ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 37 से 39 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge

 


श्री हरि

"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""

भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 37 से 39

"(श्लोक-३७)

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् । स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥

तस्मात् = इसलिये, स्वबान्धवान् = अपने बान्धव (इन), धार्तराष्ट्रान् = धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको, हन्तुम् = मारनेके लिये, वयम् = हम, न, अर्हाः योग्य नहीं हैं; हि क्योंकि, माधव = हे माधव !, स्वजनम् = अपने कुटुम्बियोंको, हत्वा = मारकर (हम), कथम् = कैसे, सुखिनः सुखी, स्याम होंगे ?

व्याख्या-'तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्' -

अभीतक (पहले अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकसे लेकर यहाँतक) मैंने कुटुम्बियोंको न मारनेमें जितनी युक्तियाँ, दलीलें दी हैं, जितने विचार प्रकट किये हैं, उनके रहते हुए हम ऐसे अनर्थकारी कार्यमें कैसे प्रवृत्त हो सकते हैं? अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको मारनेका कार्य हमारे लिये सर्वथा ही अयोग्य है, अनुचित है। हम- जैसे अच्छे पुरुष ऐसा अनुचित कार्य कर ही कैसे सकते हैं ?

'स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव' - हे माधव ! इन कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे ही बड़ा दुःख हो रहा है, संताप हो रहा है, तो फिर क्रोध तथा लोभके वशीभूत होकर हम उनको मार दें तो कितना दुःख होगा ! उनको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ?

यहाँ 'ये हमारे घनिष्ठ सम्बन्धी हैं'- इस ममताजनित मोहके कारण अपने क्षत्रियोचित कर्तव्यकी तरफ अर्जुनकी दृष्टि ही नहीं जा रही है। कारण कि जहाँ मोह होता है, वहाँ मनुष्यका विवेक दब जाता है। विवेक दबनेसे मोहकी प्रबलता हो जाती है। मोहके प्रबल होनेसे अपने कर्तव्यका स्पष्ट भान नहीं होता।

सम्बन्ध- अब यहाँ यह शंका होती है कि जैसे तुम्हारे लिये दुर्योधन आदि स्वजन हैं, ऐसे ही दुर्योधन आदिके लिये भी तो तुम स्वजन हो। स्वजनकी दृष्टिसे तुम तो युद्धसे निवृत्त होनेकी बात सोच रहे हो, पर दुर्योधन आदि युद्धसे निवृत्त होनेकी बात ही नहीं सोच रहे हैं- इसका क्या कारण है? इसका उत्तर अर्जुन आगेके दो श्लोकोंमें देते हैं।"

"(श्लोक-३८)

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥

यद्यपि = यद्यपि, लोभोपहतचेतसः लोभके कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे, एते ये (दुर्योधन आदि), कुलक्षयकृतम् = कुलका नाश करनेसे होनेवाले, दोषम् = दोषको, च = और, मित्रद्रोहे मित्रोंके साथ द्वेष करनेसे होनेवाले, पातकम् = पापको, न नहीं, पश्यन्ति = देखते (तो भी),

व्याख्या- 'यद्यप्येते न पश्यन्ति ..... मित्रद्रोहे च पातकम् ' - इतना मिल गया, इतना और मिल जाय; फिर ऐसा मिलता ही रहे- ऐसे धन, जमीन, मकान, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदिकी तरफ बढ़ती हुई वृत्तिका नाम 'लोभ' है। इस लोभ-वृत्तिके कारण इन दुर्योधनादिकी विवेक-शक्ति लुप्त हो गयी है, जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्यके लिये हम इतना बड़ा पाप करने जा रहे हैं, कुटुम्बियोंका नाश करने जा रहे हैं, वह राज्य हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम उसके साथ कितने दिन रहेंगे ? हमारे रहते हुए यह राज्य चला जायगा तो हमारी क्या दशा होगी और राज्यके रहते हुए हमारे शरीर चले जायँगे तो क्या दशा होगी ? क्योंकि मनुष्य संयोगका जितना सुख लेता है, उसके वियोगका उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोगमें इतना सुख नहीं होता, जितना वियोगमें दुःख होता है। तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें लोभ छा जानेके कारण इनको राज्य-ही-राज्य दीख रहा है। कुलका नाश करनेसे कितना भयंकर पाप होगा, वह इनको दीख ही नहीं रहा है।

जहाँ लड़ाई होती है, वहाँ समय, सम्पत्ति, शक्तिका नाश हो जाता है। तरह-तरहकी चिन्ताएँ और आपत्तियाँ आ जाती हैं। दो मित्रोंमें भी आपसमें खटपट मच जाती है, मनोमालिन्य हो जाता है। कई तरहका मतभेद हो जाता है। मतभेद होनेसे वैरभाव हो जाता है। जैसे द्रुपद और द्रोण- दोनों बचपनके मित्र थे। परन्तु राज्य मिलनेसे द्रुपदने एक दिन द्रोणका मान  करके उस मित्रताको ठुकरा दिया। इससे राजा द्रुपद और द्रोणाचार्यके बीच वैरभाव हो गया। अपने अपमानका बदला लेनेके लिये द्रोणाचार्यने मेरे द्वारा राजा द्रुपदको परास्त कराकर उसका आधा राज्य ले लिया। इसपर द्रुपदने द्रोणाचार्यका नाश करनेके लिये एक यज्ञ कराया, जिससे धृष्टद्युम्न और द्रौपदी-दोनों पैदा हुए। इस तरह मित्रोंके साथ वैरभाव होनेसे कितना भयंकर पाप होगा, इस तरफ ये देख ही नहीं रहे हैं! 

विशेष बात

अभी हमारे पास जिन वस्तुओंका अभाव है, उन वस्तुओंके बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरहसे जी रहे हैं। परन्तु जब वे वस्तुएँ हमें मिलनेके बाद फिर बिछुड़ जाती हैं, तब उनके अभावका बड़ा दुःख होता है। तात्पर्य है कि पहले वस्तुओंका जो निरन्तर अभाव था, वह इतना दुःखदायी नहीं था, जितना वस्तुओंका संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होनेपर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओंका अभाव मानता है, उन वस्तुओंको वह लोभके कारण पानेकी चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाय तो जिन वस्तुओंका अभी अभाव है, बीचमें प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होनेपर भी अन्तमें उनका अभाव ही रहेगा। अतः हमारी तो वही अवस्था रही, जो कि वस्तुओंके मिलनेसे पहले थी। बीचमें लोभके कारण उन वस्तुओंको पानेके लिये केवल परिश्रम- ही-परिश्रम पल्ले पड़ा, दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ा। बीचमें वस्तुओंके संयोगसे जो थोड़ा-सा सुख हुआ है, वह तो केवल लोभके कारण ही हुआ है। अगर भीतरमें लोभ-रूपी दोष न हो, तो वस्तुओंके संयोगसे सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो, तो कुटुम्बियोंसे सुख हो ही नहीं सकता। लालचरूपी दोष न हो, तो संग्रहका सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसारका सुख किसी-न-किसी दोषसे ही होता है। कोई भी दोष न होनेपर संसारसे सुख हो ही नहीं सकता। परन्तु लोभके कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक-विचारको लुप्त कर देता है।"

"
(श्लोक-३९)

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् । कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।

जनार्दन = हे जनार्दन !, कुलक्षयकृतम् = कुलका नाश करनेसे होनेवाले, दोषम् = दोषको, प्रपश्यद्भिः ठीक-ठीक जाननेवाले, अस्माभिः = हम लोग, अस्मात् = इस, पापात् = पापसे, निवर्तितुम् = निवृत्त होनेका, ज्ञेयम् = विचार, कथम् = क्यों, न = न करें ?

'कथं न ज्ञेयमस्माभिः.... प्रपश्यद्भिर्जनार्दन'- अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षयसे होनेवाले दोषको और मित्रद्रोहसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हमलोगोंको कुलक्षयसे होनेवाली अनर्थ-परम्पराको देखना ही चाहिये [जिसका वर्णन अर्जुन आगे चालीसवें श्लोकसे चौवालीसवें श्लोकतक करेंगे]; क्योंकि हम कुलक्षयसे होनेवाले दोषोंको भी अच्छी तरहसे जानते हैं और मित्रोंके साथ द्रोह (वैर, द्वेष) से होनेवाले पापको भी अच्छी तरहसे जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें, तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःखसे तो हमारे पूर्वपापोंका ही नाश होगा, हमारी शुद्धि ही होगी। परन्तु हमारे मनमें अगर द्रोह - वैरभाव होगा, तो वह मरनेके बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म-जन्मान्तरतक हमें पाप करनेमें प्रेरित करता रहेगा, जिससे हमारा पतन-ही-पतन होगा। ऐसे अनर्थ करनेवाले और मित्रोंके साथ द्रोह पैदा करनेवाले इस युद्धरूपी पापसे बचनेका विचार क्यों नहीं करना चाहिये ? अर्थात् विचार करके हमें इस पापसे जरूर ही बचना चाहिये। 

यहाँ अर्जुनकी दृष्टि दुर्योधन आदिके लोभकी तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह (मोह) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं- इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्यकी दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तबतक उसको अपना दोष नहीं दीखता, उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारेमें यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारेमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो, तो भी दूसरोंका दोष देखना - यह दोष तो है ही। दूसरोंका दोष देखना एवं अपनेमें अच्छाईका अभिमान करना-ये दोनों दोष साथमें ही रहते हैं। अर्जुनको भी दुर्योधन आदिमें दोष दीख रहे हैं और अपनेमें अच्छाईका अभिमान हो रहा है (अच्छाईके अभिमानकी छायामें मात्र दोष रहते हैं), इसलिये उनको अपनेमें मोहरूपी दोष नहीं दीख रहा है।

सम्बन्ध-कुलका क्षय करनेसे होनेवाले जिन दोषोंको हम जानते हैं, वे दोष कौन-से हैं? उन दोषोंकी परम्परा आगेके पाँच श्लोकोंमें बताते हैं।"

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||



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