ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 45 से 46 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 45 से 46
"(श्लोक-45)
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।।
वेदाः = वेद, त्रैगुण्यविषयाः = तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं, अर्जुन हे अर्जुन ! (तू), निस्त्रैगुण्यः = तीनों गुणोंसे रहित, भव = हो जा, निर्द्धन्द्रः राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित (हो जा), नित्यसत्त्वस्थः = (निरन्तर) नित्य वस्तु परमात्मामें स्थित (हो जा), निर्योगक्षेमः योगक्षेमकी चाहना भी मत रख (और), आत्मवान् = परमात्मपरायण (हो जा)।
व्याख्या- 'त्रैगुण्यविषया वेदाः'- यहाँ वेदोंसे तात्पर्य वेदोंके उस अंशसे है, जिसमें तीनों गुणोंका और तीनों गुणोंके कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियोंका वर्णन है।
यहाँ उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य वेदोंकी निन्दामें नहीं है, प्रत्युत निष्कामभावकी महिमामें है। जैसे हीरेके वर्णनके साथ-साथ काँचका वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँचकी निन्दा करनेमें नहीं है, प्रत्युत हीरेकी महिमा बतानेमें है। ऐसे ही यहाँ निष्कामभावकी महिमा बतानेके लिये ही वेदोंके सकामभावका वर्णन आया है, निन्दाके लिये नहीं। वेद केवल तीनों गुणोंका कार्य संसारका ही वर्णन करनेवाले हैं, ऐसी बात भी नहीं है। वेदोंमें परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधनोंका भी वर्णन हुआ है।
'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन' - हे अर्जुन ! तू तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारकी इच्छाका त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात् संसारसे ऊँचा उठ जा।
'निर्द्वन्द्वः' - संसारसे ऊँचा उठनेके लिये राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि ये ही वास्तवमें मनुष्यके शत्रु हैं अर्थात् उसको संसारमें फँसानेवाले हैं (गीता- तीसरे अध्यायका चौंतीसवाँ श्लोक)।
१-एक ही विषयमें, एक ही वस्तुमें दो भाव कर लेना 'द्वन्द्व' है। परन्तु जहाँ विषय, वस्तु अलग-अलग होते हैं, वहाँ द्वन्द्व नहीं होता; जैसे- 'प्रकृति' और 'पुरुष', 'जड' और 'चेतन' - इन दोनोंको अलग-अलग समझना द्वन्द्व नहीं है। ऐसे ही संसारसे विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जाना द्वन्द्व नहीं है। परन्तु केवल संसारमें ही दो भाव (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि) हो जायँ, तो यह द्वन्द्व हो जाता है और इसी द्वन्द्वमें मनुष्य फँसता है।
इसलिये तू सम्पूर्ण द्वन्द्वोंसे रहित हो जा।
यहाँ भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा क्यों दे रहे हैं? कारण कि द्वन्द्वोंसे सम्मोह होता है, संसारमें फँसावट होती है (गीता - सातवें अध्यायका सत्ताईसवाँ श्लोक)। जब साधक निर्द्वन्द्व होता है, तभी वह दृढ़ होकर भजन कर सकता है (गीता-सातवें अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक सुखपूर्वक संसार-बंधनसे मुक्त हो जाता है (गीता - पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक)। निर्द्वन्द्व होनेसे मूढ़ता चली जाती है (गीता-पन्द्रहवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)। निर्द्वन्द्व होनेसे साधक कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं (गीता- चौथे अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)। तात्पर्य है कि साधककी साधना निर्द्वन्द्व होनेसे ही दृढ़ होती है। इसलिये भगवान् अर्जुनको निर्द्वन्द्व होनेकी आज्ञा देते हैं।
दूसरी बात, अगर संसारमें किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिमें राग होगा, तो दूसरी वस्तु, व्यक्ति आदिमें द्वेष हो जायगा - यह नियम है। ऐसा होनेपर भगवान् की उपेक्षा हो जायगी- यह भी एक प्रकारका द्वेष है। परन्तु जब साधकका भगवान् में प्रेम हो जायगा, तब संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारसे स्वाभाविक उपरति हो जायगी। उपरति होनेकी पहली अवस्था यह होगी कि साधकका प्रतिकूलतामें द्वेष नहीं होगा; किन्तु उसकी उपेक्षा होगी। उपेक्षाके बाद उदासीनता होगी और उदासीनताके बाद उपरति होगी। उपरतिमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं। इस क्रममें अगर सूक्ष्मतासे देखा जाय तो उपेक्षामें राग-द्वेषके संस्कार रहते हैं, उदासीनतामें राग-द्वेषकी सत्ता रहती है, और उपरतिमें राग-द्वेषके न संस्कार रहते हैं, न सत्ता रहती है; किन्तु राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है।
'नित्यसत्त्वस्थः'- द्वन्द्वोंसे रहित होनेका उपाय यह है कि जो नित्य-निरन्तर रहनेवाला सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा है, तू उसीमें निरन्तर स्थित रह।
'निर्योगक्षेमः 'तू योग और क्षेमकी इच्छा भी मत रख; क्योंकि जो केवल मेरे परायण होते हैं, उनके योगक्षेमका वहन मैं स्वयं करता हूँ (गीता-नवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक)।
२-अप्राप्त वस्तुकी प्राप्तिका नाम 'योग' है और प्राप्त वस्तुकी रक्षाका नाम 'क्षेम' है।
३-यद्यपि यहाँ कर्मयोगका प्रकरण है, तथापि यहाँ 'निर्योगक्षेमः' पद भक्तियोगका वाचक मानना ठीक मालूम देता है। कारण कि भगवान् ने अर्जुनको जगह-जगह भक्त होनेके लिये आज्ञा दी है और अर्जुनको भक्तरूपसे स्वीकार भी किया है (४। ३)। भगवान् ने अपनेको भक्तोंका योग-क्षेम वहन करनेवाला भी बताया है (९। २२)।
'आत्मवान्'- तू केवल परमात्माके परायण हो जा। एक परमात्मप्राप्तिका ही लक्ष्य रख।
परिशिष्ट भाव - 'निर्द्वन्द्वः' वास्तवमें जड़-चेतन, सत्-असत्, नित्य-अनित्य, नाशवान्-अविनाशी आदिका भेद भी द्वन्द्व है। योग और क्षेमकी चाहना भी द्वन्द्व है। द्वन्द्व होनेसे 'सब कुछ भगवान् ही हैं'- इस वास्तविकताका अनुभव नहीं होता। कारण कि जब सब कुछ भगवान् ही हैं, तो फिर जड़-चेतन आदिका द्वन्द्व कैसे रह सकता है ? इसलिये भगवान् ने अमृत और मृत्यु, सत् और असत् दोनोंको अपना स्वरूप बताया है- 'अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन' (गीता ९। १९)।
सम्बन्ध-तीनों गुणोंसे रहित, निर्द्वन्द्व आदि हो जानेसे क्या होगा-इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
"(श्लोक-४६)
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।
सर्वतः = सब तरफसे, सम्प्लुतोदके परिपूर्ण महान् जलाशयके (प्राप्त होनेपर), उदपाने छोटे गड्डोंमें भरे जलमें (मनुष्यका), यावान् = जितना, अर्थः प्रयोजन (रहता है) अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, विजानतः (वेदों और शास्त्रोंको) तत्त्वसे जाननेवाले, ब्राह्मणस्य = ब्रह्मज्ञानीका, सर्वेषु = सम्पूर्ण, वेदेषु = वेदोंमें, तावान् = उतना (ही प्रयोजन रहता है) अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।
व्याख्यायावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके' - जलसे सर्वथा परिपूर्ण, स्वच्छ, निर्मल महान् सरोवरके प्राप्त होनेपर मनुष्यको छोटे-छोटे जलाशयोंकी कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती। कारण कि छोटे-से जलाशयमें अगर हाथ-पैर धोये जायँ तो उसमें मिट्टी घुल जानेसे वह जल स्नानके लायक नहीं रहता; और अगर उसमें स्नान किया जाय तो वह जल कपड़े धोनेके लायक नहीं रहता और यदि उसमें कपड़े धोये जायँ तो वह जल पीनेके लायक नहीं रहता। परन्तु महान् सरोवरके मिलनेपर उसमें सब कुछ करनेपर भी उसमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता अर्थात् उसकी स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता वैसी-की-वैसी ही बनी रहती है।
'तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः' - ऐसे ही जो महापुरुष परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो गये हैं, उनके लिये वेदोंमें कहे हुए यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने भी पुण्यकारी कार्य हैं, उन सबसे उनका कोई मतलब नहीं रहता अर्थात् वे पुण्यकारी कार्य उनके लिये छोटे-छोटे जलाशयोंकी तरह हो जाते हैं। ऐसा ही दृष्टान्त आगे सत्तरवें श्लोकमें दिया है कि वह ज्ञानी महात्मा समुद्रकी तरह गम्भीर होता है। उसके सामने कितने ही भोग आ जायँ, पर वे उसमें कुछ भी विकृति पैदा नहीं कर सकते।
जो परमात्मतत्त्वको जाननेवाला है और वेदों तथा शास्त्रोंके तत्त्वको भी जाननेवाला है, उस महापुरुषको यहाँ 'ब्राह्मणस्य विजानतः' पदोंसे कहा गया है।
'तावान्' कहनेका तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर वह तीनों गुणोंसे रहित हो जाता है। वह निर्द्वन्द्व हो जाता है अर्थात् उसमें राग-द्वेष आदि नहीं रहते। वह नित्य तत्त्वमें स्थित हो जाता है। वह निर्योगक्षेम हो जाता है अर्थात् कोई वस्तु मिल जाय और मिली हुई वस्तुकी रक्षा होती रहे- ऐसा उसमें भाव भी नहीं होता। वह सदा ही परमात्मपरायण रहता है।
परिशिष्ट भाव - सांसारिक भोगोंका अन्त नहीं है। अनन्त ब्रह्माण्ड हैं और उनमें अनन्त तरहके भोग हैं। परन्तु उनका त्याग कर दें, उनसे असंग हो जायँ तो उनका अन्त आ जाता है। ऐसे ही कामनाएँ भी अनन्त होती हैं। परन्तु उनका त्याग कर दें, निष्काम हो जायँ तो उनका अन्त आ जाता है।
सम्बन्ध- भगवान् ने उनतालीसवें श्लोकमें जिस समबुद्धि (समता) को सुननेके लिये अर्जुनको आज्ञा दी थी, अब आगेके श्लोकमें उसकी प्राप्तिके लिये कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।"
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