तभीसे कुलके धर्म अर्थात् कुलकी पवित्र परम्पराएँ, पवित्र रीतियाँ, मर्यादाएँ भी परम्परासे चलती आयी हैं। परन्तु जब कुलका क्षय हो जाता है, तब सदासे कुलके साथ रहनेवाले धर्म भी नष्ट हो जाते हैं अर्थात् जन्मके समय, द्विजाति-संस्कारके समय, विवाहके समय, मृत्युके समय और मृत्युके बाद किये जानेवाले जो-जो शास्त्रीय पवित्र रीति- रिवाज हैं, जो कि जीवित और मृतात्मा मनुष्योंके लिये इस लोकमें और परलोकमें कल्याण करनेवाले हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। कारण कि जब कुलका ही नाश हो जाता है, तब कुलके आश्रित रहनेवाले धर्म किसके आश्रित रहेंगे ?


'धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत'- जब कुलकी पवित्र मर्यादाएँ, पवित्र आचरण नष्ट हो जाते हैं, तब धर्मका पालन न करना और धर्मसे विपरीत काम करना अर्थात् करनेलायक कामको न करना और न करनेलायक कामको करनारूप अधर्म सम्पूर्ण कुलको दबा लेता है अर्थात् सम्पूर्ण कुलमें अधर्म छा जाता है।


अब यहाँ यह शंका होती है कि जब कुल नष्ट हो जायगा, कुल रहेगा ही नहीं, तब अधर्म किसको दबायेगा ? इसका उत्तर यह है  कि जो लड़ाईके योग्य पुरुष हैं, वे तो युद्धमें मारे जाते हैं; किन्तु जो लड़ाईके योग्य नहीं हैं, ऐसे जो बालक और स्त्रियाँ पीछे बच जाती हैं, उनको अधर्म दबा लेता है। कारण कि जब युद्धमें शस्त्र, शास्त्र, व्यवहार आदिके जानकार और अनुभवी पुरुष मर जाते हैं, तब पीछे बचे लोगोंको अच्छी शिक्षा देनेवाले, उनपर शासन करनेवाले नहीं रहते। इससे मर्यादाका, व्यवहारका ज्ञान न होनेसे वे मनमाना आचरण करने लग जाते हैं अर्थात् वे करनेलायक कामको तो करते नहीं और न करनेलायक कामको करने लग जाते हैं। इसलिये उनमें अधर्म फैल जाता है।"

"(श्लोक-४१)


अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः । स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥


कृष्ण = हे कृष्ण !, अधर्माभिभवात् = अधर्मके अधिक बढ़ जानेसे, कुलस्त्रियः = कुलकी स्त्रियाँ, प्रदुष्यन्ति = दूषित हो जाती हैं (और), वाष्र्णेय = हे वाष्र्णेय !, स्त्रीषु = स्त्रियोंके, दुष्टासु = दूषित होनेपर, वर्णसङ्करः वर्णसंकर, जायते = पैदा हो जाते हैं।


व्याख्या' अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः '- धर्मका पालन करनेसे अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण शुद्ध होनेसे बुद्धि सात्त्विकी बन जाती है। सात्त्विकी बुद्धिमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये- इसका विवेक जाग्रत् रहता है। परन्तु जब कुलमें अधर्म बढ़ जाता है, तब आचरण अशुद्ध होने लगते हैं, जिससे अन्तःकरण अशुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण अशुद्ध होनेसे बुद्धि तामसी बन जाती है। बुद्धि तामसी होनेसे मनुष्य अकर्तव्यको कर्तव्य और कर्तव्यको अकर्तव्य मानने लग जाता है अर्थात् उसमें शास्त्र मर्यादासे उलटी बातें पैदा होने लग जाती हैं। इस विपरीत बुद्धिसे कुलकी स्त्रियाँ दूषित अर्थात् व्यभिचारिणी हो जाती हैं।


'स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्करः'- स्त्रियोंके दूषित होनेपर वर्णसंकर पैदा हो जाता है *।


* परस्पर विरुद्ध धर्मोंका मिश्रण होकर जो बनता है, उसको 'संकर' कहते हैं। जब कर्तव्यका पालन नहीं होता, तब धर्मसंकर, वर्णसंकर, जातिसंकर, कुलसंकर, वेशसंकर, भाषासंकर, आहारसंकर आदि अनेक संकरदोष आ जाते हैं।


पुरुष और स्त्री-दोनों अलग-अलग वर्णके होनेपर उनसे जो संतान पैदा होती है, वह 'वर्णसंकर' कहलाती है।


अर्जुन यहाँ 'कृष्ण' सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप सबको खींचनेवाले होनेसे 'कृष्ण' कहलाते हैं, तो आप यह बतायें कि हमारे कुलको आप किस तरफ खींचेंगे अर्थात् किधर ले जायँगे ?


'वाष्र्णेय' सम्बोधन देनेका भाव है कि आप वृष्णिवंशमें अवतार लेनेके कारण 'वाष्र्णेय' कहलाते हैं। परन्तु जब हमारे कुल (वंश) का नाश हो जायगा, तब हमारे वंशज किस कुलके कहलायेंगे ? अतः कुलका नाश करना उचित नहीं है।"

" (श्लोक-४२)


सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥


सङ्करः = वर्णसंकर, कुलघ्नानाम् = कुलघातियोंको, च = और, कुलस्य = कुलको, नरकाय नरकमें ले जानेवाला, एव = ही (होता है), लुप्तपिण्डोदकक्रियाः = श्राद्ध और तर्पण न  मिलनेसे, एषाम् = इन (कुलघातियों) के, पितरः = पितर, हि = भी (अपने स्थानसे), पतन्ति गिर जाते हैं।


व्याख्या 'सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ' - वर्ण-मिश्रणसे पैदा हुए वर्णसंकर (सन्तान) में धार्मिक बुद्धि नहीं होती। वह मर्यादाओंका पालन नहीं करता; क्योंकि वह खुद बिना मर्यादासे पैदा हुआ है। इसलिये उसके खुदके कुलधर्म न होनेसे वह उनका पालन नहीं करता, प्रत्युत कुलधर्म अर्थात् कुलमर्यादासे विरुद्ध आचरण करता है।


जिन्होंने युद्धमें अपने कुलका संहार कर दिया है, उनको 'कुलघाती' कहते हैं। वर्णसंकर ऐसे कुलघातियोंको नरकोंमें ले जाता है। केवल कुलघातियोंको ही नहीं, प्रत्युत कुल-परम्परा नष्ट होनेसे सम्पूर्ण कुलको भी वह नरकोंमें ले जाता है।


'पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया':- जिन्होंने अपने कुलका नाश कर दिया है, ऐसे इन कुलघातियोंके पितरोंको वर्णसंकरके द्वारा पिण्ड और पानी (श्राद्ध और तर्पण) न मिलनेसे उन पितरोंका पतन हो जाता है। कारण कि जब पितरोंको पिण्ड- पानी मिलता रहता है, तब वे उस पुण्यके प्रभावसे ऊँचे लोकोंमें रहते हैं। परन्तु जब उनको पिण्ड-पानी मिलना बन्द हो जाता है, तब उनका वहाँसे पतन हो जाता है अर्थात् उनकी स्थिति उन लोकोंमें नहीं रहती।


पितरोंको पिण्ड-पानी न मिलनेमें कारण यह है कि वर्णसंकरकी पूर्वजोंके प्रति आदर-बुद्धि नहीं होती। इस कारण उनमें पितरोंके लिये श्राद्ध-तर्पण करनेकी भावना ही नहीं होती। अगर लोक- लिहाजमें आकर वे श्राद्ध-तर्पण करते भी हैं, तो भी शास्त्रविधिके अनुसार उनका श्राद्ध-तर्पणमें अधिकार न होनेसे वह पिण्ड-पानी पितरोंको मिलता ही नहीं। इस तरह जब पितरोंको आदरबुद्धिसे और शास्त्रविधिके अनुसार पिण्ड-जल नहीं मिलता, तब उनका अपने स्थानसे पतन हो जाता है।


परिशिष्ट भाव-पितरोंमें एक 'आजान' पितर होते हैं और


एक 'मर्त्य' पितर। पितरलोकमें रहनेवाले पितर 'आजान' हैं और मनुष्यलोकसे मरकर गये पितर 'मर्त्य' हैं। श्राद्ध और तर्पण न मिलनेसे मर्त्य पितरोंका पतन होता है। पतन उन्हीं मर्त्य पितरोंका होता है, जो कुटुम्बसे, सन्तानसे सम्बन्ध रखते हैं और उनसे श्राद्ध-तर्पणकी आशा रखते हैं।"


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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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