ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 41 से 43 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge


 

श्री हरि


"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||


॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥


गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।


अथ ध्यानम्


शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥


यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""


भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 41 से 43


"(श्लोक-४१)


व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।


बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥


कुरुनन्दन = हे कुरुनन्दन !, इह इस (समबुद्धिकी प्राप्ति) के विषयमें, व्यवसायात्मिका = निश्चयवाली, बुद्धिः = बुद्धि, एका = एक ही (होती है), अव्यवसायिनाम् = जिनका एक निश्चय नहीं है ऐसे मनुष्योंकी, बुद्धयः बुद्धियाँ, अनन्ताः = अनन्त, च = और, बहुशाखा = बहुत शाखाओंवाली, हि ही (होती हैं)।


व्याख्या-व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन' - कर्मयोगी साधकका ध्येय (लक्ष्य) जिस समताको प्राप्त करना रहता है, वह समता परमात्माका स्वरूप है। उस परमात्मस्वरूप समताकी प्राप्तिके लिये अन्तःकरणकी समता साधन है, अन्तःकरणकी समतामें संसारका राग बाधक है। उस रागको हटानेका अथवा परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेका जो एक निश्चय है, उसका नाम है-व्यवसायात्मिका बुद्धि । व्यवसायात्मिका बुद्धि एक क्यों होती है? कारण कि इसमें सांसारिक वस्तु, पदार्थ आदिकी कामनाका त्याग होता है। यह त्याग एक ही होता है, चाहे धनकी कामनाका त्याग करें, चाहे मान-बड़ाईकी कामनाका त्याग करें। परन्तु ग्रहण करनेमें अनेक चीजें होती हैं; क्योंकि एक-एक चीज अनेक तरहकी होती है; जैसे - एक ही मिठाई अनेक तरहकी होती है। अतः इन चीजोंकी कामनाएँ भी अनेक, अनन्त होती हैं।


गीतामें कर्मयोग (प्रस्तुत श्लोक) और भक्तियोग (नवें अध्यायका तीसवाँ श्लोक) के प्रकरणमें तो व्यवसायात्मिका बुद्धिका वर्णन आया है, पर ज्ञानयोगके प्रकरणमें व्यवसायात्मिका बुद्धिका वर्णन नहीं आया। इसका कारण यह है कि ज्ञानयोगमें पहले स्वरूपका बोध होता है, फिर उसके परिणामस्वरूप बुद्धि स्वतः एक निश्चयवाली हो जाती है और कर्मयोग तथा भक्तियोगमें पहले बुद्धिका एक निश्चय होता है, फिर स्वरूपका बोध होता है। अतः ज्ञानयोगमें ज्ञानकी मुख्यता है और कर्मयोग तथा भक्तियोगमें एक निश्चयकी मुख्यता है।


'बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्' - अव्यवसायी वे होते हैं, जिनके भीतर सकामभाव होता है, जो भोग और संग्रहमें आसक्त होते हैं। कामनाके कारण ऐसे मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त होती हैं और वे बुद्धियाँ भी अनन्त शाखाओंवाली होती हैं अर्थात् एक-एक बुद्धिकी भी अनन्त शाखाएँ होती हैं। जैसे, पुत्र-प्राप्ति करनी है- यह एक बुद्धि हुई और पुत्र-प्राप्तिके लिये किसी औषधका सेवन करें, किसी मन्त्रका जप करें, कोई अनुष्ठान करें, किसी सन्तका आशीर्वाद लें आदि उपाय उस बुद्धिकी अनन्त शाखाएँ हुईं। ऐसे ही धन प्राप्ति करनी है- यह एक बुद्धि हुई और धन-प्राप्तिके लिये व्यापार करें, नौकरी करें, चोरी करें, डाका डालें, धोखा दें, ठगाई करें आदि उस बुद्धिकी अनन्त शाखाएँ हुईं। ऐसे मनुष्योंकी बुद्धिमें परमात्मप्राप्तिका निश्चय नहीं होता।


परिशिष्ट भाव - वास्तविक उद्देश्य एक ही होता है। जबतक मनुष्यका एक उद्देश्य नहीं होता, तबतक उसके अनन्त उद्देश्य रहते हैं और एक-एक उद्देश्यकी अनेक शाखाएँ होती हैं। उसकी अनन्त कामनाएँ होती हैं और एक-एक कामनाकी पूर्तिके लिये उपाय भी अनेक होते हैं।


सम्बन्ध-अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त क्यों होती हैं- इसका हेतु आगेके तीन श्लोकोंमें बताते हैं।"

"(श्लोक-४२)


यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः । वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥


पार्थ = हे पृथानन्दन!, वेदवादरताः = वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं, अन्यत् = (भोगोंके सिवाय) और कुछ, न, अस्ति है ही नहीं, इति = ऐसा, वादिनः = कहनेवाले हैं, अविपश्चितः = (वे) अविवेकी मनुष्य, इमाम् = इस प्रकारकी, याम् = जिस, पुष्पिताम् = पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त), वाचम् = वाणीको, प्रवदन्ति = कहा करते हैं (जो कि)


'वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ' - वे वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं अर्थात् वेदोंका तात्पर्य वे केवल भोगोंमें और स्वर्गकी प्राप्तिमें मानते हैं, इसलिये वे 'वेदवादरताः' हैं। उनकी मान्यतामें यहाँके और स्वर्गके भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् उनकी दृष्टिमें भोगोंके सिवाय परमात्मा, तत्त्वज्ञान, मुक्ति, भगवत्प्रेम आदि कोई चीज है ही नहीं। अतः वे भोगोंमें ही रचे-पचे रहते हैं। भोग भोगना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है।


'यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ' - जिनमें सत्- असत्, नित्य-अनित्य, अविनाशी-विनाशीका विवेक नहीं है, ऐसे अविवेकी मनुष्य वेदोंकी जिस वाणीमें संसार और भोगोंका वर्णन है, उस पुष्पित वाणीको कहा करते हैं।


यहाँ 'पुष्पिताम्' कहनेका तात्पर्य है कि भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाली वाणी केवल फूल-पत्ती ही है, फल नहीं है। तृप्ति फलसे ही होती है, फूल-पत्तीकी शोभासे नहीं। वह वाणी स्थायी फल देनेवाली नहीं है। उस वाणीका जो फल- स्वर्गादिका भोग है, वह केवल देखनेमें ही सुन्दर दीखता है, उसमें स्थायीपना नहीं है।"

"(श्लोक-४३)


कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् । क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ।।


कामात्मानः जो कामनाओंमें तन्मय हो रहे हैं, स्वर्गपराः = स्वर्गको ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, जन्मकर्मफलप्रदाम् = जन्मरूपी कर्म-फलको देनेवाली है (तथा), भोगैश्वर्यगतिम्, प्रति = भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये, क्रियाविशेषबहुलाम् = बहुत-सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है।


व्याख्या' कामात्मानः' वे कामनाओंमें इतने रचे-पचे रहते हैं कि वे कामनारूप ही बन जाते हैं। उनको अपनेमें और कामनामें भिन्नता ही नहीं दीखती। उनका तो यही भाव होता है कि कामनाके बिना आदमी जी नहीं सकता, कामनाके बिना कोई भी काम नहीं हो सकता, कामनाके बिना आदमी पत्थरकी तरह जड हो जाता है, उसको चेतना भी नहीं रहती। ऐसे भाववाले पुरुष 'कामात्मानः' हैं। स्वयं तो नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती, पर कामना आती-जाती रहती है और घटती-बढ़ती है। स्वयं परमात्माका अंश है और कामना संसारके अंशको लेकर है। अतः स्वयं और कामना- ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं। परन्तु कामनामें रचे-पचे लोगोंको अपने स्वरूपका अलग भान ही नहीं होता।


'स्वर्गपराः' - स्वर्गमें बढ़िया-से-बढ़िया दिव्य भोग मिलते हैं, इसलिये उनके लक्ष्यमें स्वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है और वे उसकी प्राप्तिमें ही रात-दिन लगे रहते हैं।


यहाँ 'स्वर्गपराः' पदसे उन मनुष्योंकी बात कही गयी है, जो वेदोंमें, शास्त्रोंमें वर्णित स्वर्गादि लोकोंमें आस्था रखनेवाले हैं। 


'जन्मकर्मफलप्रदाम्'- वह पुष्पित वाणी जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है; क्योंकि उसमें सांसारिक भोगोंको ही महत्त्व दिया गया है। उन भोगोंका राग ही आगे जन्म होनेमें कारण है (गीता- तेरहवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)।


'क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति' - वह पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये जिन सकाम अनुष्ठानोंका वर्णन करती है, उनमें क्रियाओंकी बहुलता रहती है अर्थात् उन अनुष्ठानोंमें अनेक तरहकी विधियाँ होती हैं, अनेक तरहकी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, अनेक तरहके पदार्थोंकी जरूरत पड़ती है एवं शरीर आदिमें परिश्रम भी अधिक होता है (गीता - अठारहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक)।"


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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||

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