ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 30 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge
श्री हरि
"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।
अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""
भगवतगीता अध्याय 2 श्लोक 30
"(श्लोक-३०)
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
भारत = हे भरतवंशोद्भव अर्जुन !, सर्वस्य सबके, देहे देहमें, अयम् = यह, देही = देही, नित्यम् नित्य ही, अवध्यः अवध्य है, तस्मात् = इसलिये, सर्वाणि = सम्पूर्ण, भूतानि प्राणियोंके लिये अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये, त्वम् = तुम्हें, शोचितुम् शोक, न नहीं, अर्हसि करना चाहिये।
व्याख्या 'देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत'- मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि स्थावर जंगम सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंमें यह देही नित्य अवध्य अर्थात् अविनाशी है।
'अवध्यः' शब्दके दो अर्थ होते हैं- (१) इसका वध नहीं करना चाहिये और (२) इसका वध हो ही नहीं सकता। जैसे गाय अवध्य है अर्थात् कभी किसी भी अवस्थामें गायको नहीं मारना चाहिये; क्योंकि गायको मारनेमें बड़ा भारी दोष है, पाप है। परन्तु देहीके विषयमें 'देहीका वध नहीं करना चाहिये'- ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत इस देहीका वध (नाश) कभी किसी भी तरहसे हो ही नहीं सकता और कोई कर भी नहीं सकता - 'विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति' (२।१७)।
'तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि' इसलिये तुम्हें किसी भी प्राणीके लिये शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस देहीका विनाश कभी हो ही नहीं सकता और विनाशी देह क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता।
यहाँ 'सर्वाणि भूतानि' पदोंमें बहुवचन देनेका आशय है कि कोई भी प्राणी बाकी न रहे अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये शोक नहीं करना चाहिये। शरीर विनाशी ही है; क्योंकि उसका स्वभाव ही नाशवान् है। वह प्रतिक्षण ही नष्ट हो रहा है। परन्तु जो अपना नित्य-स्वरूप है, उसका कभी नाश होता ही नहीं। अगर इस वास्तविकताको जान लिया जाय तो फिर शोक होना सम्भव ही नहीं है।
प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात
यहाँ ग्यारहवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतकका जो प्रकरण है, यह विशेषरूपसे देही-देह, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, अविनाशी-विनाशी-इन दोनोंके विवेकके लिये अर्थात् इन दोनोंको अलग-अलग बतानेके लिये ही है। कारण कि जबतक 'देही अलग है और देह अलग है'- यह विवेक नहीं होगा, तबतक कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कोई-सा भी योग अनुष्ठानमें नहीं आयेगा। इतना ही नहीं, स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके लिये भी देही-देहके भेदको समझना आवश्यक है। कारण कि देहसे अलग देही न हो, तो देहके मरनेपर स्वर्ग कौन जायगा? अतः जितने भी आस्तिक दार्शनिक हैं, वे चाहे अद्वैतवादी हों, चाहे द्वैतवादी हों; किसी भी मतके क्यों न हों, सभी शरीरी- शरीरके भेदको मानते ही हैं। यहाँ भगवान् इसी भेदको स्पष्ट करना चाहते हैं। इस प्रकरणमें भगवान् ने जो बात कही है, वह प्रायः सम्पूर्ण मनुष्योंके अनुभवकी बात है। जैसे, देह बदलता है और देही नहीं बदलता। अगर यह देही बदलता तो देहके बदलनेको कौन जानता ? पहले बाल्यावस्था थी, फिर जवानी आयी; कभी बीमारी आयी, कभी बीमारी चली गयी इस तरह अवस्थाएँ तो बदलती रहती हैं, पर इन सभी अवस्थाओंको जाननेवाला देही वही रहता है। अतः बदलनेवाला और न बदलनेवाला- ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते। इसका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है। इसलिये भगवान् ने इस प्रकरणमें आत्मा-अनात्मा, ब्रह्म-जीव, प्रकृति-पुरुष, जड-चेतन, माया-अविद्या आदि दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग नहीं किया है*।
* यद्यपि इस प्रकरणमें (पंद्रहवें और इक्कीसवें श्लोकमें) दो बार 'पुरुष' शब्दका प्रयोग किया गया है, तथापि वह दार्शनिक 'प्रकृति-पुरुष' के अर्थमें प्रयुक्त न होकर 'मनुष्य' के अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है।
कारण कि लोगोंने दार्शनिक बातें केवल सीखनेके लिये मान रखी हैं, उन बातोंको केवल पढ़ाईका विषय मान रखा है। इसको दृष्टिमें रखकर भगवान् ने इस प्रकरणमें दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग न करके देह-देही, शरीर-शरीरी, असत्-सत्, विनाशी-अविनाशी शब्दोंका ही प्रयोग किया है। जो इन दोनोंके भेदको ठीक-ठीक जान लेता है, उसको कभी किंचिन्मात्र भी शोक नहीं हो सकता। जो केवल दार्शनिक बातें सीख लेते हैं, उनका शोक दूर नहीं होता।
एक छहों दर्शनोंकी पढ़ाई करना होता है और एक अनुभव करना होता है। ये दोनों बातें अलग-अलग हैं और इनमें बड़ा भारी अन्तर है। पढ़ाईमें ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति और संसार- ये सभी ज्ञानके विषय होते हैं अर्थात् पढ़ाई करनेवाला तो ज्ञाता होता है और ब्रह्म, ईश्वर आदि इन्द्रियों और अन्तःकरणके विषय होते हैं। पढ़ाई करनेवाला तो जानकारी बढ़ाना चाहता है, विद्याका संग्रह करना चाहता है, पर जो साधक मुमुक्षु, जिज्ञासु और भक्त होता है, वह अनुभव करना चाहता है अर्थात् प्रकृति और संसारसे सम्बन्ध- विच्छेद करके और अपने-आपको जानकर ब्रह्मके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहता है, ईश्वरके शरण होना चाहता है।
परिशिष्ट भाव - भगवान् ने ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक देह-देहीके विवेकका वर्णन किया है। इस प्रकरणमें भगवान् ने ब्रह्म-जीव, प्रकृति-पुरुष, जड़-चेतन, माया-अविद्या, आत्मा-अनात्मा आदि किसी दार्शनिक शब्दका प्रयोग नहीं किया है। इसका कारण यह है कि भगवान् इसको पढ़ाईका अर्थात् सीखनेका विषय न बनाकर अनुभवका विषय बनाना चाहते हैं और यह सिद्ध करना चाहते हैं कि देह-देहीके अलगावका अनुभव मनुष्यमात्र कर सकता है। इसमें कोई पढ़ाई करनेकी, अधिकारी बननेकी जरूरत नहीं है।
सत्-असत् का विवेक मनुष्य अगर अपने शरीरपर करता है तो वह साधक होता है और संसारपर करता है तो विद्वान् होता है। अपनेको अलग रखते हुए संसारमें सत्-असत् का विवेक करनेवाला मनुष्य वाचक (सीखा हुआ) ज्ञानी तो बन जाता है, पर उसको अनुभव नहीं हो सकता। परन्तु अपनी देहमें सत्- असत् का विवेक करनेसे मनुष्य वास्तविक (अनुभवी) ज्ञानी हो सकता है। तात्पर्य है कि संसारमें सत्-असत् का विवेक केवल पण्डिताईके लिये है, जबकि गीता पण्डिताईके लिये नहीं है। इसलिये भगवान् ने दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग न करके देह-देही, शरीर-शरीरी जैसे सामान्य शब्दोंका प्रयोग किया है।जो संसारमें सत्-असत् का विचार करते हैं, वे अपनेको अलग रखते हुए अपनेको ज्ञानका अधिकारी बनाते हैं। परन्तु अपनेमें देह-देहीका विचार करनेमें मनुष्यमात्र ज्ञानप्राप्तिका अधिकारी है। अनुभव करनेके लिये देह- देहीका विवेचन उपयोगी है और सीखनेके लिये तत्त्वका विवेचन उपयोगी है। इसलिये साधक अनुभव करना चाहता है तो सबसे पहले उसको शरीरसे अपने अलगावका अनुभव करना चाहिये कि शरीर शरीरीके सम्बन्धसे रहित
है और शरीरी शरीरके सम्बन्धसे रहित है अर्थात् 'मैं शरीर नहीं हूँ।' उसने जितनी सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और निःसन्देहतासे शरीरकी सत्ता-महत्ता मानी है, उतनी ही सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और निःसन्देहतासे स्वयं (स्वरूप) की सत्ता-महत्ता मान ले और अनुभव कर ले। "
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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||
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