ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्लोक 31 से 33 #BhagavadGita #SpiritualKnowledge


श्री हरि

"""बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय ||

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्र विस्तरैः । या स्वयं पद्म नाभस्य मुख पद्माद्विनिः सृता ।।

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजग शयनं पद्म नाभं सुरेशं विश्व आधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मी कान्तं कमल नयनं योगिभि: ध्यान गम्यम वन्दे विष्णुं भव भयहरं सर्व लोकैक नाथम् ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्र रुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- र्वेदैः साङ्ग पद क्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगाः । ध्यान अवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्यान्तं न विदुः सुर असुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् । देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥"""

भगवतगीता अध्याय 1 श्लोक 31 से 33


"(श्लोक-३१)

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।

केशव = हे केशव ! (मैं), निमित्तानि लक्षणों (शकुनों) को, च = भी, विपरीतानि = विपरीत, पश्यामि = देख रहा हूँ (और), आहवे = युद्धमें, स्वजनम् = स्वजनोंको, हत्वा = मारकर, श्रेयः = श्रेय (लाभ), च = भी, न नहीं, अनुपश्यामि = देख रहा हूँ। व्याख्या- 'निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव' - हे केशव ! मैं शकुनोंको भी विपरीत ही देख रहा हूँ।

१-जितने भी शकुन होते हैं, वे किसी अच्छी या बुरी घटनाके होनेमें निमित्त नहीं होते अर्थात् वे किसी घटनाके निर्माता नहीं होते, प्रत्युत भावी घटनाकी सूचना देनेवाले होते हैं। शकुन बतानेवाले प्राणी भी वास्तवमें शकुनोंको बताते नहीं हैं; किन्तु उनकी स्वाभाविक चेष्टासे शकुन सूचित होते हैं।

तात्पर्य है कि किसी भी कार्यके आरम्भमें मनमें जितना अधिक उत्साह (हर्ष) होता है, वह उत्साह उस कार्यको उतना ही सिद्ध करनेवाला होता है। परन्तु अगर कार्यके आरम्भमें ही उत्साह भंग हो जाता है, मनमें संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते, तो उस कार्यका परिणाम अच्छा नहीं होता। इसी भावसे अर्जुन कह रहे हैं कि अभी मेरे शरीरमें अवयवोंका शिथिल होना, कम्प होना, मुखका सूखना आदि जो लक्षण हो रहे हैं, ये व्यक्तिगत शकुन भी ठीक नहीं हो रहे हैं।

२-यद्यपि अर्जुन शरीरमें होनेवाले लक्षणोंको भी शकुन मान रहे हैं, तथापि वास्तवमें ये शकुन नहीं हैं। ये तो शोकके कारण इन्द्रियाँ, शरीर, मन, बुद्धिमें होनेवाले विकार हैं।

इसके सिवाय आकाशसे उल्कापात होना, असमयमें ग्रहण लगना, भूकम्प होना, पशु-पक्षियोंका भयंकर बोली बोलना, चन्द्रमाके काले चिह्नका मिट-सा जाना, बादलोंसे रक्तकी वर्षा होना आदि जो पहले शकुन हुए हैं, वे भी ठीक नहीं हुए हैं। इस तरह अभीके और पहलेके- इन दोनों शकुनोंकी ओर देखता हूँ, तो मेरेको ये दोनों ही शकुन विपरीत अर्थात् भावी अनिष्टके सूचक दीखते हैं।

'न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे'- युद्धमें अपने कुटुम्बियोंको मारनेसे हमें कोई लाभ होगा- ऐसी बात भी नहीं है। इस युद्धके परिणाममें हमारे लिये लोक और परलोक-दोनों ही हितकारक नहीं दीखते। कारण कि जो अपने कुलका नाश करता है, वह अत्यन्त पापी होता है। अतः कुलका नाश करनेसे हमें पाप ही लगेगा, जिससे नरकोंकी प्राप्ति होगी।

इस श्लोकमें 'निमित्तानि पश्यामि' और 'श्रेयः अनुपश्यामि - इन दोनों वाक्योंसे अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि मैं शकुनोंको देखूँ अथवा स्वयं विचार करूँ, दोनों ही रीतिसे युद्धका आरम्भ और उसका परिणाम हमारे लिये और संसारमात्रके लिये हितकारक नहीं दीखता।

३-यहाँ 'पश्यामि' क्रिया भूत और वर्तमानके शकुनोंके विषयमें और 'अनुपश्यामि' क्रिया भविष्यके परिणामके विषयमें आयी है।

सम्बन्ध-जिसमें न तो शुभ शकुन दीखते हैं और न श्रेय ही दीखता है, ऐसी अनिष्टकारक विजयको प्राप्त करनेकी अनिच्छा अर्जुन आगेके श्लोकमें प्रकट करते हैं।"
"(श्लोक-३२)

न काङ्के विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।।

कृष्ण = हे कृष्ण (मैं), न न (तो), विजयम् = विजय, काङ्ग्रे = चाहता हूँ, न = न, राज्यम् = राज्य (चाहता हूँ), च = और, सुखानि = (न) सुखोंको (ही चाहता हूँ), गोविन्द = हे गोविन्द, नः = हमलोगोंको, राज्येन राज्यसे, किम् = क्या लाभ, भोगैः = अथवा, जीवितेन जीनेसे (भी), भोगोंसे (क्या लाभ), वा किम् = क्या लाभ ।

व्याख्या- 'न काङ्ग्रे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च' - मान लें कि युद्धमें हमारी विजय हो जाय, तो विजय होनेसे पूरी पृथ्वीपर हमारा राज्य हो जायगा, अधिकार हो जायगा। पृथ्वीका राज्य मिलनेसे हमें अनेक प्रकारके सुख मिलेंगे। परन्तु इनमेंसे मैं कुछ भी नहीं चाहता अर्थात् मेरे मनमें विजय, राज्य एवं

सुखोंकी कामना नहीं है। 'किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा'- जब हमारे मनमें किसी प्रकारकी (विजय, राज्य और सुखकी) कामना ही नहीं है, तो फिर कितना ही बड़ा राज्य क्यों न मिल जाय, पर उससे हमें क्या लाभ ? कितने ही सुन्दर-सुन्दर भोग मिल जायँ, पर उनसे हमें क्या लाभ ? अथवा कुटुम्बियोंको मारकर हम राज्यके सुख भोगते

हुए कितने ही वर्ष जीते रहें, पर उससे भी हमें क्या लाभ ? तात्पर्य है

कि ये विजय, राज्य और भोग तभी सुख दे सकते हैं, जब भीतरमें  इनकी कामना हो, प्रियता हो, महत्त्व हो। परन्तु हमारे भीतर तो इनकी कामना ही नहीं है। अतः ये हमें क्या सुख दे सकते हैं ? इन कुटुम्बियोंको मारकर हमारी जीनेकी भी इच्छा नहीं है; क्योंकि जब हमारे कुटुम्बी मर जायँगे, तब ये राज्य और भोग किसके काम आयेंगे ? राज्य, भोग आदि तो कुटुम्बके लिये होते हैं, पर जब ये ही मर जायँगे, तब इनको कौन भोगेगा ? भोगनेकी बात तो दूर रही, उलटे हमें और अधिक चिन्ता, शोक होंगे !

सम्बन्ध-अर्जुन विजय आदि क्यों नहीं चाहते, इसका हेतु आगेके श्लोकमें बताते हैं।"
"(श्लोक-३३)

येषामर्थे काङ्कितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च। त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥

येषाम् = जिनके, अर्थे लिये, नः हमारी, राज्यम् = राज्य, भोगाः = भोग, च = और, सुखानि सुखकी, काङ्कितम् = इच्छा है, ते = वे (ही), इमे = ये सब (अपने), प्राणान् = प्राणोंकी, च = और, धनानि = धनकी आशा का, त्यक्त्वा = त्याग करके, युद्धे = युद्धमें, अवस्थिताः = खड़े हैं।

व्याख्या- 'येषामर्थे काङ्गितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च' - हम राज्य, सुख, भोग आदि जो कुछ चाहते हैं, उनको अपने व्यक्तिगत सुखके लिये नहीं चाहते, प्रत्युत इन कुटुम्बियों, प्रेमियों, मित्रों आदिके लिये ही चाहते हैं। आचार्यों, पिताओं, पितामहों, पुत्रों आदिको सुख-आराम पहुँचे, इनकी सेवा हो जाय, ये प्रसन्न रहें- इसके लिये ही हम युद्ध करके राज्य लेना चाहते हैं, भोग-सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं।

'त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च' पर वे ही ये सब-के-सब अपने प्राणोंकी और धनकी आशाको छोड़कर युद्ध करनेके लिये हमारे सामने इस रणभूमिमें खड़े हैं। इन्होंने ऐसा विचार कर लिया है कि हमें न प्राणोंका मोह है और न धनकी तृष्णा है; हम मर बेशक जायें, पर युद्धसे नहीं हटेंगे। अगर ये सब मर ही जायँगे, तो फिर हमें राज्य किसके लिये चाहिये ? सुख किसके लिये चाहिये ? धन किसके लिये चाहिये ? अर्थात् इन सबकी इच्छा हम किसके लिये करें ?

'प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च' का तात्पर्य है कि वे प्राणोंकी और धनकी आशाका त्याग करके खड़े हैं अर्थात् हम जीवित रहेंगे और हमें धन मिलेगा- इस इच्छाको छोड़कर वे खड़े हैं। अगर उनमें प्राणोंकी और धनकी इच्छा होती, तो वे मरनेके लिये युद्धमें क्यों खड़े होते ? अतः यहाँ प्राण और धनका त्याग करनेका तात्पर्य उनकी आशाका त्याग करनेमें ही है।

सम्बन्ध-जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे लोग कौन हैं- इसका वर्णन अर्जुन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।"

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बोलो ग्रंथराज श्रीमद्भगवद्गीता जी की जय || जय श्री कृष्ण ||


 

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