ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 31 से 35 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 31 से 35
"३१-३८ क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्ध करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन
(श्लोक-३१)
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धर्माद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
च = और, स्वधर्मम् अपने क्षात्रधर्मको, अवेक्ष्य = देखकर, अपि = भी (तुम्हें), विकम्पितुम् = विकम्पित अर्थात् कर्तव्य- कर्मसे विचलित, न नहीं, अर्हसि होना चाहिये, हि क्योंकि, धर्म्यात् = धर्ममय, युद्धात् = युद्धसे बढ़कर, क्षत्रियस्य = क्षत्रियके लिये, अन्यत् = दूसरा कोई, श्रेयः = कल्याणकारक कर्म, न = नहीं, विद्यते = है।
व्याख्या [पहले दो श्लोकोंमें युद्धसे होनेवाले लाभका वर्णन करते हैं।]
'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि' - यह स्वयं परमात्माका अंश है। जब यह शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह 'स्व' को अर्थात् अपने-आपको जो कुछ मानता है, उसका कर्तव्य 'स्वधर्म' कहलाता है। जैसे, कोई अपने-आपको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र मानता है, तो अपने-अपने वर्णोचित कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपनेको शिक्षक या नौकर मानता है तो शिक्षक या नौकरके कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपनेको किसीका पिता या किसीका पुत्र मानता है, तो पुत्र या पिताके प्रति किये जानेवाले कर्तव्योंका पालन करना उसका स्वधर्म है।
यहाँ क्षत्रियके कर्तव्य कर्मको 'धर्म' नामसे कहा गया है*।
* अठारहवें अध्यायमें जहाँ (१८। ४२-४८ में) चारों वर्णोंक कर्तव्य-कर्मोंका वर्णन आया है, वहाँ बीचमें 'धर्म' शब्द भी आया है-' श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ' (१८। ४७)। इससे 'कर्म' और 'धर्म' शब्द पर्यायवाची सिद्ध होते हैं।
क्षत्रियका खास कर्तव्य-कर्म है- युद्धसे विमुख न होना। अर्जुन क्षत्रिय हैं; अतः युद्ध करना उनका स्वधर्म है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि अगर स्वधर्मको लेकर देखा जाय तो भी क्षात्रधर्मके अनुसार तुम्हारे लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है। अपने कर्तव्यसे तुम्हें कभी विमुख नहीं होना चाहिये।
'धर्माद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते'- धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याण-कारक कर्म नहीं है अर्थात् क्षत्रियके लिये क्षत्रियके कर्तव्यका अनुष्ठान करना ही खास काम है (गीता- अठारहवें अध्यायका तैंतालीसवाँ श्लोक) । [ ऐसे ही ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रके लिये भी अपने-अपने कर्तव्यका अनुष्ठान करनेके सिवाय दूसरा कोई कल्याणकारी कर्म नहीं है।]
अर्जुनने सातवें श्लोकमें प्रार्थना की थी कि आप मेरे लिये निश्चित श्रेयकी बात कहिये। उसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि श्रेय (कल्याण) तो अपने धर्मका पालन करनेसे ही होगा। किसी भी दृष्टिसे अपने धर्मका त्याग कल्याणकारक नहीं है। अतः तुम्हें अपने युद्धरूप धर्मसे विमुख नहीं होना चाहिये।
परिशिष्ट भाव - देह-देहीके विवेकका वर्णन करनेके बाद अब
भगवान् यहाँसे अड़तीसवें श्लोकतक देहीके स्वधर्मपालन (कर्तव्यपालन) का वर्णन करते हैं। कारण कि देह-देहीके विवेकसे जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व देहके सदुपयोगसे, स्वधर्मके पालनसे भी मिल सकता है। विवेकमें 'जानना' मुख्य है और स्वधर्मपालनमें 'करना' मुख्य है। यद्यपि मनुष्यके लिये विवेक मुख्य है, जो व्यवहार और परमार्थमें, लोक और परलोकमें सब जगह काम आता है। परन्तु जो मनुष्य देह-देहीके विवेकको न समझ सके, उसके लिये भगवान् स्वधर्मपालनकी बात कहते हैं, जिससे वह
कोरा वाचक ज्ञानी न बनकर वास्तविक तत्त्वका अनुभव कर सके। तात्पर्य है कि जो मनुष्य परमात्मतत्त्वको जानना चाहता है, पर तीक्ष्ण बुद्धि और तेजीका वैराग्य न होनेके कारण ज्ञानयोगसे नहीं जान सका तो वह कर्मयोगसे परमात्मतत्त्वको जान सकता है; क्योंकि ज्ञानयोगसे जो अनुभव होता है, वही कर्मयोगसे भी हो सकता है (गीता-पाँचवें अध्यायका चौथा पाँचवाँ श्लोक)।
अर्जुन क्षत्रिय थे, इसलिये भगवान् ने इस प्रकरणमें क्षात्रधर्मकी बात कही है। वास्तवमें यहाँ क्षात्रधर्म चारों वर्णोंका उपलक्षण है। इसलिये ब्राह्मणादि अन्य वर्णोंको भी यहाँ अपना-अपना धर्म (कर्तव्य) समझ लेना चाहिये। (गीता- अठारहवें अध्यायका बयालीसवाँ, तैंतालीसवाँ और चौवालीसवाँ श्लोक)।
['स्वधर्म' को ही स्वभावज कर्म, सहज कर्म, स्वकर्म आदि नामोंसे कहा गया है (गीता- अठारहवें अध्यायके इकतालीसवेंसे अड़तालीसवें श्लोकतक)। स्वार्थ, अभिमान और फलेच्छाका त्याग करके दूसरेके हितके लिये कर्म करना स्वधर्म है। स्वधर्मका पालन ही कर्मयोग है।।"
"(श्लोक-३२)
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥
= यदृच्छया = अपने-आप, उपपन्नम् प्राप्त हुआ (युद्ध), अपावृतम् = खुला हुआ, स्वर्गद्वारम् = स्वर्गका दरवाजा, च = भी है, पार्थ = हे पृथानन्दन !, क्षत्रियाः (वे) क्षत्रिय, सुखिनः = बड़े सुखी (भाग्यशाली) हैं, ईदृशम् (जिनको) ऐसा, युद्धम् = युद्ध, लभन्ते = प्राप्त होता है।
व्याख्या- 'यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्'- पाण्डवोंसे जूआ खेलनेमें दुर्योधनने यह शर्त रखी थी कि अगर इसमें आप हार जायँगे, तो आपको बारह वर्षका वनवास और एक वर्षका अज्ञातवास भोगना होगा। तेरहवें वर्षके बाद आपको अपना राज्य मिल जायगा। परन्तु अज्ञात-वासमें अगर हमलोग आपलोगोंको खोज लेंगे, तो आप-लोगोंको दुबारा बारह वर्षका वनवास भोगना पड़ेगा। जूएमें हार जानेपर शर्तके अनुसार पाण्डवोंने बारह वर्षका
वनवास और एक वर्षका अज्ञातवास भोग लिया। उसके बाद जब
उन्होंने अपना राज्य माँगा, तब दुर्योधनने कहा कि मैं बिना युद्ध
किये सूईकी तीखी नोक-जितनी जमीन भी नहीं दूँगा। दुर्योधनके ऐसा
कहनेपर भी पाण्डवोंकी ओरसे बार-बार सन्धिका प्रस्ताव रखा गया,
पर दुर्योधनने पाण्डवोंसे सन्धि स्वीकार नहीं की। इसलिये भगवान्
अर्जुनसे कहते हैं कि यह युद्ध तुमलोगोंको अपने-आप प्राप्त हुआ
है। अपने-आप प्राप्त हुए धर्ममय युद्धमें जो क्षत्रिय शूरवीरतासे लड़ते हुए मरता है, उसके लिये स्वर्गका दरवाजा खुला हुआ रहता है। 'सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्'- ऐसा धर्ममय युद्ध जिनको प्राप्त हुआ है, वे क्षत्रिय बड़े सुखी हैं। यहाँ सुखी कहनेका तात्पर्य है कि अपने कर्तव्यका पालन करनेमें जो सुख है, वह सुख सांसारिक भोगोंको भोगनेमें नहीं है। सांसारिक भोगोंका
सुख तो पशु-पक्षियोंको भी होता है। अतः जिनको कर्तव्य-पालनका
अवसर प्राप्त हुआ है, उनको बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिये। सम्बन्ध-युद्ध न करनेसे क्या हानि होती है-इसका आगेके चार श्लोकोंमें वर्णन करते हैं।"
"(श्लोक-३३)
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य सङ्ग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।।
अथ = अब, चेत् = अगर, त्वम् तू, इमम् = यह, धर्म्यम् = धर्ममय, सङ्ग्रामम् = युद्ध, न नहीं, करिष्यसि = करेगा, ततः = तो, स्वधर्मम् = अपने धर्म, च = त्याग करके, पापम् = पापको, और, कीर्तिम् = कीर्तिका, हित्वा अवाप्स्यसि = प्राप्त होगा।
व्याख्या' अथ चेत्त्वमिमं 'अथ' अव्यय पक्षान्तरमें आया है और 'चेत्' अव्यय सम्भावनाके अर्थमें आया है। इनका तात्पर्य है कि यद्यपि तू युद्धके बिना रह नहीं सकेगा, अपने क्षात्र स्वभावके परवश हुआ तू युद्ध करेगा ही (गीता - अठारहवें अध्यायका साठवाँ श्लोक), तथापि अगर ऐसा मान लें कि तू युद्ध नहीं करेगा, तो तेरे द्वारा क्षात्रधर्मका त्याग हो जायगा। क्षात्रधर्मका त्याग होनेसे तुझे पाप लगेगा और तेरी कीर्तिका भी नाश होगा।
आप-से-आप प्राप्त हुए धर्मरूप कर्तव्यका त्याग करके तू क्या करेगा ? अपने धर्मका त्याग करनेसे तुझे परधर्म स्वीकार करना पड़ेगा, जिससे तुझे पाप लगेगा। युद्धका त्याग करनेसे दूसरे लोग ऐसा मानेंगे कि अर्जुन-जैसा शूरवीर भी मरनेसे भयभीत हो गया ! इससे तेरी कीर्तिका नाश होगा।"
" (श्लोक-३४)
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् । सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।।
च = और, भूतानि = सब प्राणी, अपि भी, ते = तेरी, अव्ययाम् = सदा रहनेवाली, अकीर्तिम् = अपकीर्तिका, कथयिष्यन्ति = कथन अर्थात् निन्दा करेंगे, अकीर्तिः = (वह) अपकीर्ति, सम्भावितस्य = सम्मानित मनुष्यके लिये, मरणात् = मृत्युसे, च = भी, अतिरिच्यते = बढ़कर दुःखदायी होती है।
कथयिष्यन्ति व्याख्या अकीर्तिं चापि भूतानि तेऽव्ययाम्'- मनुष्य, देवता, यक्ष, राक्षस आदि जिन प्राणियोंका तेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् जिनकी तेरे साथ न मित्रता है और न शत्रुता, ऐसे साधारण प्राणी भी तेरी अपकीर्ति, अपयशका कथन करेंगे कि देखो ! अर्जुन कैसा भीरु था, जो कि अपने क्षात्रधर्मसे विमुख हो गया। वह कितना शूरवीर था, पर युद्धके मौकेपर उसकी कायरता प्रकट हो गयी, जिसका कि दूसरोंको पता ही नहीं था; आदि-आदि।
'ते' कहनेका भाव है कि स्वर्ग, मृत्यु और पाताल-लोकमें भी जिसकी धाक जमी हुई है, ऐसे तेरी अपकीर्ति होगी। 'अव्ययाम्' कहनेका तात्पर्य है कि जो आदमी श्रेष्ठताको लेकर जितना अधिक प्रसिद्ध होता है, उसकी कीर्ति और अपकीर्ति भी उतनी ही अधिक स्थायी रहनेवाली होती है।
'सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते'- इस श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान् ने साधारण प्राणियोंद्वारा अर्जुनकी निन्दा किये जानेकी बात बतायी। अब श्लोकके उत्तरार्धमें सबके लिये लागू होनेवाली सामान्य बात बताते हैं।
संसारकी दृष्टिमें जो श्रेष्ठ माना जाता है, जिसको लोग बड़ी ऊँची दृष्टिसे देखते हैं, ऐसे मनुष्यकी जब अपकीर्ति होती है, तब वह अपकीर्ति उसके लिये मरणसे भी अधिक भयंकर दुःखदायी होती है। कारण कि मरनेमें तो आयु समाप्त हुई है, उसने कोई अपराध तो किया नहीं है, परन्तु अपकीर्ति होनेमें तो वह खुद धर्म-मर्यादासे, कर्तव्यसे च्युत हुआ है। तात्पर्य है कि लोगोंमें श्रेष्ठ माना जानेवाला मनुष्य अगर अपने कर्तव्यसे च्युत होता है, तो उसका बड़ा भयंकर अपयश होता है।"
"(श्लोक-३५)
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥
च = तथा, महारथाः महारथी लोग, त्वाम् = तुझे, भयात् = भयके कारण, रणात् = युद्धसे, उपरतम् = हटा हुआ, मंस्यन्ते = मानेंगे, येषाम् = जिनकी (धारणामें), त्वम् = तू, बहुमतः = बहुमान्य, भूत्वा = हो चुका है (उनकी दृष्टिमें), लाघवम् = (तू) लघुताको, यास्यसि = प्राप्त हो जायगा।
व्याख्या' भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः'- तू ऐसा समझता है कि मैं तो केवल अपना कल्याण करनेके लिये युद्धसे उपरत हुआ हूँ; परन्तु अगर ऐसी ही बात होती और युद्धको तू पाप समझता, तो पहले ही एकान्तमें रहकर भजन-स्मरण करता और तेरी युद्धके लिये प्रवृत्ति भी नहीं होती। परन्तु तू एकान्तमें न रहकर युद्धमें प्रवृत्त हुआ है। अब अगर तू युद्धसे निवृत्त होगा तो बड़े-बड़े महारथीलोग ऐसा ही मानेंगे कि युद्धमें मारे जानेके भयसे ही अर्जुन युद्धसे निवृत्त हुआ है। अगर वह धर्मका विचार करता तो युद्धसे निवृत्त नहीं होता; क्योंकि युद्ध करना क्षत्रियका धर्म है। अतः वह मरनेके भयसे ही युद्धसे निवृत्त हो रहा है।
'येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्'- भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, शल्य आदि जो बड़े-बड़े महारथी हैं, उनकी दृष्टिमें तू बहुमान्य हो चुका है अर्थात् उनके मनमें यह एक विश्वास है कि युद्ध करनेमें नामी शूरवीर तो अर्जुन ही है। वह युद्धमें अनेक दैत्यों, देवताओं, गन्धर्वों आदिको हरा चुका है। अगर अब तू युद्धसे निवृत्त हो जायगा, तो उन महारथियोंके सामने तू लघुता (तुच्छता) को प्राप्त हो जायगा अर्थात् उनकी दृष्टिमें तू गिर जायगा।"
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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