ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 34 से 36 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge

 


श्री हरि

"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""

भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 34 से 36

"(श्लोक-३४)

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः । मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।।

आचार्याः = आचार्य, पितरः पिता, पुत्राः पुत्र, च = और तथा, एव = उसी प्रकार, पितामहाः पितामह, मातुलाः = मामा, श्वशुराः = ससुर, पौत्राः पौत्र, श्यालाः = साले, तथा = तथा (अन्य जितने भी), सम्बन्धिनः सम्बन्धी हैं (मुझपर)

१-छब्बीसवें श्लोकमें 'पितृनथ पितामहान् ....' कहकर सबसे पहले पिताओं और पितामहोंका नाम लिया गया है, और यहाँ 'आचार्याः पितरः.....' कहकर सबसे पहले आचार्योंका नाम लिया गया है। इसका तात्पर्य है कि वहाँ तो कौटुम्बिक स्नेहकी मुख्यता है, इसलिये वहाँ पिताका नाम सबसे पहले लिया है; और यहाँ न मारनेका विषय चल रहा है, इसलिये यहाँ सबसे पहले आदरणीय पूज्य आचार्यों-गुरुजनोंका नाम लिया है, जो कि जीवके परम हितैषी होते हैं।

व्याख्या [भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ ये तीनों ही नरकके द्वार हैं। वास्तवमें एक कामके ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामनाकी दो तरहकी क्रियाएँ होती हैं- इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति। इनमेंसे इष्टकी प्राप्ति भी दो तरहकी होती है- संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रहकी इच्छाका नाम 'लोभ' है और सुखभोगकी इच्छाका नाम 'काम' है। अनिष्टकी निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर 'क्रोध' आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंपर अथवा हमारा अनिष्ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है, जिससे अनिष्ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती है- अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने 'क्रोध' को सफल बनानेके लिये और इष्टकी प्राप्तिके लिये अर्थात् 'लोभ' की पूर्तिके लिये। परन्तु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं।]

'आचार्याः' - इन कुटुम्बियोंमें जिन द्रोणाचार्य आदिसे हमारा विद्याका, हितका सम्बन्ध है, ऐसे पूज्य आचार्योंकी मेरेको सेवा करनी चाहिये कि उनके साथ लड़ाई करनी चाहिये? आचार्यके चरणोंमें तो अपने-आपको, अपने प्राणोंको भी समर्पित कर देना चाहिये। यही हमारे लिये उचित है।

'पितरः' - शरीरके सम्बन्धको लेकर जो पितालोग हैं, उनका ही तो रूप यह हमारा शरीर है। शरीरसे उनके स्वरूप होकर हम क्रोध या लोभमें आकर अपने उन पिताओंको कैसे मारें ?

'पुत्राः'- हमारे और हमारे भाइयोंके जो पुत्र हैं, वे तो सर्वथा पालन करनेयोग्य हैं। वे हमारे विपरीत कोई क्रिया भी कर बैठें, तो भी उनका पालन करना ही हमारा धर्म है।

'पितामहाः'- ऐसे ही जो पितामह हैं, वे जब हमारे पिताजीके भी पूज्य हैं, तब हमारे लिये तो परमपूज्य हैं ही। वे हमारी ताड़ना कर सकते हैं, हमें मार भी सकते हैं। पर हमारी तो ऐसी ही चेष्टा होनी चाहिये, जिससे उनको किसी तरहका दुःख न हो, कष्ट न हो, प्रत्युत उनको सुख हो, आराम हो, उनकी सेवा हो।

'मातुलाः'- हमारे जो मामालोग हैं, वे हमारा पालन-पोषण करनेवाली माताओंके ही भाई हैं। अतः वे माताओंके समान ही पूज्य होने चाहिये।

'श्वशुराः' - ये जो हमारे ससुर हैं, ये मेरी और मेरे भाइयोंकी पत्नियोंके पूज्य पिताजी हैं। अतः ये हमारे लिये भी पिताके ही तुल्य हैं। इनको मैं कैसे मारना चाहूँ ?

'पौत्राः'- हमारे पुत्रोंके जो पुत्र हैं, वे तो पुत्रोंसे भी अधिक पालन-पोषण करनेयोग्य हैं।

'श्यालाः' हमारे जो साले हैं, वे भी हमलोगोंकी पत्नियोंके प्यारे भैया हैं। उनको भी कैसे मारा जाय !

'सम्बन्धिनः'- ये जितने सम्बन्धी दीख रहे हैं और इनके अतिरिक्त जितने भी सम्बन्धी हैं, उनका पालन-पोषण, सेवा करनी चाहिये कि उनको मारना चाहिये ?"
"(श्लोक-३५) एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।।

 घ्नतः = प्रहार करनेपर, अपि भी (मैं), एतान्= इनको, हन्तुम् = मारना, न = नहीं, इच्छामि चाहता (और), मधुसूदन = हे, मधुसूदन ! (मुझे), त्रैलोक्य-राज्यस्य = त्रिलोकीका राज्य, हेतोः = मिलता हो, अपि = तो भी (मैं इनको मारना नहीं चाहता), नु = फिर, महीकृते = पृथ्वीके लिये तो (मैं इनको मारूँ ही), किम् = क्या ।

'आचार्याः पितरः किं नु महीकृते'- अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्तिके लिये राज्यके लोभमें आकर मेरेको मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्ट-प्राप्तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका दरवाजा मोल नहीं लेना है।

यहाँ दो बार 'अपि' पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों ? पर मान लो कि 'पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी है' ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश करनेमें प्रवृत्त हो जायँ, तो भी (घ्नतोऽपि) मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात, इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिल जाय, यह तो सम्भावना ही नहीं है, पर मान लो कि इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो, तो भी (अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः) मैं इनको मारना नहीं चाहता।

'मधुसूदन' सम्बोधनका तात्पर्य है कि आप तो दैत्योंको मारनेवाले हैं, पर ये द्रोण आदि आचार्य और भीष्म आदि पितामह दैत्य थोड़े ही हैं, जिससे मैं इनको मारनेकी इच्छा करूँ ? ये तो हमारे अत्यन्त नजदीकके खास सम्बन्धी हैं।

२'मधु' नामक दैत्यको मारनेके कारण भगवान् का नाम 'मधुसूदन' पड़ा था।

इनको मारनेसे अगर हमें त्रिलोकीका राज्य भी मिल जाय, तो भी क्या इनको मारना उचित है ? इनको मारना तो सर्वथा अनुचित है।

सम्बन्ध - पूर्वश्लोकमें अर्जुनने स्वजनोंको न मारनेमें दो हेतु बताये। अब परिणामकी दृष्टिसे भी स्वजनोंको न मारना सिद्ध करते हैं।"
"(श्लोक-३६)

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।

पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ।।

जनार्दन = हे जनार्दन (इन), धार्तराष्ट्रान् धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको, निहत्य = मारकर, नः हमलोगोंको, का क्या, प्रीतिः = प्रसन्नता, स्यात् = होगी, एतान् = इन, आततायिनः = आततायियोंको, हत्वा = मारनेसे तो, अस्मान् = हमें, पापम् = पाप, एव = ही, आश्रयेत् = लगेगा।

व्याख्या- 'निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः

हत्वैतानाततायिनः 'धृतराष्ट्रके पुत्र और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं, उनको मारकर विजय प्राप्त करनेसे हमें क्या प्रसन्नता होगी ? अगर हम क्रोध अथवा लोभके वेगमें आकर इनको मार भी दें, तो उनका वेग शान्त होनेपर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात् क्रोध और लोभमें आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे- ऐसा पश्चात्ताप ही करना पड़ेगा। कुटुम्बियोंकी याद आनेपर उनका अभाव बार-बार खटकेगा। चित्तमें उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थितिमें हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या ? तात्पर्य है कि इनको मारनेसे हम इस लोकमें जबतक जीते रहेंगे, तबतक हमारे चित्तमें कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारनेसे हमें जो पाप लगेगा, वह परलोकमें हमें भयंकर दुःख देनेवाला होगा।

आततायी छः प्रकारके होते हैं- आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्त्र लेकर मारनेको तैयार हुआ, धनको हरनेवाला, जमीन (राज्य) छीननेवाला और स्त्रीका हरण करनेवाला *।

* अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः । क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिनः ।।

(वसिष्ठस्मृति ३।१९) 'आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्त्र लेकर मारनेको उद्यत हुआ, धनका हरण करनेवाला, जमीन छीननेवाला और स्त्रीका हरण करनेवाला- ये छहों ही आततायी हैं।'

दुर्योधन आदिमें ये छहों ही लक्षण घटते थे। उन्होंने पाण्डवोंको लाक्षागृहमें आग लगाकर मारना चाहा था। भीमसेनको जहर खिलाकर जलमें फेंक दिया था। हाथमें शस्त्र लेकर वे पाण्डवोंको मारनेके लिये तैयार थे ही। द्यूतक्रीड़ामें छल-कपट करके उन्होंने पाण्डवोंका धन और राज्य हर लिया था। द्रौपदीको भरी सभामें लाकर दुर्योधनने 'मैंने तेरेको जीत लिया है, तू मेरी दासी हो गयी है' आदि शब्दोंसे बड़ा अपमान किया था और दुर्योधनादिकी प्रेरणासे जयद्रथ द्रौपदीको हरकर ले गया था।

शास्त्रोंके वचनोंके अनुसार आततायीको मारनेसे मारनेवालेको कुछ भी दोष (पाप) नहीं लगता- 'नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन' (मनुस्मृति ८। ३५१)। परन्तु आततायीको मारना उचित होते हुए भी मारनेकी क्रिया अच्छी नहीं है। शास्त्र भी कहता है कि मनुष्यको कभी किसीकी हिंसा नहीं करनी चाहिये - 'न हिंस्यात्सर्वा भूतानि'; हिंसा न करना परमधर्म है- 'अहिंसा परमो धर्मः *।'

* आततायीको मार दे- यह अर्थशास्त्र है और किसीकी भी हिंसा न करे- यह धर्मशास्त्र है। जिसमें अपना कोई स्वार्थ (मतलब) रहता है, वह 'अर्थशास्त्र' कहलाता है; और जिसमें अपना कोई स्वार्थ नहीं रहता, वह 'धर्मशास्त्र' कहलाता है। अर्थशास्त्रकी अपेक्षा धर्मशास्त्र बलवान् होता है। अतः शास्त्रोंमें जहाँ अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्र- दोनोंमें विरोध आये, वहाँ अर्थशास्त्रका त्याग करके धर्मशास्त्रको ही ग्रहण करना चाहिये-

स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः । अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः ॥

(याज्ञवल्क्यस्मृति २।२१)

अतः क्रोध-लोभके वशीभूत होकर कुटुम्बियोंकी हिंसाका कार्य हम क्यों करें ?

आततायी होनेसे ये दुर्योधन आदि मारनेके लायक हैं ही; परन्तु अपने कुटुम्बी होनेसे इनको मारनेसे हमें पाप ही लगेगा; क्योंकि शास्त्रोंमें कहा गया है कि जो अपने कुलका नाश करता है, वह अत्यन्त पापी होता है- 'स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात्कुलनाशनम्।' अतः जो आततायी अपने खास कुटुम्बी हैं, उन्हें कैसे मारा जाय ? उनसे अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लेना, उनसे अलग हो जाना तो ठीक है, पर उन्हें मारना ठीक नहीं है। जैसे, अपना बेटा ही आततायी हो जाय तो उससे अपना सम्बन्ध हटाया जा सकता है, पर उसे मारा थोड़े ही जा सकता है!

सम्बन्ध-पूर्वश्लोकमें युद्धका दुष्परिणाम बताकर अब अर्जुन युद्ध करनेका सर्वथा अनौचित्य बताते हैं।"

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||


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