ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 36 से 38 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 36 से 38
"(श्लोक-३६) अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥
तव = तेरे, अहिताः शत्रुलोग, तव तेरी, सामर्थ्यम् = सामर्थ्यकी, निन्दन्तः = निन्दा करते हुए, बहून् = बहुत-से, अवाच्यवादान् = न कहनेयोग्य वचन, च = भी, वदिष्यन्ति = कहेंगे, ततः = उससे, दुःखतरम् = बढ़कर और दुःखकी बात, नु, किम् = क्या होगी।
व्याख्या अवाच्यवादांश्च निन्दन्तस्तव सामर्थ्यम्' - 'अहित' नाम शत्रुका है, अहित करनेवालेका है। तेरे जो दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण आदि शत्रु हैं, तेरे वैर न रखनेपर भी वे स्वयं तेरे साथ वैर रखकर तेरा अहित करनेवाले हैं। वे तेरी सामर्थ्यको जानते हैं कि यह बड़ा भारी शूरवीर है। ऐसा जानते हुए भी वे तेरी सामर्थ्यकी निन्दा करेंगे कि यह तो हिजड़ा है। देखो! यह युद्धके मौकेपर हो गया न अलग! क्या यह हमारे सामने टिक सकता है ? क्या यह हमारे साथ युद्ध कर सकता है? इस प्रकार तुझे दुःखी करनेके लिये, तेरे भीतर जलन पैदा करनेके लिये न जाने कितने न कहने-लायक वचन कहेंगे। उनके वचनोंको तू कैसे सहेगा ?
'ततो दुःखतरं नु किम्' - इससे बढ़कर अत्यन्त भयंकर दुःख क्या होगा ? क्योंकि यह देखा जाता है कि जैसे मनुष्य तुच्छ आदमियोंके द्वारा तिरस्कृत होनेपर अपना तिरस्कार सह नहीं सकता और अपनी योग्यतासे, अपनी शूरवीरतासे अधिक काम करके मर मिटता है। ऐसे ही जब शत्रुओंके द्वारा तेरा सर्वथा अनुचित तिरस्कार हो जायगा, तब उसको तू सह नहीं सकेगा और तेजीमें आकर युद्धके लिये कूद पड़ेगा। तेरेसे युद्ध किये बिना रहा नहीं जायगा। अभी तो तू युद्धसे उपरत हो रहा है, पर जब तू समयपर युद्धके लिये कूद पड़ेगा, तब तेरी कितनी निन्दा होगी। उस निन्दाको तू कैसे सह सकेगा ?
सम्बन्ध-पीछेके चार श्लोकोंमें युद्ध न करनेसे हानि बताकर अब भगवान् आगेके दो श्लोकोंमें युद्ध करनेसे लाभ बताते हैं।"
"(श्लोक-३७)
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
वा = अगर (युद्धमें तू), हतः = मारा जायगा (तो), स्वर्गम् = (तुझे) स्वर्गकी, प्राप्स्यसि = प्राप्ति होगी (और), वा = अगर (युद्धमें तू), जित्वा = जीत जायगा (तो), महीम् = पृथ्वीका राज्य, भोक्ष्यसे भोगेगा, तस्मात् = अतः, कौन्तेय = हे कुन्तीनन्दन ! (तू), युद्धाय युद्धके लिये, कृतनिश्चयः = निश्चय करके, उत्तिष्ठ = खड़ा हो जा।
व्याख्या-'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्'- इसी अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि हमलोगोंको इसका भी पता नहीं है कि युद्धमें हम उनको जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे। अर्जुनके इस सन्देहको लेकर भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि अगर युद्धमें तुम कर्ण आदिके द्वारा मारे भी जाओगे तो स्वर्गको चले जाओगे और अगर युद्धमें तुम्हारी जीत हो जायगी तो यहाँ पृथ्वीका राज्य भोगोगे। इस तरह तुम्हारे तो दोनों ही हाथोंमें लड्डू हैं। तात्पर्य है कि युद्ध करनेसे तो तुम्हारा दोनों तरफसे लाभ- ही-लाभ है और युद्ध न करनेसे दोनों तरफसे हानि-ही-हानि है। अतः तुम्हें युद्धमें प्रवृत्त हो जाना चाहिये।
'तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः' - यहाँ 'कौन्तेय' सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि जब मैं सन्धिका प्रस्ताव लेकर कौरवोंके पास गया था, तब माता कुन्तीने तुम्हारे लिये यही संदेश भेजा था कि तुम युद्ध करो। अतः तुम्हें युद्धसे निवृत्त नहीं होना चाहिये, प्रत्युत युद्धका निश्चय करके खड़े हो जाना चाहिये। अर्जुनका युद्ध न करनेका निश्चय था और भगवान् ने इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें युद्ध करनेकी आज्ञा दे दी। इससे अर्जुनके
मनमें सन्देह हुआ कि युद्ध करना ठीक है या न करना ठीक है। अतः यहाँ भगवान् उस सन्देहको दूर करनेके लिये कहते हैं कि तुम युद्ध करनेका एक निश्चय कर लो, उसमें सन्देह मत रखो।
यहाँ भगवान् का तात्पर्य ऐसा मालूम देता है कि मनुष्यको किसी भी हालतमें प्राप्त कर्तव्यका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उत्साह और तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। कर्तव्यका पालन करनेमें ही मनुष्यकी मनुष्यता है।
परिशिष्ट भाव - धर्मका पालन करनेसे लोक-परलोक दोनों
सुधर जाते हैं। तात्पर्य है कि कर्तव्यका पालन और अकर्तव्यका त्याग करनेसे लोककी भी सिद्धि हो जाती है और परलोककी भी।"
"(श्लोक-३८)
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।
जयाजयौ = जय-पराजय, लाभालाभौ लाभ-हानि (और), सुखदुःखे = सुख-दुःखको, समे समान, कृत्वा = करके, ततः = फिर, युद्धाय = युद्धमें, युज्यस्व लग जा, एवम् = इस प्रकार युद्ध करनेसे), पापम् (तू) पापको, न, अवाप्स्यसि = प्राप्त नहीं होगा।
व्याख्या- [अर्जुनको यह आशंका थी कि युद्धमें कुटुम्बियोंको मारनेसे हमारेको पाप लग जायगा, पर भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापका हेतु युद्ध नहीं है, प्रत्युत अपनी कामना है। अतः कामनाका त्याग करके तू युद्धके लिये खड़ा हो जा ।]
'सुखदुःखे समे .... ततो युद्धाय युज्यस्व'- युद्धमें सबसे पहले जय और पराजय होती है, जय-पराजयका परिणाम होता है- लाभ और हानि तथा लाभ-हानिका परिणाम होता है- सुख और दुःख । जय-पराजयमें और लाभ-हानिमें सुखी-दुःखी होना तेरा उद्देश्य नहीं है। तेरा उद्देश्य तो इन तीनोंमें सम होकर अपने कर्तव्यका पालन करना है।
युद्धमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख तो होंगे ही। अतः तू पहलेसे यह विचार कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है, जय-पराजय आदिसे कुछ भी मतलब नहीं रखना है। फिर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगेगा अर्थात् संसारका बन्धन नहीं होगा।
सकाम और निष्काम- दोनों ही भावोंसे अपने कर्तव्य कर्मका पालन करना आवश्यक है। जिसका सकाम भाव है, उसको तो कर्तव्यकर्मके करनेमें आलस्य, प्रमाद बिलकुल नहीं करने चाहिये, प्रत्युत तत्परतासे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। जिसका निष्काम भाव है, जो अपना कल्याण चाहता है, उसको भी तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।
सुख आता हुआ अच्छा लगता है और जाता हुआ बुरा लगता है तथा दुःख आता हुआ बुरा लगता है और जाता हुआ अच्छा लगता है। अतः इनमें कौन अच्छा है, कौन बुरा ? अर्थात् दोनों ही समान हैं, बराबर हैं। इस प्रकार सुख-दुःखमें समबुद्धि रखते हुए तुझे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये।
तेरी किसी भी कर्ममें सुखके लोभसे प्रवृत्ति न हो और दुःखके भयसे निवृत्ति न हो। कर्मोंमें तेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्रके अनुसार ही हो (गीता- सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक)।
'नैवं पापमवाप्स्यसि' - यहाँ 'पाप' शब्द पाप और पुण्य- दोनोंका वाचक है, जिसका फल है- स्वर्ग और नरककी प्राप्तिरूप बन्धन, जिससे मनुष्य अपने कल्याणसे वंचित रह जाता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है। भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन ! समतामें स्थित होकर युद्धरूपी कर्तव्य-कर्म करनेसे तुझे पाप और पुण्य - दोनों ही नहीं बाँधेंगे।
प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात
भगवान् ने इकतीसवें श्लोकसे अड़तीसवें श्लोकतकके आठ श्लोकोंमें कई विचित्र भाव प्रकट किये हैं; जैसे-
(१) किसीको व्याख्यान देना हो और किसी विषयको समझाना हो तो भगवान् इन आठ श्लोकोंमें उसकी कला बताते हैं। जैसे, कर्तव्य-कर्म करना और अकर्तव्य न करना-ऐसे विधि-निषेधका व्याख्यान देना हो तो उसमें पहले विधिका, बीचमें निषेधका और अन्तमें फिर विधिका वर्णन करके व्याख्यान समाप्त करना चाहिये। भगवान् ने भी यहाँ पहले इकतीसवें बत्तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्य- कर्म करनेसे लाभका वर्णन किया, फिर बीचमें तैंतीसवेंसे छत्तीसवेंतकके चार श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म न करनेसे हानिका वर्णन किया और अन्तमें सैंतीसवें-अड़तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभका वर्णन करके कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा दी।
(२) पहले अध्यायमें अर्जुनने अपनी दृष्टिसे जो दलीलें दी थीं, उनका भगवान् ने इन आठ श्लोकोंमें समाधान किया है; जैसे अर्जुन कहते हैं-मैं युद्ध करनेमें कल्याण नहीं देखता हूँ (पहले अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक), तो भगवान् कहते हैं- क्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है (दूसरे अध्यायका इकतीसवाँ श्लोक)। अर्जुन कहते हैं- युद्ध करके हम सुखी कैसे होंगे ? (पहले अध्यायका सैंतीसवाँ श्लोक), तो भगवान् कहते हैं- जिन क्षत्रियोंको ऐसा युद्ध मिल जाता है, वे ही क्षत्रिय सुखी हैं (दूसरे अध्यायका बत्तीसवाँ श्लोक)। अर्जुन कहते हैं- युद्धके परिणाममें नरककी प्राप्ति होगी (पहले अध्यायका चौवालीसवाँ श्लोक), तो भगवान् कहते हैं- युद्ध करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होगी (दूसरे अध्यायका बत्तीसवाँ और सैंतीसवाँ श्लोक)। अर्जुन कहते हैं- युद्ध करनेसे पाप लगेगा (पहले अध्यायका छत्तीसवाँ श्लोक), तो भगवान् कहते हैं- युद्ध न करनेसे पाप लगेगा (दूसरे अध्यायका तैंतीसवाँ श्लोक)। अर्जुन कहते हैं- युद्ध करनेसे परिणाममें धर्मका नाश होगा (पहले अध्यायका चालीसवाँ श्लोक), तो भगवान् कहते हैं- युद्ध न करनेसे धर्मका नाश होगा (दूसरे अध्यायका तैंतीसवाँ श्लोक) ।
(३) अर्जुनका यह आग्रह था कि युद्धरूपी घोर कर्मको छोड़कर भिक्षासे निर्वाह करना मेरे लिये श्रेयस्कर है (दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक), तो उनको भगवान् ने युद्ध करनेकी आज्ञा दी (दूसरे अध्यायका अड़तीसवाँ श्लोक); और उद्धवजीके मनमें भगवान् के साथ रहनेकी इच्छा थी तो उनको भगवान् ने उत्तराखण्डमें जाकर तप करनेकी आज्ञा दी (श्रीमद्भा० ग्यारहवाँ स्कन्ध, उनतीसवाँ अध्याय, इकतालीसवाँ श्लोक)। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपने मनका आग्रह छोड़े बिना कल्याण नहीं होता। वह आग्रह चाहे किसी रीतिका हो, पर वह उद्धार नहीं होने देता।
(४) भगवान् ने इस अध्यायके दूसरे तीसरे श्लोकोंमें जो बातें संक्षेपसे कही थीं, उन्हींको यहाँ विस्तारसे कहा है, जैसे- वहाँ 'अनार्यजुष्टम्' कहा तो यहाँ 'धर्माद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्' कहा। वहाँ 'अस्वर्ग्यम्' कहा तो यहाँ 'स्वर्गद्वारमपावृतम्' कहा। वहाँ 'अकीर्तिकरम्' कहा, तो यहाँ 'अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्' कहा। वहाँ युद्धके लिये आज्ञा दी - 'त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप', तो वही आज्ञा यहाँ देते हैं- 'ततो युद्धाय युज्यस्व'।"
परिशिष्ट भाव - गीता व्यवहारमें परमार्थकी विलक्षण कला बताती है, जिससे मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें रहते हुए तथा शास्त्रविहित सब तरहका व्यवहार करते हुए भी अपना कल्याण कर सके। अन्य ग्रन्थ तो प्रायः यह कहते हैं कि अगर अपना कल्याण चाहते हो तो सब कुछ त्यागकर साधु हो जाओ, एकान्तमें चले जाओ; क्योंकि व्यवहार और परमार्थ- दोनों एक साथ नहीं चल सकते। परन्तु गीता कहती है कि आप जहाँ हैं, जिस मतको मानते हैं, जिस सिद्धान्तको मानते हैं, जिस धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण, आश्रम आदिको मानते हैं, उसीको मानते हुए गीताके अनुसार चलो तो कल्याण हो जायगा। एकान्तमें रहकर वर्षोंतक साधना करनेपर ऋषि-मुनियोंको जिस तत्त्वकी प्राप्ति होती थी, उसी तत्त्वकी प्राप्ति गीताके अनुसार व्यवहार करते हुए हो जायगी। सिद्धि-असिद्धिमें सम रहकर निष्कामभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करना ही गीताके अनुसार व्यवहार करना है। युद्धसे बढ़कर घोर परिस्थिति तथा प्रवृत्ति और क्या होगी ? जब युद्ध-जैसी घोर परिस्थिति और प्रवृत्तिमें भी मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है, तो फिर ऐसी कौन-सी परिस्थिति तथा प्रवृत्ति होगी, जिसमें रहते हुए मनुष्य अपना कल्याण न कर सके ? गीताके अनुसार एकान्तमें आसन लगाकर ध्यान करनेसे भी कल्याण हो सकता है (गीता-छठे अध्यायके दसवेंसे तेरहवें श्लोकतक) और युद्ध करनेसे भी कल्याण हो सकता है! अर्जुन न तो स्वर्ग चाहते थे और न राज्य चाहते थे (गीता- पहले अध्यायका बत्तीसवाँ, पैंतीसवाँ और दूसरे अध्यायका आठवाँ श्लोक)। वे केवल युद्धसे होनेवाले पापसे बचना चाहते थे (गीता - पहले अध्यायका छत्तीसवाँ, उनतालीसवाँ और पैंतालीसवाँ श्लोक)। इसलिये भगवान् मानो यह कहते हैं कि अगर तू स्वर्ग और राज्य नहीं चाहता, पर पापसे बचना चाहता है तो युद्धरूप कर्तव्यको समतापूर्वक कर, फिर तुझे पाप नहीं लगेगा- 'नैवं पापमवाप्स्यसि ।' कारण कि पाप लगनेमें हेतु युद्ध नहीं है, प्रत्युत विषमता (पक्षपात), कामना, स्वार्थ, अहंकार है। युद्ध तो तेरा कर्तव्य (धर्म) है। कर्तव्य न करनेसे और अकर्तव्य करनेसे ही पाप लगता है। पूर्वश्लोकमें भगवान् ने अर्जुनसे मानो यह कहा कि अगर तू राज्य तथा स्वर्गकी प्राप्ति चाहे तो भी तेरे लिये कर्तव्यका पालन करना ही उचित है, और इस श्लोकमें मानो यह कहते हैं कि अगर तू राज्य तथा स्वर्गकी प्राप्ति न चाहे तो भी तेरे लिये समतापूर्वक कर्तव्यका पालन करना ही उचित है। तात्पर्य है कि अपने कर्तव्यका त्याग किसी भी स्थितिमें उचित नहीं है। सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें भगवान् ने जिस समताकी बात कही है, आगेके दो श्लोकोंमें उसीको सुननेके लिये आज्ञा देते हुए उसकी महिमाका वर्णन करते हैं।
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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