ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 40 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 40
"(श्लोक-४०)
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
होता इह = मनुष्यलोकमें, अस्य इस समबुद्धिरूप, धर्मस्य = धर्मके, अभिक्रमनाशः = आरम्भका नाश, न नहीं, अस्ति (तथा इसके अनुष्ठानका), प्रत्यवायः उलटा फल (भी), न = नहीं, विद्यते = होता (और इसका), स्वल्पम् = थोड़ा-सा, अपि = भी (अनुष्ठान), महतः = (जन्म-मरणरूप) महान्, भयात् = भयसे, त्रायते = रक्षा कर लेता है।
व्याख्या' नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति' - इस समबुद्धि (समता) - का केवल आरम्भ ही हो जाय, तो उस आरम्भका भी नाश नहीं होता। मनमें समता प्राप्त करनेकी जो लालसा, उत्कण्ठा लगी है, यही इस समताका आरम्भ होना है। इस आरम्भका कभी अभाव नहीं होता; क्योंकि सत्य वस्तुकी लालसा भी सत्य ही होती है। यहाँ 'इह' कहनेका तात्पर्य है कि इस मनुष्यलोकमें यह मनुष्य ही इस समबुद्धिको प्राप्त करनेका अधिकारी है। मनुष्यके सिवाय दूसरी सभी भोगयोनियाँ हैं। अतः उन योनियोंमें विषमता (राग- द्वेष) का नाश करनेका अवसर नहीं है; क्योंकि भोग राग-द्वेषपूर्वक ही होते हैं। यदि राग-द्वेष न हों तो भोग होगा ही नहीं, प्रत्युत साधन ही होगा।
'प्रत्यवायो न विद्यते' - सकामभावपूर्वक किये गये कर्मोंमें अगर मन्त्र-उच्चारण, यज्ञ-विधि आदिमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है। जैसे, कोई पुत्र-प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो उसमें विधिकी त्रुटि हो जानेसे पुत्रका होना तो दूर रहा, घरमें किसीकी मृत्यु हो जाती है अथवा विधिकी कमी रहनेसे इतना उलटा फल न भी हो, तो भी पुत्र पूर्ण अंगोंके साथ नहीं जन्मता ! परन्तु जो मनुष्य इस समबुद्धिको अपने अनुष्ठानमें लानेका प्रयत्न करता है, उसके प्रयत्नका, अनुष्ठानका कभी भी उलटा फल नहीं होता। कारण कि उसके अनुष्ठानमें फलकी इच्छा नहीं होती। जबतक फलेच्छा रहती है, तबतक समता नहीं आती और समता आनेपर फलेच्छा नहीं रहती। अतः उसके अनुष्ठानका विपरीत फल होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं।
विपरीत फल क्या है ? संसारमें विषमताका होना ही विपरीत फल है। सांसारिक किसी कार्यमें राग होना और किसी कार्यमें द्वेष होना ही विषमता है, और इसी विषमतासे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है। परन्तु मनुष्यमें जब समता आती है, तब राग-द्वेष नहीं रहते और राग-द्वेषके न रहनेसे विषमता नहीं रहती, तो फिर उसका विपरीत फल होनेका कोई कारण ही नहीं है।
'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्' - इस समबुद्धिरूप धर्मका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान हो जाय, थोड़ी-सी भी समता जीवनमें, आचरणमें आ जाय, तो यह जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है। जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है, ऐसे यह समता धन-सम्पत्ति आदि कोई फल देकर नष्ट नहीं होती अर्थात् इसका फल नाशवान् धन-सम्पत्ति आदिकी प्राप्ति नहीं होता। साधकके अन्तःकरणमें अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें जितनी समता आ जाती है, उतनी समता अटल हो जाती है। इस समताका किसी भी कालमें नाश नहीं हो सकता। जैसे, योगभ्रष्टकी साधन अवस्थामें जितनी समता आ जाती है, जितनी साधन सामग्री हो जाती है, उसका स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें बहुत वर्षोंतक सुख भोगनेपर और मृत्युलोकमें श्रीमानोंके घरमें भोग भोगनेपर भी नाश नहीं होता (गीता- छठे अध्यायका इकतालीसवाँ और चौवालीसवाँ श्लोक)। यह समता, साधन सामग्री कभी किंचिन्मात्र भी खर्च नहीं होती, प्रत्युत सदा ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है; क्योंकि यह सत् है, सदा रहनेवाली है।
'धर्म' नाम दो बातोंका है- (१) दान करना, प्याऊ लगाना, अन्नक्षेत्र खोलना आदि परोपकारके कार्य करना और (२) वर्ण- आश्रमके अनुसार शास्त्र-विहित अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना। इन धर्मोंका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे समतारूप धर्म स्वतः आ जाता है; क्योंकि यह समतारूप धर्म स्वयंका धर्म अर्थात् स्वरूप है। इसी बातको लेकर यहाँ समबुद्धिको धर्म कहा गया है।
समता-सम्बन्धी विशेष बात
लोगोंके भीतर प्रायः यह बात बैठी हुई है कि मन लगनेसे ही भजन-स्मरण होता है, मन नहीं लगा तो राम-राम करनेसे क्या लाभ ? परन्तु गीताकी दृष्टिमें मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है। गीताकी दृष्टिमें ऊँची चीज है- समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें समता आ गयी, उसको गीता सिद्ध कह देती है। जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जायँ और समता न आये, उसको गीता सिद्ध नहीं कहती।
समता दो तरहकी होती है- अन्तःकरणकी समता और स्वरूपकी समता। समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है। उस समरूप परमात्मामें जो स्थित हो गया, उसने संसारमात्रपर विजय प्राप्त कर ली, वह जीवन्मुक्त हो गया। परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरणकी समतासे होती है (गीता- पाँचवें अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक)। अन्तःकरणकी समता है- सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना (गीता-दूसरे अध्यायका अड़तालीसवाँ श्लोक)। प्रशंसा हो जाय या निन्दा हो जाय, कार्य सफल हो जाय या असफल हो जाय, लाखों रुपये आ जायँ या लाखों रुपये चले जायँ पर उससे अन्तःकरणमें कोई हलचल न हो; सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि न हो (गीता-पाँचवें अध्यायका बीसवाँ श्लोक)। इस समताका कभी नाश नहीं होता। कल्याणके सिवाय इस समताका दूसरा कोई फल होता ही नहीं।
मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्य-कर्म करे, वह फल देकर नष्ट हो जाता है; परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरणमें थोड़ी भी समता (निर्विकारता) आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है। इसलिये साधनमें समता जितनी ऊँची चीज है, मनकी एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है। मन एकाग्र होनेसे सिद्धियाँ तो प्राप्त हो जाती हैं, पर कल्याण नहीं होता। परन्तु समता आनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता-पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक)।
परिशिष्ट भाव - समताकी महिमा भगवान् ने उनतालीसवें- चालीसवें श्लोकोंमें चार प्रकारसे कही है-
(१) 'कर्मबन्धं प्रहास्यसि'- समताके द्वारा मनुष्य कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।
(२) 'नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति' इसके आरम्भका भी नाश नहीं होता।
(३) 'प्रत्यवायो न विद्यते' - इसके अनुष्ठानका उलटा फल भी नहीं होता।
(४) 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्' - इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है। यद्यपि पहली बातके अन्तर्गत ही शेष तीनों बातें आ जाती हैं, तथापि सबमें थोड़ा अन्तर है; जैसे-
(१) भगवान् पहले सामान्य रीतिसे कहते हैं कि समतासे युक्त मनुष्य कर्मबन्धनसे छूट जाता है। बन्धनका कारण गुणोंका संग अर्थात् प्रकृति और उसके कार्यसे माना हुआ सम्बन्ध है (गीता- तेरहवें अध्यायका इक्कीसवाँ श्लोक)। समता आनेसे प्रकृति और उसके कार्यसे सम्बन्ध नहीं रहता; अतः मनुष्य कर्म-बन्धनसे छूट जाता है। जैसे संसारमें अनेक शुभाशुभ कर्म होते रहते हैं, पर वे कर्म हमें बाँधते नहीं; क्योंकि उन कर्मोंसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होता, ऐसे ही समतायुक्त मनुष्यका इस शरीरसे होनेवाले कर्मोंसे भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता।
(२) समताका केवल आरम्भ हो जाय अर्थात् समताको प्राप्त करनेका उद्देश्य, जिज्ञासा हो जाय तो इस आरम्भका कभी नाश नहीं होता। कारण कि अविनाशीका उद्देश्य भी अविनाशी ही होता है, जबकि नाशवान् का उद्देश्य भी नाशवान् ही होता है। नाशवान् का उद्देश्य तो नाश (पतन) करता है, पर समताका उद्देश्य कल्याण ही करता है- 'जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते' (गीता ६। ४४)।
(३) समताके अनुष्ठानका उलटा फल नहीं होता। सकामभावसे किये जानेवाले कर्ममें अगर मन्त्रोच्चारण, अनुष्ठान-विधि आदिकी कोई त्रुटि हो जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है*।"
"* ऐसी कथा आती है कि त्वष्टाने इन्द्रका वध करनेवाले पुत्रकी इच्छासे एक यज्ञ किया। उस यज्ञमें ऋषियोंने 'इन्द्रशत्रुविवर्धस्व' इस मन्त्रके साथ हवन किया। 'इन्द्रशत्रु' शब्दमें यदि षष्ठीतत्पुरुष समास हो तो इसका अर्थ होगा- इन्द्रस्य शत्रुः (इन्द्रका शत्रु) और यदि बहुव्रीहि समास हो तो इसका अर्थ होगा- 'इन्द्रः शत्रुर्यस्य' (जिसका शत्रु इन्द्र है)। समासमें भेद होनेसे स्वरमें भी भेद हो जाता है। अतः षष्ठीतत्पुरुष समासवाले 'इन्द्रशत्रु' शब्दका उच्चारण अन्त्योदात्त होगा अर्थात् अन्तिम अक्षर 'त्रु' का उच्चारण उदात्त स्वरसे होगा; और बहुव्रीहि समासवाले 'इन्द्रशत्रु' शब्दका उच्चारण आद्योदात्त होगा अर्थात् प्रथम अक्षर 'इ' का उच्चारण उदात्त स्वरसे होगा। ऋषियोंका उद्देश्य तो षष्ठीतत्पुरुष समासवाले 'इन्द्रशत्रु'
शब्दका अन्त्योदात्त उच्चारण करना था, पर उन्होंने उसका आद्योदात्त उच्चारण कर दिया। इस प्रकार स्वरभेद हो जानेसे मन्त्रोच्चारणका फल उलटा हो गया, जिससे इन्द्र ही त्वष्टाके पुत्र (वृत्रासुर) का वध करनेवाला हो गया। इसलिये कहा गया है
मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥
(पाणिनीयशिक्षा)
परन्तु जितनी समता अनुष्ठानमें, जीवनमें आ गयी है, उसमें अगर व्यवहार आदिकी कोई भूल हो जाय, सावधानीमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल (बन्धन) नहीं होता। जैसे, कोई हमारे यहाँ नौकरी करता हो और अँधेरेमें लालटेन जलाते समय कभी उसके हाथसे लालटेन गिरकर टूट जाय तो हम उसपर नाराज होते हैं। परन्तु उस समय जो हमारा मित्र हो, जो हमारेसे कभी कुछ चाहता नहीं, उसके हाथसे लालटेन गिरकर टूट जाय तो हम उसपर नाराज नहीं होते, प्रत्युत कहते हैं कि हमारे हाथसे भी तो वस्तु टूट जाती है, तुम्हारे हाथसे टूट गयी तो क्या हुआ ? कोई बात नहीं। अतः जो सकामभावसे कर्म करता है, उसके कर्मका तो उलटा फल हो सकता है, पर जो किसी प्रकारका फल चाहता ही नहीं, उसके अनुष्ठानका उलटा फल कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता।
(४) समताका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान हो जाय, थोड़ा-सा भी समताका भाव बन जाय तो वह जन्म-मरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है अर्थात् कल्याण कर देता है। जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है, ऐसे यह थोड़ी-सी भी समता फल देकर नष्ट नहीं होती, प्रत्युत इसका उपयोग केवल कल्याणमें ही होता है। यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म यदि सकामभावसे किये जायँ तो उनका नाशवान् फल (धन-सम्पत्ति एवं स्वर्गादिकी प्राप्ति) होता है और यदि निष्कामभावसे किये जायें तो उनका अविनाशी फल (मोक्ष) होता है। इस प्रकार यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्मोंके तो दो-दो फल हो सकते हैं, पर समताका एक ही फल-कल्याण होता है। जैसे कोई मुसाफिर चलते-चलते रास्तेमें रुक जाय अथवा सो जाय तो वह जहाँसे चला था, वहाँ पुनः लौटकर नहीं चला जाता, प्रत्युत जहाँतक वह पहुँच गया, वहाँ तक का रास्ता तो कट ही गया। ऐसे ही जितनी समता जीवनमें आ गयी, उसका नाश कभी नहीं होता।
'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्'- निष्कामभाव थोड़ा होते हुए भी सत्य है और भय महान् होते हुए भी असत्य है। जैसे मनभर रुई हो तो उसको जलानेके लिये मनभर अग्निकी जरूरत नहीं है। रुई एक मन हो या सौ मन, उसको जलानेके लिये एक दियासलाई पर्याप्त है। एक दियासलाई लगाते ही वह रुई खुद दियासलाई अर्थात् अग्नि बन जायगी। रुई खुद दियासलाईकी मदद करेगी। अग्नि रुईके साथ नहीं होगी, प्रत्युत रुई खुद ज्वलनशील होनेके कारण अग्निके साथ हो जायगी। इसी तरह असंगता आग है और संसार रुई है। संसारसे असंग होते ही संसार अपने-आप नष्ट हो जायगा; क्योंकि मूलमें संसारकी सत्ता न होनेसे उससे कभी संग हुआ ही नहीं।
थोड़े-से-थोड़ा त्याग भी सत् है और बड़ी-से-बड़ी क्रिया भी असत् है। क्रियाका तो अन्त होता है, पर त्याग अनन्त होता है। इसलिये यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाएँ तो फल देकर नष्ट हो जाती हैं (गीता-आठवें अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्लोक), पर त्याग कभी नष्ट नहीं होता- 'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' (गीता १२। १२)। एक अहम् के त्यागसे अनन्त सृष्टिका त्याग हो जाता है; क्योंकि अहम् ने ही सम्पूर्ण जगत् को धारण कर रखा है (गीता - सातवें अध्यायका पाँचवाँ श्लोक)।
जैसे, कितनी ही घास हो, क्या अग्निके सामने टिक सकती है ? कितना ही अँधेरा हो, क्या प्रकाशके सामने टिक सकता है ? अँधेरे और प्रकाशमें लड़ाई हो जाय तो क्या अँधेरा जीत जायगा ? ऐसे ही अज्ञान और ज्ञानकी लड़ाई हो जाय तो क्या अज्ञान जीत जायगा ? महान्-से-महान् भय क्या अभयके सामने टिक सकता है? समता थोड़ी हो तो भी पूरी है और भय महान् हो तो भी अधूरा है। स्वल्प समता भी महान् है; क्योंकि वह सच्ची है और महान् भय भी स्वल्प (सत्ताहीन) है; क्योंकि वह कच्चा है।
समताको, निष्कामभावको 'स्वल्प' कहनेका क्या तात्पर्य है? निष्कामभाव तो महान् है, पर हमारी समझमें, हमारे अनुभवमें थोड़ा आनेसे उसको स्वल्प कह दिया है। वास्तवमें समझ थोड़ी हुई, समता थोड़ी नहीं हुई। उधर हमारी दृष्टि कम गयी है तो हमारी दृष्टिमें कमी है, तत्त्वमें कमी नहीं है। इसी तरह हमने असत् को ज्यादा आदर दे दिया तो असत् महान् नहीं हुआ, प्रत्युत हमारा आदर महान् हुआ। इसलिये अगर हम सत् का अधिक आदर करें तो सत् महान् हो जायगा अर्थात् उसकी महत्ताका अनुभव हो जायगा, और असत् का आदर न करें तो असत् स्वल्प हो जायगा। वास्तवमें असत् महान् हो या स्वल्प, उसकी सत्ता ही नहीं है- 'नासतो विद्यते भावः' और सत् महान् हो या स्वल्प, उसकी सत्ता नित्य-निरन्तर विद्यमान है- 'नाभावो विद्यते सतः'। इसलिये उपनिषदोंमें परमात्मतत्त्वको अणुसे भी अणु और महान्से भी महान् कहा गया है - 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' (कठ० १। २। २०; श्वेताश्वतर० ३।२०)।"
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