ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 47 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge

 


श्री हरि

"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""

भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 47

"(श्लोक-४७)

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥कर्मणि = कर्तव्य-कर्म करनेमें, एव ही, ते = तेरा, अधिकारः = अधिकार है, फलेषु फलोंमें, कदाचन = कभी, मा = नहीं (अतः तू), कर्मफलहेतुः = कर्मफलका हेतु (भी), मा = मत, भूः = बन (और), ते तेरी, अकर्मणि कर्म न करनेमें (भी), सङ्गः = आसक्ति, मा = न, अस्तु = हो।

व्याख्या'कर्मण्येवाधिकारस्ते'- प्राप्त कर्तव्य कर्मका पालन करनेमें ही तेरा अधिकार है। इसमें तू स्वतन्त्र है। कारण कि मनुष्य कर्मयोनि है। मनुष्यके सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करनेके लिये नहीं है। पशु-पक्षी आदि जंगम और वृक्ष, लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते। देवता आदिमें नया कर्म करनेकी सामर्थ्य तो है, पर वे केवल पहले किये गये यज्ञ, दान आदि शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये ही हैं। वे भगवान् के विधानके अनुसार मनुष्योंके लिये कर्म करनेकी सामग्री दे सकते हैं, पर केवल सुखभोगमें ही लिप्त रहनेके कारण स्वयं नया कर्म नहीं कर सकते। नारकीय जीव भी भोगयोनि होनेके कारण अपने दुष्कर्मोंका फल भोगते हैं, नया कर्म नहीं कर सकते। नया कर्म करनेमें तो केवल मनुष्यका ही अधिकार है। भगवान् ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना उद्धार करनेके लिये ही यह अन्तिम मनुष्यजन्म दिया है। अगर यह कर्मोंको अपने लिये करेगा तो बन्धनमें पड़ जायगा और अगर कर्मोंको न करके आलस्य-प्रमादमें पड़ा रहेगा तो बार-बार जन्मता-मरता रहेगा। अतः भगवान् कहते हैं कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है।

'कर्मणि' पदमें एकवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्यके सामने देश, काल, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर शास्त्रविहित कर्म तो अलग-अलग होंगे, पर एक समयमें एक मनुष्य किसी एक कर्मको ही तत्परतापूर्वक कर सकता है। जैसे, क्षत्रिय होनेके कारण अर्जुनके लिये युद्ध करना, दान देना आदि कर्तव्य-कर्मोंका विधान है, पर वर्तमानमें युद्धके समय वह एक युद्धरूप कर्तव्य-कर्म ही कर सकता है, दान आदि कर्तव्य-कर्म नहीं कर सकता।

मार्मिक बात

मनुष्यशरीरमें दो बातें हैं- पुराने कर्मोंका फलभोग और नया पुरुषार्थ। दूसरी योनियोंमें केवल पुराने कर्मोंका फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, ब्रह्म-लोकतककी योनियाँ भोग- योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये 'ऐसा करो और ऐसा मत करो'- यह विधान नहीं है। पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं, उनका वह कर्म भी फलभोगमें है। कारण कि उनके द्वारा किया जानेवाला कर्म उनके प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही रचा हुआ है। उनके जीवनमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका जो कुछ भोग होता है, वह भोग भी फलभोगमें ही है। परन्तु मनुष्यशरीर तो केवल नये पुरुषार्थके लिये ही मिला है, जिससे यह अपना उद्धार कर ले।

इस मनुष्यशरीरमें दो विभाग हैं- एक तो इसके सामने पुराने कर्मोंके फलरूपमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। नये कर्मोंके अनुसार ही इसके भविष्यका निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र, सन्त- महापुरुषोंका विधि-निषेध, राज्य आदिका शासन केवल मनुष्योंके लिये ही होता है; क्योंकि मनुष्यमें पुरुषार्थकी प्रधानता है, नये कर्मोंको करनेकी स्वतन्त्रता है। परन्तु पिछले कर्मोंके फलस्वरूप मिलनेवाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको बदलनेमें यह परतन्त्र है। तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र और फल-प्राप्तिमें परतन्त्र है। परन्तु अनुकूल-प्रतिकूलरूपसे प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके मनुष्य उसको अपने उद्धारकी साधन सामग्री बना सकता है; क्योंकि यह मनुष्यशरीर अपने उद्धारके लिये ही मिला है।

इसलिये इसमें नया पुरुषार्थ भी उद्धारके लिये है और पुराने कर्मोंके फलरूपसे प्राप्त परिस्थिति भी उद्धारके लिये ही है।

इसमें एक विशेष समझनेकी बात है कि इस मनुष्य-जीवनमें प्रारब्धके अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थिति आती है, उस परिस्थितिको मनुष्य सुखदायी या दुःखदायी तो मान सकता है, पर वास्तवमें देखा जाय तो उस परिस्थितिसे सुखी या दुःखी होना कर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत मूर्खताका फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहरसे बनती है और सुखी-दुःखी होता है यह स्वयं। उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य करके ही यह सुख-दुःखका भोक्ता बनता है। अगर मनुष्य उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य न करके उसका सदुपयोग करे, तो वही परिस्थिति उसका उद्धार करनेके लिये साधन सामग्री बन जायगी। सुखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है - दूसरोंकी सेवा करना और दुःखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है - सुखभोगकी इच्छाका त्याग करना।

दुःखदायी परिस्थिति आनेपर मनुष्यको कभी भी घबराना नहीं चाहिये, प्रत्युत यह विचार करना चाहिये कि हमने पहले सुख- भोगकी इच्छासे ही पाप किये थे और वे ही पाप दुःखदायी परिस्थितिके रूपमें आकर नष्ट हो रहे हैं। इसमें एक लाभ यह है कि उन पापोंका प्रायश्चित्त हो रहा है और हम शुद्ध हो रहे हैं। दूसरा लाभ यह है कि हमें इस बातकी चेतावनी मिलती है कि अब हम सुखभोगके लिये पाप करेंगे तो आगे भी इसी प्रकार दुःखदायी परिस्थिति आयेगी। इसलिये सुखभोगकी इच्छासे अब कोई काम करना ही नहीं है, प्रत्युत प्राणिमात्रके हितके लिये ही काम करना है। तात्पर्य यह हुआ कि पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि योनियोंके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म- ये दोनों ही भोगरूपमें हैं और मनुष्यके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म (पुरुषार्थ) - ये दोनों ही उद्धारके साधन हैं।

'मा फलेषु कदाचन' - फलमें तेरा किंचिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् फलकी प्राप्तिमें तेरी स्वतन्त्रता नहीं है; क्योंकि फलका विधान तो मेरे अधीन है। अतः फलकी इच्छा न रखकर कर्तव्य-कर्म कर। अगर तू फलकी इच्छा रखकर कर्म करेगा तो तू बँध जायगा- 'फले सक्तो निबध्यते' (गीता ५। १२)। कारण कि फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वपर ही कर्तृत्व टिका हुआ है अर्थात् 
भोक्तृत्वसे ही कर्तृत्व आता है। फलेच्छा सर्वथा मिटनेसे कर्तृत्व मिट जाता है और कर्तृत्व मिटनेसे मनुष्य कर्म करता हुआ भी नहीं बँधता। भाव यह हुआ कि वास्तवमें मनुष्य कर्तृत्वमें उतना फँसा हुआ नहीं है, जितना फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्वमें फँसा हुआ है।

* अन्तःकरणमें भोक्तृत्व (फलेच्छा, फलासक्ति) अधिक रहनेके कारण ही मनुष्य भगवत्प्राप्ति, तत्त्वज्ञान, प्रेमप्राप्ति आदिमें कर्मोंको कारण मानता है। वास्तवमें भगवत्प्राप्ति आदि कर्मोंपर निर्भर नहीं है, प्रत्युत भाव और बोधपर ही निर्भर है। कारण कि अप्राप्त पदार्थोंकी प्राप्ति तो कर्मोंपर निर्भर है, पर नित्यप्राप्त तत्त्वकी प्राप्ति कर्मोंपर निर्भर नहीं है।"
"दूसरी बात, जितने भी कर्म होते हैं, वे सभी प्राकृत पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनसे ही होते हैं। पदार्थों और व्यक्तियोंके संगठनके बिना स्वयं कर्म कर ही नहीं सकता; अतः इनके संगठनके द्वारा किये हुए कर्मका फल अपने लिये चाहना ईमानदारी नहीं है। अतः कर्मका फल चाहना मनुष्यके लिये हितकारक नहीं है।

फलमें तेरा अधिकार नहीं है- इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि फलके साथ सम्बन्ध जोड़नेमें अथवा न जोड़नेमें मात्र मनुष्य स्वतन्त्र हैं, सबल हैं। इसमें वे पराधीन और निर्बल नहीं हैं। 

'फलेषु' पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म तो एक करता है, पर उस कर्मके फल अनेक चाहता है। जैसे, मैं अमुक कर्म कर रहा हूँ तो इससे मेरेको पुण्य हो जाय, संसारमें मेरी कीर्ति हो जाय, लोग मेरेको अच्छा समझें, मेरा आदर-सत्कार करें, मेरेको इतना धन प्राप्त हो जाय आदि-आदि।

निष्काम होनेके उपाय- (१) कामना पैदा होनेसे अभाव होता है, कामनाकी पूर्ति होनेसे परतन्त्रता और पूर्ति न होनेसे दुःख होता है तथा कामना-पूर्तिका सुख लेनेसे नयी कामनाकी उत्पत्ति होती है और सकामभावपूर्वक नये-नये कर्म करनेकी रुचि बढ़ती चली जाती है-ऐसा ठीक-ठीक समझ लेनेसे निष्कामता स्वतः आ जाती है।

(२) कर्म नित्य नहीं हैं; क्योंकि उनका आरम्भ और अन्त होता है तथा उन कर्मोंका फल भी नित्य नहीं है; क्योंकि उनका भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु स्वयं नित्य है। अनित्य कर्म और कर्मफलसे नित्य स्वरूपको कोई लाभ नहीं होता। ऐसा ठीक समझ लेनेसे निष्कामता आ जाती है। निष्काम होनेसे संसारका सम्बन्ध छूट जाता है और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।

कर्मोंमें निष्काम होनेके लिये साधकमें तेजीका विवेक भी होना चाहिये और सेवाभाव भी होना चाहिये; क्योंकि इन दोनोंके होनेसे ही कर्मयोग ठीक तरहसे आचरणमें आयेगा, नहीं तो 'कर्म' हो जायँगे, पर 'योग' नहीं होगा। तात्पर्य है कि अपने सुख-आरामका त्याग करनेमें तो 'विवेक' की प्रधानता होनी चाहिये और दूसरोंको सुख- आराम पहुँचानेमें 'सेवाभाव' की प्रधानता होनी चाहिये।

'मा कर्मफलहेतुर्भूः ' - तू कर्मफलका हेतु भी मत बन। तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्म-सामग्रीके साथ अपनी किंचिन्मात्र भी ममता नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि इनमें ममता होनेसे मनुष्य कर्म-फलका हेतु बन जाता है। आगे पाँचवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भी भगवान् ने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके साथ 'केवलैः' पद देकर बताया है कि शरीर आदिके साथ किंचिन्मात्र भी ममता नहीं होनी चाहिये।

शुभ क्रियाओंमें फलकी इच्छा न होनेपर भी 'मेरे द्वारा किसीका उपकार हो गया, किसीका हित हो गया, किसीको सुख पहुँचा' - ऐसा भाव हो जाता है तो यह कर्मफलका हेतु बनना है। कारण कि ऐसा भाव होनेसे शुभ कर्मके साथ और मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिके साथ सम्बन्ध हो जाता है, जो कि असत् का संग है। वास्तवमें अन्तःकरण, बहिःकरण और क्रियाओंके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। इनका सम्बन्ध समष्टि संसारके साथ है। जैसे दूसरे किसी व्यक्तिके द्वारा दूसरे किसीका हित होता है, तो उसमें हम अपना सम्बन्ध नहीं मानते, उसमें अपनेको निमित्त नहीं मानते। ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीर आदिसे किसीका हित हो जाय, तो उसमें अपनेको निमित्त न माने। जब अपनेको किसी भी क्रियामें निमित्त, हेतु नहीं मानेंगे, तो कर्म-फलका हेतु भी नहीं बनेंगे। 

'मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि'- कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। कारण कि कर्म न करनेमें आसक्ति होनेसे आलस्य, प्रमाद आदि होंगे। कर्मफलमें आसक्ति रहनेसे जैसा बन्धन होता है, वैसा ही बन्धन कर्म न करनेमें आलस्य, प्रमाद आदि होनेसे होता है; क्योंकि आलस्य-प्रमादका भी एक भोग होता है अर्थात् उनका भी एक सुख होता है, जो तमोगुण है- 'निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्' (गीता १८। ३९) और जिसका फल अधोगति होता है- 'अधो गच्छन्ति तामसाः' (गीता १४। १८)। तात्पर्य यह हुआ कि राग, आसक्ति कहीं भी होगी तो वह बाँधनेवाली हो ही जायगी- 'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता १३। २१)। 

कर्मरहित होनेसे हमें लौकिक लाभ होगा, संसारमें हमारी प्रसिद्धि होगी आदि कोई सांसारिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये और समाधि लग जानेसे आध्यात्मिक तत्त्वमें हमारी स्थिति होगी आदि कोई पारमार्थिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये। तात्पर्य है कि 'कर्म न करनेसे सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति होगी'- यह भी कर्म न करनेमें आसक्ति है; क्योंकि वास्तविक तत्त्व कर्म करने और न करनेसे अतीत है।

इस श्लोकमें भगवान् का यह तात्पर्य मालूम देता है कि परिवर्तनशील वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, क्रिया, घटना, परिस्थिति, अवस्था, स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर आदिके साथ साधककी सर्वथा निर्लिप्तता होनी चाहिये। इनके साथ किंचिन्मात्र भी किसी तरहका सम्बन्ध नहीं होना चाहिये।

इस श्लोकके चार चरणोंमें चार बातें आयी हैं- (१) कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, (२) फलमें कभी तेरा अधिकार नहीं है, (३) तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और (४) कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति न हो। इनमेंसे पहले और चौथे चरणकी बात एक है तथा दूसरे और तीसरे चरणकी बात एक है। पहले चरणमें कर्म करनेमें अधिकार बताया है और चौथे चरणमें कर्म न करनेमें आसक्ति होनेका निषेध किया है। दूसरे चरणमें फलकी इच्छाका निषेध किया है और तीसरे चरणमें फलका हेतु बननेका निषेध किया है। तात्पर्य यह हुआ कि अकर्मण्यतामें रुचि होनेसे प्रमाद, आलस्य आदि 'तामसी वृत्ति' के साथ तेरा सम्बन्ध हो जायगा। कर्म एवं कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे तेरा 'राजसी वृत्ति' के साथ सम्बन्ध हो जायगा। प्रमाद, आलस्य, कर्म, कर्मफल आदिका सम्बन्ध न रहनेपर जो विवेकजन्य सुख होता है, प्रकाश मिलता है, ज्ञान मिलता है, उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे 'सात्त्विकी वृत्ति' के साथ सम्बन्ध हो जायगा। इनके साथ सम्बन्ध होना ही जन्म- मरणका कारण है। अतः साधक कर्म, कर्मफल और इनके त्यागका सुख-इनमेंसे किसीके भी साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, इनमें राग या आसक्ति न करे। कर्म करते हुए इनके साथ सम्बन्ध न रखना ही कर्मयोग है।

परिशिष्ट भाव - एक कर्म-विभाग है और एक फल-विभाग है।

मनुष्यका कर्म-विभागमें ही अधिकार है, फल-विभागमें नहीं। कारण कि नया पुरुषार्थ होनेसे कर्म-विभाग (करना) मनुष्यके अधीन है और पूर्वकृत कर्मोंका भोग होनेसे फल-विभाग (होना) प्रारब्धके अधीन है। कर्मयोगकी दृष्टिसे देखें तो मनुष्यको जो साधन सामग्री (वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य) मिली है, वह 'प्रारब्ध' है और उसका सदुपयोग करना अर्थात् उसको अपना और अपने लिये न मानकर, प्रत्युत दूसरोंका और दूसरोंके लिये मानकर उनकी सेवामें लगाना 'पुरुषार्थ' है।

कर्मयोगमें मुख्य बात है- अपने कर्तव्यके द्वारा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करना और कर्मफलका अर्थात् अपने अधिकारका त्याग करना। दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनेसे पुराना राग मिट जाता है और अपने अधिकारका त्याग करनेसे नया राग पैदा नहीं होता। इस प्रकार पुराना राग मिटनेसे और नया राग पैदा न होनेसे कर्मयोगी वीतराग हो जाता है। वीतराग होनेपर उसको तत्त्वज्ञान हो जाता है। कारण कि तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिमें नाशवान् असत् वस्तुओंका राग ही बाधक है-

रागो लिङ्गमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु । कुतः शाद्वलता तस्य यस्याग्निः कोटरे तरोः ॥

तात्पर्य है कि वस्तु, व्यक्ति और क्रियामें मनका जो राग, खिंचाव है, यह अज्ञानका खास चिह्न है। जैसे किसी वृक्षके कोटरमें आग लगी हो तो वह वृक्ष हरा-भरा नहीं रहता, सूख जाता है, ऐसे ही जिसके भीतर राग-रूपी आग लगी हो, उसको शान्ति नहीं मिल सकती।

सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें कर्म करनेकी आज्ञा देनेके बाद अब भगवान् कर्म करते हुए सम रहनेका प्रकार बताते हैं।"

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